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बेमौसम बारिश की आशंका ने बढ़ाई आदिवासियों की चिंता, जंगल में महुआ के खराब होने का डर

आदिवासियों (Tribals) के जीवन में महुआ (Mahua) भोजन से लेकर चारा, दावा से लेकर दारू (शराब) तक सर्वव्यापी है. उन्हीं के शब्दों में, 'महुआ पेड़ नहीं, हमारी जीवन पद्धति है'. देश के ज्यादातर आदिवासी समुदाय जैसे- मुंडा (Munda), गोंड (Gond), उरांव (Oraon), बैगा (Baiga), हो (Ho) और संथाल (Santhal) अपने जीवन यापन के लिए महुआ पर निर्भर हैं. ये आदिवासी इसे जिंदगी का पेड़ मानते है.

तेलंगाना (Telangana) के आदिवासियों (Tribals) के लिए बदलता मौसम कई तरह की मुश्किलें पैदा कर रहा है. बदलते मौसम का सबसे ज्यादा नुकसान आदिलाबाद जिले के गरीब आदिवासियों को हो रहा है जिनके लिए बादल और बारिश चिंता का विषय बन गए है.

ये आदिवासी महुआ फूल (Madhuca longifolia) का संग्रह शुरू करने वाले थे. लेकिन अब इन्हें डर है कि कहीं ये मौसम फूल को प्रभावित ना कर दें.

असामान्य मौसम की स्थिति में महुआ के पेड़ों में फूल आने की अवस्था में देरी हो सकती है. ऐसे में फूलों की उपज भी लगभग एक तिहाई तक कम होने का खतरा बन जाता है , क्योंकि फूलों का आकार और वजन प्रतिबंधित हो जाता है.

जंगलों से महुआ के फूल इकट्ठा कर, उसे बाज़ार में बेचना इन आदिवासियों की आजीविका का बड़ा सधान है. होली के त्यौहार से पहले ये आदिवासी लोग महुआ फूल को इकट्ठा करना शुरू करते है ताकि अतिरिक्त आय अर्जित कि जा सके.

वे सूखे महुआ के फूलों को इकट्ठा करते है और बाद में सीजन में इसके बीज तेलंगाना राज्य गिरिजन सहकारी निगम (TSGCC) को 30 रुपये के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचते है. हालांकि कभी बहुत कम कीमत पर ही आदिवासी उन बीजों को निजी व्यापारियों को भी बेच देते हैं.

महुआ का पेड़, जिसे तेलुगु में इप्पा चेत्तु कहा जाता है, सामान्य रूप से मार्च के दूसरे पखवाड़े के दौरान फूलों की अवस्था में प्रवेश करते हैं और अप्रैल के अंत तक इनका गिरना जारी रहता हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि पेड़ किस क्षेत्र में स्थित हैं.

प्रत्येक पेड़ से लगभग तीन क्विंटल फूल और उतनी ही मात्रा में बीज पैदा होते हैं, जिससे एक परिवार 3,000 रुपये से लेकर 6,000 रुपये तक कमा लेता है. मार्च और मई के बीच महुआ के फूलों को इकट्ठा करने का पीक सीज़न है. इस सीजन में आदिवासी समुदाय टोकरियां लेकर खेतों और जंगलों की ओर महुआ के फूलों को इकट्ठा करने के लिए निकल जाते हैं.

विशेषज्ञों के मुताबिक महुआ के पेड़ों पर फूलों के आकार में बढ़ोतरी के लिए हल्के गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है. 20 डिग्री सेल्सियस और 25 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान इन फूलों के लिए अनुकूल होता है.

तेलंगाना में महुआ

तेलंगाना में महुआ को राज गोंड और कोलम आदिवासियों द्वारा न केवल अपने देवी-देवताओं के साथ धार्मिक जुड़ाव के लिए, बल्कि इसके विविध उपयोगों, खाद्य सुरक्षा के प्रावधान और भीषण गर्मी के महीनों के दौरान पूरक आय बढ़ाने के लिए भी पवित्र माना जाता है. महुआ के पेड़ की पूजा करने के बाद ही महुआ के फूलों का संग्रह शुरू होता है.

तेलंगाना में महुआ की अधिकांश उपज आदिलाबाद, कोमाराम भीम आसिफाबाद, मनचेरियल, निर्मल और कामारेड्डी जिलों से आती है.

साल 2017-18 में TSGCC ने आदिवासियों से लगभग 20,000 क्विंटल इप्पा पुवु (तेलुगु में महुआ फूल) खरीदा था. इसमें से आधे से ज्यादा उत्नूर डिवीजन से खरीद हुई थी. जिससे सरकार को लगभग 4 हज़ार करोड़ रुपए की आय हुई.

राज्य में पिछले 2 दशकों में महुआ के फूलों के संग्रहण में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिले. जानकारों का मानना है कि अनौपचारिक मूल्य धीरे-धीरे आदिवासी लोगों को इस गतिविधि से दूर कर रहा है.

इतना ही नहीं इस मौसम में फूल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मौजूदा 30 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़ाने की आवश्यकता की है. ये मूल्य पिछले तीन साल से इसी किमत पर बना हुआ है.

हालांकि सूखे महुआ के फूलों के लिए एमएसपी बढ़ाने पर सरकार ने अभी तक कोई चर्चा नहीं की है.

महुआ -जिंदगी का पेड़

जंगल से जो वनोत्पाद आदिवासी जमा करते हैं उसमें महुआ ऐसा उत्पाद है जो देश के लगभग सभी आदिवासी समुदायों को जीविका देता है.

उनके दैनिक जीवन में भी, महुआ भोजन से लेकर चारा, दावा से लेकर दारू (शराब) तक सर्वव्यापी है. उन्हीं के शब्दों में, ‘महुआ पेड़ नहीं, हमारी जीवन पद्धति है’. देश के ज्यादातर आदिवासी समुदाय जैसे- मुंडा, गोंड, उरांव, बैगा, हो और संथाल अपने जीवन यापन के लिए महुआ पर निर्भर हैं. ये आदिवासी इसे जिंदगी का पेड़ मानते है.

महुआ का पेड़, पश्चिमी, मध्य और पूर्वी भारत के जंगली मैदानों में बहुतायत से उगता है. परंपरागत रूप से इन जनजातियों ने इसके फूलों, फलों, शाखाओं और पत्तियों का उपयोग भोजन, मवेशियों के चारे, ईंधन, कला, दवा के रूप में किया है.

बाज़ारों में अनाज खरीदने के लिए महुआ का लेनदेन किया जाता था. इतना ही नहीं धार्मिक अनुष्ठानों में भी इसका उपयोग किया जाता था. आदिवासी अपने अराध्य देव पर महुआ के फूल को तर्पण करते है.

महुआ का फूल गैर-लकड़ी जंगली पैदावार (NTFP) में से एक है, जो जनजातीय अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं. महुआ के आर्थिक महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश की तीन चौथाई आदिवासी आबादी महुआ के फूलों को एकत्रित करने में लगी हुई है, जो दर्शाता है कि लगभग 7.5 मीलियन लोगों का जीवन इस पर निर्भर है.

ग्रामीण महुआ के पत्तों का उपयोग कटोरे, प्लेट और शंकु बनाने के लिए करते हैं जिन्हें वे बेचते हैं और पारंपरिक उत्सवों में इस्तेमाल करते हैं. महुआ फल का उपयोग खाद्य तेल निकालने के लिए किया जाता है, जो अपने जैव ईंधन गुणों, चिकित्सीय गुणों और आर्थिक मूल्य के लिए भी जाना जाता है. इसे स्थानीय रूप से “गुल्ली” कहा जाता है.

इस सब गुणों के बावजूद महुआ सबसे ज्यादा चर्चित है शराब के लिए. ब्रिटिश राज के दौरान भारत में महुआ उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. औपनिवेशिक सरकार ने इसे एक खतरनाक दवा और सार्वजनिक स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए खतरा माना.

1947 के बाद भी शराब की बिक्री और उत्पादन पर एकाधिकार बना रहा और महुआ सख्त कानूनों और सीमाओं के अधीन रहा. महुआ को निम्न-गुणवत्ता, “खतरनाक” पेय के रूप में वर्गीकृत किया गया था. साथ ही, आदिवासी लोगों को पारंपरिक ग्रामीण बाजारों से परे इसे बनाने और बेचने के अधिकार से वंचित कर दिया गया.

हालांकि अब इस स्थिति में कुछ बदलाव आया है. पिछले कुछ वर्षों में, स्थानीय सरकारों के रवैये में धीरे-धीरे बदलाव आया है.

साल 2021 में, मध्य प्रदेश सरकार ने महुआ को हेरिटेज शराब घोषित किया. वहीं महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने स्थानीय आदिवासी समूहों द्वारा फूलों के संग्रह और भंडारण को वैध बनाने के लिए अपने पुराने कानूनों को बदल दिया.

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