केन्द्र सरकार ने कहा है कि ओडिशा के 68 समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश राज्य सरकार की तरफ़ से की गई है. इस मामले में केन्द्र सरकार ने कहा है कि आदिवासी मंत्रालय इन सभी मामलों पर विचार कर रहा है.
इस सिलसिले में मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि संविधान की धारा 342 के तहत किसी समुदाय को जनजाति में शामिल करने का अधिकार उसे दिया गया है. लेकिन 1999 और 2002 में हुए संविधान संशोधन के बाद यह प्रक्रिया थोड़ी बदल गई है.
इस बदलाव के बाद किसी राज्य सरकार की सिफ़ारिश और भारत के महा रजिस्ट्रार की सहमति के बाद ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है. केन्द्र सरकार की तरफ़ से कहा गया है कि ओडिशा की तरफ़ से जो सूचि भेजी गई है उस पर ज़रूरी कार्रवाइयाँ की जा रही हैं.
हालाँकि यह प्रक्रिया कब तक पूरी होगी इस सिलसिले में कोई निश्चित समय सरकार ने नहीं दिया है.
23 मार्च 2022 को आदिवासी मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के जवाब में यह कहा है.
ओडिशा की तरफ़ से जिन समुदायों की सूचि केन्द्र को भेजी गई है उनमें से ज़्यादातर ऐसे हैं जिनके नाम के उच्चारण की वजह से उन्हें अनुसूचित जनजाति के दर्जे से वंचित होना पड़ा है. मसलन दुरवा और धुरवा दोनों ही एक समुदाय है.
छत्तीसगढ़ में इस समुदाय को पीवीटीजी यानि अति पिछड़ी जनजाति के तौर पर पहचाना गया है. जबकि पड़ौसी राज्य ओडिशा में इन आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा भी नहीं दिया गया है.
इस समुदाय के साथ उच्चारण के आधार पर जो भेदभाव हुआ है उसे दूर करने की माँग लंबे समय से होती रही है. इस सिलसिले में साल 2018 में संसद में एक सवाल भी पूछा गया था. जिसके जवाब में सरकार ने कहा था कि इस मामले पर राज्य सरकार से स्पष्टीकरण माँगा गया है.
उसी तरह से मुका दोरा, नुका दोरा या मूका दोरा के स्थानीय लहज़े के हिसाब से अलग अलग उच्चारण मिलते हैं. जबकि यह एक ही समुदाय है. इस तरह के कई मामले ओडिशा में पाए जाते हैं. जहां बड़ी संख्या में लोग अनुसूचित जनजाति में शामिल होने से वंचित रह गए हैं.
भूमिज आदिवासियों के मामले में इस तरह की गड़बड़ी पाई जाती है. मसलन किसी इलाक़े में भूमिज के एक समूह को तामड़िया भूमिज बोला जाता है तो दूसरे इलाक़े में तामोड़िया भूमिज कहा जाता है. कहीं कहीं तामुलिया भूमिज या तामुंडिया भूमिज भी पुकारा जाता है.
जबकि यह एक ही आदिवासी समुदाय है. इनके रहन सहन और जीविका के साधन एक जैसे हैं. लेकिन इलाक़े के हिसाब से बातचीत के लहज़े में थोड़ा बहुत फ़र्क़ ज़रूर मिलता है.
किसी आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की ख़ास वजह होती है. इसमें सबसे बड़ी वजह होती है कि इन समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बचाने के साथ साथ इन्हें मुख्यधारा में लाया जा सके.
इसलिए अनुसूचित जनजातियों को कई तरह की संवैधानिक और क़ानूनी सुरक्षा मुहैया कराई गई है. इसमें उनके संसाधनों की रक्षा के साथ साथ उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए ख़ास प्रबंध करना भी शामिल है.
संविधान अनुसूचित जनजातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को भी सुनिश्चित करता है. लेकिन अनुसूचित जनजाति की सूचि से बाहर रह गए समुदायों को इस सुरक्षा और अधिकार से वंचित रहना पड़ता है.
ओडिशा के अलावा भी देश के हर उस राज्य में जहां आदिवासी आबादी है यह एक बड़ा मसला है. इस सिलसिले में बड़े आदिवासी समुदाय तो कुछ दबाव राज्य या फिर केंद्र पर बना लेते हैं. लेकिन छोटे आदिवासी समुदायों की आवाज़ दब कर रह जाती है.
संसद के हर सत्र में इस तरह के मामलों से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं. लेकिन ज़्यादातर मामलों में केन्द्र सरकार प्रक्रिया का हवाला दे कर पल्ला झाड़ लेती है.