HomeLaw & Rightsझारखंड में भूमि संबंधी अनसुलझे मुद्दे आदिवासी के लिए ख़तरनाक हैं

झारखंड में भूमि संबंधी अनसुलझे मुद्दे आदिवासी के लिए ख़तरनाक हैं

काश्तकारी कानूनों के जानकारों का मानना ​​है कि कल तक मालिक रहे आदिवासी अपनी जमीन खो रहे हैं और जमीन दलालों से लेकर व्यापारी तक सभी उसी जमीन को बेचकर मालामाल हो रहे हैं.

झारखंड बनने के 24 साल में हर सरकार ने राज्य के विकास के लिए कुछ न कुछ किया, लेकिन जमीन की समस्या जस की तस बनी हुई है. इसी वजह से अगर आप अकेले रांची का क्राइम रिकॉर्ड देखेंगे तो दंग रह जाएंगे.

सोशल एक्टिविस्ट और पद्मश्री से सम्मानित अशोक भगत ने एक लेख के जरिए यह चिंता जताई है.

उनका दावा है कि जमीन विवाद और घोटाले के चलते रांची में करीब हर हफ्ते किसी की हत्या हो जाती है. जमीन घोटाले में कई प्रशासनिक अधिकारियों का नाम सामने आया है, कार्रवाई हुई है और कई अधिकारी जेल में भी हैं.

उनका कहना है कि यह मामला झारखंड के लिए नासूर बनता जा रहा है. अगर समय रहते इसका समाधान नहीं किया गया तो आने वाला समय झारखंड के लिए ख़तरनाक हो सकता है.

भुईंहारी जमीन

झारखंड में आदिवासी जमीन का इतिहास जानने वालों की संख्या बहुत कम है. राज्य में ज़्यादातर लोगों को तो यह भी नहीं पता कि भुईंहारी जमीन (Bhuinhari land) पर सरकार का कोई अधिकार नहीं है.

यहां तक ​​कि इस जमीन के दर्जनों मालिकों को भी यह नहीं पता कि उनकी जमीन कहां है, कितनी है और किस हालत में है.

काश्तकारी कानूनों के जानकारों का मानना ​​है कि कल तक मालिक रहे आदिवासी अपनी जमीन खो रहे हैं और जमीन दलालों से लेकर व्यापारी तक सभी उसी जमीन को बेचकर मालामाल हो रहे हैं.

अविभाजित बिहार के समय से ही झारखंड में आदिवासी समुदाय के लिए कई भूमि सुधार कानून बनाए गए. इनसे आदिवासी समुदाय को थोड़ा बहुत लाभ तो हुआ लेकिन जागरूकता के अभाव में कानून महज दिखावा बनकर रह गए हैं. राज्य में सबसे ज्यादा लूट आदिवासियों की जमीन की हुई है.

झारखंड में कई तरह की जमीनें हैं, जिनमें से एक है भुईंहारी जमीन. ऐसी जमीन लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा और खूंटी में है, जो पुराने रांची जिले का हिस्सा हैं.

आंकड़े बताते हैं कि कभी 2,482 गांवों में भुईंहारी जमीनें हुआ करती थीं. रांची के मोरहाबादी, बरियातू, कोकर, लालपुर, कांके, डोरंडा, हिनू, सिरोम, चुटिया, नामकुम, कटहलमोड़, दलदली, कोकर, काठीटांड जैसे इलाकों में रांची के राजधानी बनने के बाद से करीब 80 फीसदी भुईंहारी जमीनें गायब हो गई हैं.

विशेषज्ञों के मुताबिक इन जमीनों के मालिक उरांव और मुंडा हैं. लेकिन रांची के शहरी इलाके में करीब 80 फीसदी जमीन दोनों समुदायों के हाथ से निकल गई है.

भुइंहारी जमीन के ज्यादातर रिकॉर्ड भी मिट चुके हैं. यह जमीन बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 के दायरे में नहीं आती है. इस पर आदिवासी जमींदारों का पूरा अधिकार है.

भूत खेत

भुइंहारी जमीन वह होती है जिसे जंगल को साफ करके खेती योग्य बनाया गया हो. इस जमीन में भूत खेत होता है यानी गांव के देवता को समर्पित प्राकृतिक जमीन. इसका इस्तेमाल वे लोग करते थे जो अपने आराध्य देवता की पूजा करते थे.

भूत खेत, जिस पर आमतौर पर गांव वालों की मदद से खेती की जाती थी, उसका नेतृत्व गांव के पाहन करते थे. ऐसे खेत की उपज का इस्तेमाल गांव के देवताओं की पूजा में किया जाता है.

सभी गांव वाले मिलकर तीन साल के लिए अपना पाहन चुनते हैं और भूत खेत की जमीन का मालिकाना हक बदलता रहता है. यह व्यवस्था हर जगह हर तरह से चलती है.

पहले इस इलाके में लोग इसलिए नहीं आते थे क्योंकि जमीन समतल नहीं थी और घने जंगल थे. हालांकि, 19वीं सदी में छोटानागपुर में बसने वालों की संख्या बढ़ने लगी. 1871 में गैर-आदिवासियों की संख्या सिर्फ 96 हज़ार थी लेकिन 1931 तक यह संख्या बढ़कर 3 लाख 7 हज़ार हो गई.

छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धाराओं की आड़ में शहरी जमीन समाज से बाहर के लोगों को हस्तांतरित कर दी गई और अपने समुदाय के गरीब लोगों की जमीन को बहुत कम कीमत पर खरीदकर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर दी गईं. सभी वर्ग के लोगों ने बिचौलियों और दलालों की मिलीभगत से अकूत संपत्ति अर्जित की है.

दक्षिणी पठार के मैदानों में औपनिवेशिक प्रवृत्ति वाले समूहों द्वारा आदिवासी कृषि व्यवस्था और सामाजिक संरचना पर नियंत्रण 19वीं सदी में शुरू हुआ. गैर-आदिवासी 1869 के बाद ही आदिवासी जमीन पर अपना पैर जमाने में सफल हुए.

जमीन लूट के पीछे संगठित गिरोह आदिवासी जमीन की लूट के पीछे एक संगठित गिरोह काम करता है. इसमें वे स्थानीय आदिवासी नेता भी शामिल हैं, जो जमीन की लूट का विरोध कर अखबारों में सुर्खियां बटोरते रहते हैं.

अशोक भगत का कहना है कि झारखंड में सिर्फ भुइंहारी जमीन ही नहीं लूटी गई है. आदिवासियों की निजी जमीन भी लूटी जा रही है. लेकिन सरकार और प्रशासन चुप्पी साधे हुए हैं.

कानून ऐसा है कि कोई आदिवासी दूसरे इलाके में जाकर जमीन नहीं खरीद सकता लेकिन यहां तो पूरे देश से गैर-आदिवासी आदिवासियों की जमीन खरीद रहे हैं. रांची में ज्यादातर जमीन उरांव जनजाति की थी. अब उनके पास बसने के लिए जमीन नहीं है.

इस पूरे मामले में धार्मिक और सामाजिक संगठनों की भूमिका भी संदिग्ध है. जंगल, रेत, पानी और खनिजों की लूट बड़ी लूट है, यहां तो निजी जमीन भी लूटी जा रही है.

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