HomeLaw & Rightsदेश की अदालतों में आदिवासी की नुमाइंदगी क्यों नहीं है

देश की अदालतों में आदिवासी की नुमाइंदगी क्यों नहीं है

न्याय विभाग (Department of Justice) ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका (Judiciary) की प्रधानता के तीन दशकों के बाद भी यह समावेशी और सामाजिक रूप से विविध नहीं बन पाया है.

देश की न्यायपालिका (Judiciary) में अनुसुचित जनजाति (Scheduled Tribes), अनुसुचित जाति (Scheduled Caste) , पिछड़ा वर्ग (OBC), अल्पसंख्यक तथा महिलाओं, की भागीदारी बहुत कम है. लेकिन आदिवासियों (Tribals) की भागीदारी इन सभी वर्गों में भी सबसे कम है. ये जानकारी खुद केंद्रीय कानून मंत्री (Union Law Minister) किरेन रिजिजू (Kiren Rijiju) ने दी.

शुक्रवार को संसद (Parliament) में एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि 2018 के बाद से नियुक्त किए गए 569 उच्च न्यायालय (High Court) के न्यायाधीशों में से केवल 105 समाज के कमजोर वर्गों के थे.

इनमें से 64 न्यायाधीश अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से हैं, 15 अल्पसंख्यक समुदायों से हैं, 17 अनुसूचित जाति (SC) से हैं, और 9 अनुसूचित जनजाति (ST) से हैं.

किरेन रिजिजू लोकसभा में असम से सांसद नबा कुमार सरानिया के एक सवाल का जवाब दे रहे थे.

इस दौरान रिजिजू ने बताया कि 16 मार्च, 2023 तक, हाईकोर्ट (High Court) के कॉलेजियम ने कोर्ट के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिए 124 नामों की सिफारिश की है, जो केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन हैं. इनमें से केवल 4 अनुसूचित जाति के हैं और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं.

इस प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा गया कि ऐसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के अधिवक्ताओं पर कोई डेटा नहीं है जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में वरिष्ठ अधिवक्ताओं और अधिवक्ताओं के रूप में नामित किया गया है.

साल 2018 में केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता के संबंध में डेटा को रिकॉर्ड करना शुरू किया. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से परामर्श के बाद इस डेटा को संस्थागत किया गया है.

सवालों के जवाब में, केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने संसद को सूचित किया कि अदालत की वेबसाइटों पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 11 दिसंबर, 2021 तक सुप्रीम कोर्ट में 436 नामित वरिष्ठ अधिवक्ता और 3,041 एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड हैं. इसके अलावा अलग-अलग हाईकोर्ट में लगभग 1,306 नामित वरिष्ठ अधिवक्ता हैं.

न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रश्न के संबंध में मंत्री ने लोकसभा को बताया कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 217 और 224 के तहत की जाती है, जो किसी जाति या वर्ग के व्यक्तियों के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करते हैं.

उन्होंने कहा कि सरकार उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता के लिए प्रतिबद्ध है. सरकार उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध करती रही है कि जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय समाज के कमजोर तबकों – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी, महिलाएं और अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखें. ताकि हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता सुनिश्चित की जा सके.

संसदीय समिति ने जताई चिंता

इसी साल जनवरी में न्याय विभाग ने एक संसदीय समिति को बताया है कि पिछले पांच वर्षों में उच्च न्यायालयों में नियुक्त न्यायाधीशों में से 15 प्रतिशत से थोड़ा अधिक पिछड़े समुदायों से थे.

विभाग ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्रधानता के तीन दशकों के बाद भी यह समावेशी और सामाजिक रूप से विविध नहीं बन पाया है.

न्याय विभाग ने संसदीय समिति को पिछले 4 साल 2018 से 2022 के दौरान हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति को लेकर विस्तृत जानकारी दी थी. जिसमें कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में हाईकोर्टों में नियुक्त जजों में से 1.3 प्रतिशत जज अनुसूचित जनजाति, 2.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 11 प्रतिशत ओबीसी और 2.6 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदायों से थे.

न्याय विभाग ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता एवं बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की अध्यक्षता वाले कार्मिक, लोक शिकायत, कानून एवं न्याय पर संसद की स्थायी समिति के समक्ष एक विस्तृत प्रस्तुति दी.

विभाग ने इसमें कहा, ‘न्यायपालिका को संवैधानिक अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रमुख भूमिका निभाते लगभग 30 साल हो गए हैं. हालांकि, सामाजिक विविधता की आवश्यकता पर ध्यान देते हुए उच्च न्यायपालिका को समावेशी एवं प्रतिनिधिक बनाने की आकांक्षा अभी तक हासिल नहीं हुई है.’

जिसके बाद न्याय विभाग से जुड़ी संसदीय स्थायी समिति ने पाया कि न्यायपालिका में सामाजिक विविधता की कमी एक चिंता का विषय है.

निचली अदालतों के हालात भी खराब

निचली अदालतों की बात करें तो जुलाई 2022 के एक डेटा में पाया गया कि जिला और अधीनस्थ अदालतों में केवल 4.9 प्रतिशत न्यायाधीश अनुसूचित जनजाति (ST) के थे.

देश में आदिवासी बहुल राज्यों के हालात तो अभी भी खराब है. ओडिशा और पश्चिम बंगाल में राज्य में निचली अदालतों में एक भी एसटी जज नहीं था. जबकि गुजरात में जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में केवल 0.4 प्रतिशत एसटी न्यायाधीश थे.

हालांकि छत्तीसगढ़ में निचली अदालतों में बेहतर प्रतिनिधित्व था, जिसमें 27.8 प्रतिशत जज एसटी समुदाय से आते थे. जबकि मध्य प्रदेश में यह अनुपात 14.8 प्रतिशत था.

इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि देश की न्यायपालिका अभी भी समावेशी और सामाजिक रूप से विविध नहीं बन पाई है.

सुप्रीम कोर्ट में प्रतिनिधित्व?

देश में न्यायालय के बनने के बाद से साल 2021 तक सर्वोच्च न्यायालय में कुल 256 न्यायाधीश नियुक्त किए गए हैं. 1950 से 2021 तक अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय से सर्वोच्च न्यायालय में केवल पांच न्यायाधीश रहे हैं – जस्टिस ए वरदराजन, बीसी रे, केजी बालाकृष्णन, और वर्तमान में सेवारत जस्टिस बीआर गवई और सी टी शिवकुमार.

जबकि इसी अवधी में केवल एक जज ST समुदाय से थी. नागालैंड से न्यायमूर्ति एच.के.सेमा ने साल 2002 से 2008 तक सुप्रीम कोर्ट में अपनी सेवाएं दी.

सुप्रीम कोर्ट में आज तक केवल 11 महिलाओं को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है. लेकिन अब तक एक भी भी महिला न्यायाधीश भारत की मुख्य न्यायाधीश नहीं बनी हैं.

जानकारों का मानना है कि किसी भी समय सुप्रीम कोर्ट में 40 फीसदी से ज्यादा जज ब्राह्मण थे, जबकि करीब 50 फीसदी अन्य अगड़ी जातियों से थे. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के न्यायाधीशों की कुल संख्या कभी भी 10 प्रतिशत से अधिक नहीं रही.

न्यायपालिका में सामाजिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए संसद का प्रयास?

साल 2001 में सांसद करिया मुंडा की अध्यक्षता में एससी और एसटी के कल्याण पर संसदीय समिति की रिपोर्ट पेश की गई. रिपोर्ट में इस संबंध में सिफारिश की गई कि संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 में संशोधन लाया जाए ताकि न्यायपालिका को आरक्षण के दायरे में शामिल किया जा सके.

इसके साथ-साथ न्यायपालिका, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के उचित कामकाज के शासकीय सिद्धांतों को स्पष्ट करने के लिए एक न्यायपालिका अधिनियम बनाया जा सकता है.

साल 2006 में सांसद ई. एम. सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर विभाग से संबंधित संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया गया.

इस रिपोर्ट में भी हाईकोर्ट में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के पक्ष में आरक्षण की सिफारिश की गई. जैसा कि देश में अन्य सभी सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती के साथ होता है.

वर्तमान प्रणाली में, सरकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के रूप में नियुक्त कर सकती है, जिनकी शीर्ष अदालत के कॉलेजियम द्वारा सिफारिश की जाती है.

साल 2015 में शीर्ष अदालत ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त करने के लक्ष्य से लाए गए NJAC यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को खारिज कर दिया था.

एक मजबूत और स्वस्थ लोकतंत्र को उत्पीड़ित और उपेक्षित वर्ग के व्यक्तियों को अपनी आवाज उठाने की अनुमति देनी चाहिए. यह समय है कि सभी देश, विशेष रूप से भारत – जो कि एक गौरवपूर्ण विविध लोकतांत्रिक देश है, जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी कमजोर / पिछड़े समुदायों की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए. नेतृत्व के पदों के साथ ही विभिन्न स्तरों पर उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें.

इस मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट कॉलेजियम व्यवस्था की आड़ लेना चाहती है. लेकिन सरकार प्रशासन के बाक़ी अंगों में क्या यह सामाजिक विविधता सुनिश्चित कर पाई है ?

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