HomeIdentity & Lifeझारखंड के पहाड़िया आदिवासी भूखे सोने को मजबूर क्यों हैं ?

झारखंड के पहाड़िया आदिवासी भूखे सोने को मजबूर क्यों हैं ?

EPW पत्रिका में छपे एक सर्वे ने दावा किया है कि खाद्य सुरक्षा क़ानून 2013 के बाद आदिम जनजातियों में हालात सुधरे हैं. लेकिन अभी भी भूख एक बड़ा मसला है. यह सर्वे दावा करता है कि झारखंड के पहाड़िया आदिवासियों में कम से कम 40 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो कभी ना कभी भूखे सोते हैं.

झारखंड राज्य की दो तहसीलों के गाँवों में रहने वाले कुछ आदिम जनजातीय परिवारों का एक सर्वे हुआ है. इस सर्वे में पता चलता है कि PVTG कहे जाने वाले इन आदिवासी परिवारों का जीवन बेहद मुश्किल और ख़तरे से घिरा है.

क्योंकि इनकी जीविका के साधन सीमित हैं, शिक्षा और दूसरी सुविधाओं तक इनकी पहुँच नहीं है और लगातार इनका शोषण होता रहा है.

इस सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों के इन परिवारों में से ज़्यादातर के पास राशन कार्ड है और उन्हें महीने भर का राशन मिलता है.

इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा पेंशन से भी इन परिवारों को जीने में मदद मिलती है. लेकिन यह सर्वे बताता है कि अभी भी कई परिवार ऐसे मिलते हैं जो इन सेवाओं से छूटे हुए हैं.

इसके अलावा आधार कार्ड ना होने या आधार कार्ड के लिंक नहीं होने के कारण भी राशन, पेंशन और दूसरी सुविधाओं से कई परिवार वंचित हो जाते हैं.

इस सर्वे का निष्कर्ष है कि आज भी PVTG यानि आदिम जनजातियों में खाद्य सुरक्षा यानि भूख एक बड़ा मसला है. 

यह सर्वे पहाड़िया समुदाय के परिवारों के बारे में बात करता है. इस सर्वे से पहाड़िया परिवारों के बारे जो ज़रूरी तथ्य और निष्कर्ष सामने आए हैं, उन्हें भी समझने की कोशिश करते हैं, लेकिन उससे पहले PVTG कहे जाने वाले समुदायों के बारे में कुछ बातें समझ लेते हैं. 

साल 1975-76 में सरकार ने आदिवासी समुदायों में से उन समूहों की अलग से पहचान शुरू की जो घने जंगल में खाने या शिकार की तलाश में घूमते रहते थे.

ये आदिवासी समुदाय छोटी मोटी झूम खेती करते थे. कुल मिला कर इनकी गतिविधियाँ किसी तरह से ख़ुद को ज़िंदा रखने तक सीमित थी.

इन आदिवासियों में से कई समुदायों पर विलुप्त हो जाने का ख़तरा मंडरा रहा था. उसका एक बड़ा कारण था कि इनकी जीविका के साधन लगातार कम हो रहे थे. इसके कई कारण थे, मसलन वन्य जीवों और जंगल से जुड़े क़ानून, मौसम में बदलाव और बड़े समूहों द्वारा इनके इलाक़े में अतिक्रमण आदि.

फ़िलहाल 75 समुदायों की पहचान को आदिम जनजाति के तौर पर की जाती है जिन्हें आज उन्हें विशेष रूप से पछड़ी या कमज़ोर जनजातियाँ कहा जाता है. 

इन 75 आदिवासी समुदायों के अस्तित्व को बचाने के लिए यह बेहद ज़रूरी माना गया कि इन्हें सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाया जाए. 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि अंत्योदय योजना के तहत हर PVTG परिवार को हर महीने कम से कम 35 किलो राशन उपलब्ध कराया जाना चाहिए.

इसके अलावा साल 2015 झारखंड सरकार ने आदिम जनजाति पेंशन स्कीम भी शुरू की थी. इस योजना के तहत उन परिवारों को हर महीने 600 रूपये देने का फ़ैसला किया गया जिन्हें पहले से किसी और योजना के तहत नक़द पैसा मिलता है.

इस योजना को शुरू हुए क़रीब 7-8 साल बीत चुके हैं लेकिन अभी तक यह पता नहीं लगाया गया है कि इस योजना से आदिम जनजाति के परिवारों को कितना लाभ मिला है.

आईए अब इस सर्वे और उसमें बताए गए कुछ ख़ास तथ्यों के बारे में बात करते हैं, यह सर्वे पलामू और लातेहार ज़िले के मनिका और सतबरवा ब्लॉक के गाँवों में किया गया.

सामाजिक और आर्थिक जनगणना के आँकड़ों का इस्तेमाल कर सर्वे के लिए इन दो ब्लॉक के 15 गाँवों को चुना गया. इसके अलावा इस सर्वे में 3 ऐसी बस्तियों को भी शामिल किया गया जो जनगणना में छूट गई थीं.

तो कुल मिला कर 18 गाँव को इस सर्वे में शामिल किया गया. इस सर्वे में 375 परिवारों के 1712 लोगों से मुलाक़ात और बातचीत की गई. 

सर्वे कहता है कि पिछले कुछ दशक पहले से अगर तुलना की जाएगी तो पहाड़िया जनजाति के इन परिवारों की स्थिति थोड़ी बेहतर कही जा सकती है.

मसलन पहाड़िया आदिवासियों के ज़्यादातर घरों में अब बिजली का कनेक्शन पहुँच चुका है, वो बात दीगर है कि बिजली कभी कभी ही आती है.

इसके अलावा शौचालय और पीने के साफ़ पानी का इंतज़ाम भी हो रहा है. इन बस्तियों में अब लोग प्रधानमंत्री आवास योजना या फिर बिरसा आवास योजना के तहत पक्का मकान बनवाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन विकास के बाक़ी पैमानों पर यहाँ हालत बेहद ख़राब है.

चलिए अब देखते हैं यह सर्वे शिक्षा और जीविका के साधनों के बारे में क्या कहता है

मसलन शिक्षा के मामले में देखें तो यहाँ जो बालिग़ लोग मिले उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था जिसने प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई भी पूरी की थी. 6-14 साल के बच्चों में भी स्थिति बेहद ख़राब है.

इस उम्र सीमा के बच्चों में से 25 प्रतिशत स्कूल नहीं जाते हैं. यहाँ आंगनबाड़ी की सुविधा है लेकिन सिर्फ़ 19 प्रतिशत माँ बाप ने बताया कि उनके बच्चे आंगनबाड़ी जाते हैं.

60 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वो जीविका के लिए अस्थाई रोज़गार यानि दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. यहाँ जिन परिवारों से बात की गई उनमें से सिर्फ़ 7 प्रतिशत परिवार हैं जिनके किसी सदस्य को हर महीने वेतन मिलता है. 

और आईए अब देखते हैं कि यहाँ राशन प्रणाली कितना काम कर रही है

भारत के ग्रामीण इलाक़ों में 75 प्रतिशत और शहरी इलाक़ों में क़रीब क़रीब 50 प्रतिशत परिवारों को मुफ़्त या फिर काफ़ी कम दाम पर राशन दिया जाता है.

इस मामले में पहाड़िया बस्तियों में पाया गया कि कम से कम 88 प्रतिशत परिवारों को हर महीने राशन मिल रहा है. यह बेशक एक बड़ी उपलब्धि है.

लेकिन अभी भी 12 प्रतिशत परिवार राशन प्रणाली के दायरे से बाहर हैं…यह भी चिंता की बात है. इन 12 प्रतिशत में से 3 प्रतिशत ऐसे परिवार थे जिन्हें आधार से जुड़ी गड़बड़ी की वजह से राशन नहीं मिल रहा था.

इस सर्वे में पता चलता है कि 2013 में बने खाद्य सुरक्षा क़ानून के बाद इन परिवारों में से ज़्यादातर को राशन मिलने लगा है. सर्वे के तथ्यों के अनुसार इस क़ानून से पहले 23 प्रतिशत परिवार राशन प्रणाली के दायरे में नहीं थे. 

सर्वे में सामाजिक सुरक्षा पेंशन पर भी बात की गई है

इस सर्वे में पता चलता है कि 1995 में National Social Assistance Programme के तहत जो पेंशन स्कीम शुरू की गई थी, उसका लाभ ज़्यादातर परिवारों में मिल रहा है.

लेकिन जब यह सर्वे किया जा रहा था उस समय भी इस योजना के तहत मात्र 200 रूपए की राशी ही दी जाती थी. हांलाकि झारखंड सरकार आदिम जनजाति के परिवारों के लिए 600 रूपए की पेंशन देती है.

लेकिन अभी भी आदिम जनजातियों के 34 प्रतिशत परिवारो में अभी भी यह पेंशन नहीं मिलती है. 

पहाड़िया जनजाति के परिवारों की स्थिति को समझने के लिए किये गए सर्वे की इस रिपोर्ट में काफ़ी विस्तार से तथ्यों को समझाया गया है. इस रिपोर्ट के निष्कर्ष में कहा गया है राशन वितरण प्रणाली और पेंशन स्कीम में अब लीकेज ना के बराबर है.

यानि लाभार्थी तक इन योजनाओं का लाभ पहुँच रहा है. लेकिन पहाड़िया आदमियों जनजाति के 40 प्रतिशत परिवार अभी भी ऐसे हैं जिन्हें कभी ना कभी भूखा सोना पड़ा है.

अब ज़ाहिर है कि हमें यह बताना चाहिए कि यह सर्वे कहां छपा है और कैसे हम इस सर्वे के तथ्यों पर भरोसा कर सकते हैं…तो दोस्तों EPW नाम के एक पत्रिका में यह सर्वे इसी महीने यानि जनवरी अंक में छपा है. इस सर्वे में जो दावे किये गए हैं या जो चिंताएँ प्रकट होती हैं, उनको हम कमोबेश सच मानते हैं. क्योंकि कुछ महीने पहले हम ख़ुद झारखंड के पहाड़िया आदिवासी समुदाय के गाँवों के हालात देख कर आए हैं. हमें उम्मीद है कि आपने पहाड़िया समुदाय पर हमारी ग्राउंड रिपोर्ट देखी होंगी

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