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केरल: मुथंगा आंदोलन के दो दशक बाद भी आदिवासी कर रहे भूमि अधिकार का इंतजार

मुथंगा आंदोलन के बाद भी वायनाड के आदिवासियों के हालात जस के तस है. वायनाड में राज्य के सबसे ज्यादा आदिवासी रहते है. यहां एक बार फिर मुथंगा जैसा ही आंदोलन चल रहा है. वायनाड के मरियानाड एस्टेट में 100 भूमिहीन आदिवासी परिवार काफी समय से आंदोलन कर रहे है.

देश में समाज के हाशिए पर रहने वाले आदिवासी हमेशा से अपने भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष करते आए है. दक्षिण भारत के राज्य केरल में भी आदिवासी दशकों से अपनी ज़मीन के लिए लड़ाई लड़ रहे है. पिछले महीने ही राज्य के भूमिहीन आदिवासियों ने केरल सरकार को चेतावनी दी है कि उनके अधिकार नहीं मिलने पर वो राज्य में एक और भूमि संघर्ष की शुरूआत कर सकते है. आदिवासी गोत्र महासभा (एजीएमएस) सभी इन परिवारों के लिए भूमि की मांग करते हुए आंदोलन की योजना बना रही है.

ये आदिवासी दशकों से अपनी जमीन पर अधिकार के लिए इंतजार कर रहे है. 1990 में जमीन के लिए इनका आंदोलन तेज हो गया था. जो साल 2003 में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंच गया. ये साल राज्य में आदिवासी गोत्र महासभा के नेतृत्व में मुथंगा आंदोलन के लिए जाना जाता है.

साल 2003 में वायनाड जिले के आदिवासियों ने मुथंगा आंदोलन की शुरुआत की थी. इसके तहत आदिवासियों ने इस पहाड़ी जिले में भूमि और स्वायत्तता के अधिकार की मांग की. यह आंदोलन 44 दिन तक ही जारी रह सका. क्योंकि पुलिस की कार्रवाई ने इस आंदोलन को झड़प का रूप दे दिया था. मुख्य विरोध स्थल पर पुलिस की गोलीबारी में आदिवासी प्रदर्शनकारियों में से एक जोगी की मौत हो गई. जबकि पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हुई झड़प के दौरान कांस्टेबल विनोदघायल हो गए.

देशभर के नागरिक समूहों और हस्तियों ने इस घटना की निंदा की थी.

इस घटना के बाद सरकार ने आदिवासियों के लिए मुथंगा पैकेज की घोषणा की. इस समझौते के तहत अब तक सरकार और गोत्र महासभा द्वारा अनुमोदित प्राथमिकता सूची में 241 परिवारों को भूमि प्राप्त हुई है. सरकारी फाइलों के मुताबिक इस साल मार्च तक मुथंगा पैकेज के तहत भूमि वितरण का कार्य पूरा कर लिया जायेगा. लेकिन इनमें से 90 फीसदी लोग अभी भी अपनी जमीन चिन्हित करने का इंतजार कर रहे हैं.

क्यों शुरू हुआ मुथंगा आंदोलन

मुथंगा आंदोलन एक दिन में शुरू नहीं हुआ था..बल्कि लंबे समय से इसकी रुपरेखा बन रही थी. साल 2001 में आई एक रिपोर्ट ने आदिवासियों को चौंका दिया था. अट्टापडी में भुखमरी से 32 लोगों की मौत की खबर ने आदिवासियों को संघर्ष के लिए मजबूर किया. इस खबर की जांच में पाया गया कि वायनाड में आदिवासियों के बीच भुखमरी का एक प्रमुख कारण उनकी खेती के लिए भूमि की कमी थी.

इस बीच एक नए राजनीतिक संगठन आदिवासी गोत्र महासभा का गठन किया गया. जिसने इस विरोध-प्रदर्शन को शुरू किया. अक्टूबर में2001 में कई हफ्तों तक विरोध प्रदर्शन जारी रहने के बाद, आंदोलनकारियों और तत्कालीन संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार के बीच एक समझौता किया गया. जिसे मिशन मोड में लागू किया जाना था. समझौते के अनुसार, सभी भूमिहीन आदिवासियों को एक से दो हेक्टेयर खेती योग्य भूमि देने और उसे विकसित करने के लिए वित्तीय सहायता देने का वादा किया गा था. सरकार ने तब 52,000 भूमिहीन आदिवासी परिवारों की पहचान की थी. केंद्र सरकार ने आदिवासियों के बीच वितरण के लिए 19,000 एकड़ भूमि निर्धारित की थी. हालांकि, सरकार अपने वादे से मुकर गई और ये समझौता सिर्फ कागजों तक सिमट के रह गया.

5 जनवरी, 2003 को, आदिवासी गोत्र महासभा के अध्यक्ष सी के जानू और एम गीतानंदन के नेतृत्व में करीब 600 परिवारों के 1000 लोगों ने मुथंगा जंगलों में आंदोलन शुरू किया. उन्होंने ठाकरपडी, अंबुकुट्टी और पोंकुझी (कौंदनवयाल) में जंगल पर कब्जा कर लिया और जनता और वन अधिकारियों के प्रवेश को प्रतिबंधित करते हुए सैकड़ों फूस की झोपड़ियां और एक चौकी बना ली थी.

लेकिन 19 फरवरी, 2003 करीब 800 पुलिस जवान जंगल में घुस आए. सशस्त्र पुलिस बल ने विरोध स्थल से प्रदर्शनकारियों को हिंसक रूप से हटाना शुरू कर दिया. इसके बाद हुई झड़पों में, जोगी और विनोद की जान चली गई, जबकि सैकड़ों आदिवासियों और दर्जनों पुलिसकर्मियों को गंभीर चोटें आईं.

केरल के वायनाड जिले के मुथंगा के जंगलों में कट्टुनयक्कर, अडियार, पनियार, कुरुमर और कुरिच्यार जैसे आदिवासी समूह रहते थे.

2 दशक के बाद भी संघर्ष जारी

इस साल 19 फरवरी को मुथंगा आंदोलन को 2 दशक पूरे हो चुके है. लेकिन इतने समय बाद भी यहां के आदिवासियों को उनका हक नहीं मिला है. इस इस समय वायनाड के मरियानाड एस्टेट में भूमिहीन आदिवासियों का मुथंगा जैसा आंदोलन चल रहा है. यहां 100 आदिवासी परिवारों ने सुल्तान बाथरी के पम्बरा में मरियानाड एस्टेट पर कब्जा कर लिया है. एजीएमएस नेता एम गीतानंदन आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं.

आदिवासियों का कहना है कि सरकार 2014 में मुथांगा पैकेज की घोषणा करने पर सहमत हुई थी. लगभग 280 परिवारों की पहचान की गई थी, लेकिन केवल 180 को ही भूमि अधिकार मिला है. उन्होंने कहा,”हमें दूसरे दर्जे के नागरिकों के रूप में माना जाता है … हम जमीन पर खेती कर सकते हैं और उपज एकत्र कर सकते हैं. फसल के नुकसान या शिक्षा ऋण के मुआवजे का लाभ उठाने के लिए हमें भूमि कर रसीद पेश करनी होगी. लेकिन हमारे पास कोई टाइटल डीड (यानी की भूमि संपत्ति के स्वामित्व का दस्तावेज)नहीं है, ऐसे में हम भूमि कर का भुगतान नहीं कर सकते हैं.”

हालांकि राज्य सरकार के अधीन अनुसूचित जनजाति विकास विभाग (STDD) द्वारा बनाए गए आंकड़ों के अनुसार, 2 नवंबर, 2022 तक केरल में भूमिहीन अनुसूचित जनजाति (ST) परिवारों की संख्या 8,295 है. आंकड़ों के मुताबिक साल 2016 से 2022 तक भूमि प्राप्त करने वाले अनुसूचित जनजाति परिवारों की संख्या 6,537 है.

आदिवासियों की भूमि पर कब्जा

आज तक कथित रूप से प्रगतिशील माने जाने वाले केरल में आदिवासी कई अन्य राज्यों में की तुलना में बदतर स्थिति में हैं. और इसकी एक बड़ी वजह है उनका अपनी ही भूमि से बेदखल होना. 2011 की जनगणना के अनुसार, वायनाड में एक लाख से अधिक लोग आदिवासी हैं. जो जिले की आबादी का 31.24 प्रतिशत है. इस क्षेत्र में कम से कम नौ आदिवासी जनजातियाँ हैं. यहां पेसा को अभी तक लागू नहीं किया गया है. इतना ही नहीं वनाधिकार कानून 2006 का हाल भी बदहाल है.

केरल में आदिवासियों के पास जंगलों के बड़े हिस्से थे, खासकर पलक्कड़, वायनाड, इडुक्की, पठानमथिट्टा, कोल्लम और तिरुवनंतपुरम जिलों में. लेकिन धीरे-धीरे इन जमीनों को गैर आदिवासियों ने अपने कब्जे में ले लिया था. अतिक्रमण अभियान धीरे-धीरे चल रहा था. जैसे-जैसे मैदानी इलाकों में जमीन पर दबाव बढ़ता गया, गैर-आदिवासी लोग जंगलों और पहाड़ों पर बसने लगे.

हालांकि 1975 में राज्य सरकार ने केरल अनुसूचित जनजाति (भूमि के हस्तांतरण पर प्रतिबंध और अलगावित भूमि की बहाली) अधिनियम पारित किया जिसने गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासी भूमि की खरीद को प्रतिबंधित कर दिया.

1975 के अधिनियम ने आदिवासियों को आश्वासन दिया था कि उनकी अलग की गई जमीन वापस कर दी जाएगी. लेकिन साल 1996 में राज्य के आदिवासियों के साथ बड़ा विश्वासघात हुआ, जब वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार ने कांग्रेस विधायकों के समर्थन से, अनुसूचित जनजातियों की भूमि के हस्तांतरण को नियंत्रित करने के लिए 1975 के कानून में संशोधन किया. इसके तहत आदिवासी क्षेत्रों में गैर-आदिवासी निवासियों के पक्ष में हस्तांतरित भूमि की बहाली करने का फैसला लिया गया. इसके बाद से ही राज्य के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों में नाराजगी बढ़ती चली गई. ये लोग धीरे-धीरे अपने जंगलों से बेदखल होने लगे.

केरल में राज्य के साथ-साथ मुख्यधारा के समाज को आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है कि स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद, राज्य के आदिवासियों – जिनकी संख्या जनसंख्या का मात्र 1.4% है उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार क्यों नहीं दिए गए हैं.

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