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लोकसभा चुनाव से पहले टी ट्राइब को लुभा रही असम सरकार, बजट में बड़ी घोषणाएं

असम के चाय बागानों में काम करने वाले ज्यादातर श्रमिक आदिवासी हैं. ये लोग राज्य के 800 बड़े और 1.22 लाख छोटे चाय बागानों में काम करते हैं. राज्य के कुल मतदाताओं का लगभग 20 प्रतिशत मतदाता टी-ट्राइब हैं. साथ ही राज्य के 14 लोकसभा क्षेत्रों में से आधे में एक प्रमुख निर्णायक की भूमिका निभाते हैं.

असम में साल 2023-2024 के बजट में चाय बागान श्रमिकों के लिए बड़ी घोषणा की गई है. गुरुवार को 935.23 करोड़ रुपये का घाटा बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अजंता निओग ने कहा कि सरकार ने विशेष राहत देते हुए चाय बागान में काम करने वाले श्रमिकों के बिजली बकाया को माफ करने का फैसला किया है.

साथ ही सरकार ने चाय बागान में काम करने वाली गर्भवती महिलाओं के लिए मुआवजे की राशि मौजूदा 12 हजार रुपये से बढ़ाकर 15 हजार रुपये करने का भी फैसला किया है. इसके अलावा प्रधानमंत्री आवास योजना के अनुरूप एक योजना के तहत बनने वाले एक लाख घरों में से 10 हजार घर चाय बागान श्रमिकों के लिए बनाए जाएंगे.

इस दौरान सरकार ने कहा कि चाय बागानों में श्रमिक लाइनों के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए विशेष रूप से सड़कों के विकास पर जोर दिया जाएगा.

वहीं राज्य सरकार असम चाय को एक ब्रांड के रूप में बढ़ावा देने और चाय बागान समुदाय के समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करने के लिए भारत और विदेशों के प्रमुख शहरों में रोड शो आयोजित करेगी. रोड शो असम में चाय उद्योग के 200 वर्षों के “भव्य उत्सव” का हिस्सा है.

अजंता निओग ने कहा कि ऑर्थोडॉक्स टी और स्पेशल टी के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए असम चाय उद्योग विशेष प्रोत्साहन योजना, 2020 को और मजबूत किया जाएगा.

उन्होंने कहा, “ऑर्थोडॉक्स टी और स्पेशल टी के लिए उत्पादन सब्सिडी में 7 रुपये से 10 रुपये प्रति किलोग्राम की वृद्धि पहले से ही प्रक्रिया में है. असम चाय के 200 साल पूरे होने का जश्न मनाते हुए मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि 2023-24 के चालू वर्ष के लिए सिर्फ 12 रुपए प्रति किलोग्राम की बढ़ी हुई उत्पादन सब्सिडी को बढ़ाया जाएगा.”

जहां एक तरफ टी ट्राइब लंबे वक्त से अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं… वहीं वित्त मंत्री अजंता निओग ने कहा, “चाय बागान और आदिवासी समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes) के भीतर एक अलग उप-श्रेणी के रूप में मान्यता दी जाएगी. ओबीसी कोटा के भीतर सरकारी नौकरियों में लगभग 3 प्रतिशत आरक्षण पर विचार किया जाएगा, जो इस संबंध में कानूनी शर्तों को पूरा करने के अधीन होगा.”

असम के चाय बागानों में काम करने वाले ज्यादातर श्रमिक आदिवासी हैं. ये लोग राज्य के 800 बड़े और 1.22 लाख छोटे चाय बागानों में काम करते हैं. राज्य के कुल मतदाताओं का लगभग 20 प्रतिशत मतदाता टी-ट्राइब हैं. साथ ही राज्य के 14 लोकसभा क्षेत्रों में से आधे में एक प्रमुख निर्णायक की भूमिका निभाते हैं. ऐसे में बजट में इनके लिए की गई घोषणाओं को अगले साल यानि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले अहम माना जा रहा है.

टी-ट्राइब्स कौन हैं?

औपनिवेशिक काल में 1823 में रॉबर्ट ब्रूस नामक एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा चाय की पत्तियों को उगाए जाने के बाद वर्तमान के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से आदिवासी समुदायों के लोगों को असम में चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया.

1862 तक असम में 160 चाय बागान थे. इनमें से कई समुदायों को उनके गृह राज्यों में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है.

असम में इन लोगों को चाय जनजाति के रूप में जाना जाने लगा. वे एक विषम, बहु-जातीय समूह हैं और सोरा, ओडिया, सदरी, कुरमाली, संताली, कुरुख, खारिया, कुई, गोंडी और मुंडारी जैसी विविध भाषाएं बोलते हैं.

उन्होंने औपनिवेशिक काल में इन चाय बागानों में काम किया था और उनके वंशज आज भी राज्य में चाय बागानों में काम कर रहे हैं. वे असम को अपना घर बना रहे हैं और इसके समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने को जोड़ रहे हैं. आज असम में 8 लाख से अधिक चाय बागान कर्मचारी हैं और चाय जनजातियों की कुल जनसंख्या 65 लाख से अधिक होने का अनुमान है.

अनुसूचित जनजाति दर्जे की मांग

चाय श्रमिक विभिन्न आदिवासी समुदायों से आते हैं जिन्हें अन्य राज्यों में एसटी का दर्जा दिया गया है इसलिए असम में भी वो ऐसा ही चाहते हैं. अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने से सदस्यों को आरक्षण और छूट जैसे कुछ सामाजिक लाभ मिलते हैं, जो वर्तमान में चाय जनजातियों के लिए नहीं हैं.

पिछले साल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति सूची को अपडेट किया और इनमें पांच राज्यों- छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की 12 जनजातियां और पांच उप-जनजातियां शामिल थीं.

लेकिन सूची में असम की छह जनजातियां – ताई अहोम, मोरन, मटक, चुटिया, कोच राजबंशी और चाय जनजाति को छोड़ दिया गया. ये जनजातियां लंबे समय से एसटी दर्जे की मांग कर रहे हैं.

बीजेपी ने इन समुदायों को एक नहीं बल्कि दो लगातार राज्य विधानसभा चुनाव घोषणापत्रों में अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया था. लेकिन वादा पूरा करने में नाकाम रही हैं.

हालांकि, असम की सरकार का दावा है कि चाय बागान के आदिवासियों को वो सभी लाभ मिलते हैं जो किसी अनुसूचित जनजाति को हासिल होते हैं.

राज्य सरकार के इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी इन समुदायों को राजनीतिक आरक्षण और हिस्सेदारी तो नहीं मिलती है. चाय बागानों के आदिवासी समुदायों के लिए यह निश्चित ही एक बड़ा मसला है. 

असम की तरक्की में भूमिका

असम में जिन आदिवासी समुदायों को टी ट्राइब कहा जाता है उन्हें आज़ादी से पहले यहां पर लाया गया था. जब अंग्रेजी शासकों ने असम में चाय बाग़ानों के ज़रिये आर्थिक शोषण शुरू किया तब इन आदिवासियों को 1820 के आस-पास यहां लाना शुरू किया गया.

चाय उद्योग में मानव श्रम की ज़रूरत काफ़ी ज़्यादा होती है. इसलिए कई राज्यों से अलग अलग आदिवासी समुदायों को असम में चाय बाग़ान लगाने और चाय उत्पादन से जुड़े दूसरे काम के लिए बड़ी तादाद में लाया गया.

वर्तमान में असम के दरांग, सोनितपुर, नोगांव, जोरहाट, गोलाघाट, डिब्रूगढ़, कछार, करीमगंज, तिनसुकिया और कोकराझार जिलों में इन आदिवासी समुदायों की आबादी है.

अंग्रेजों के ज़माने से अभी तक असम की तरक़्क़ी में चाय बाग़ानों की अहम भूमिका रही है. चाय उद्योग के विस्तार के साथ ही इस उद्योग के लिए और मज़दूरों की ज़रूरत बढ़ती गई. इसलिए आज़ादी के बाद भी अलग अलग राज्य से यहां पर लोगों का आना लगा रहा.

टी-ट्राइब्स का संघर्ष

असम में चाय जनजाति के लोगों का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है लेकिन आज भी यह समुदाय राज्य के सबसे पिछड़े समुदायों में से एक माना जाता है.

चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों ने अपने साथ नाइंसाफी और भेदभाव का विरोध लंबे समय से किया है. इसके लिए उनके संगठन भी बने और उन्होंने आंदोलन भी किए. उनके संगठन और आंदोलन के दबाव में उनके शोषण को समाप्त करने के लिए कई कानून भी बनाए गए. संसद ने 1951 में प्लांटेशन लेबर एक्ट पास किया था. इस कानून में बाद में कई संशोधन भी किए गए थे.

इस कानून में चाय बाग़ानों से जुड़े लोगों के विकास के लिए कई प्रावधान किए गए थे. लेकिन इस कानून का कभी ईमानदारी से पालन ही नहीं किया गया. इसलिए शिक्षा या स्वास्थ्य या फिर अन्य मामलों में इन आदिवासी समुदाय की हालत निरंतर बिगड़ती चली गई.

टी-ट्राइब्स वोट बैंक

टी-ट्राइब को असम की राजनीति में एक अहम वोटबैंक के रूप में देखा जाता है. आज टी-ट्राइब्स जिनमें संथाल, कुरुख, मुंडा, गोंड, कोल और तांतियों सहित विभिन्न जातीय समूहों के लोग शामिल हैं, असम के कुल 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 47 में ये प्रभावशाली हैं. इसलिए किसी भी पार्टी के लिए उनकी अनदेखी करना मुमकिन नहीं है.

असम सरकार आए दिन टी ट्राइब को बहलाने के लिए वादे करती रहती है लेकिन उनके असल मुद्दों पर कभी बात नहीं करती है. हर बार चुनाव से पहले कई वादे इनसे किए जाते हैं लेकिन आज तक ज़्यादातर वादे अधूरे ही हैं.

(Photo Credit: PTI)

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