बिरसा मुंडा का जन्म
15 नवंबर 1875 में झारखंड के खूंटी ज़िले में बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जन्म हुआ. बिरसा मुंडा को मिलाकर उनके परिवार में सात सदस्य थे.
बिरसा मुंडा (Story of Birsa Munda) के पिता सुगना मुंडा जैसे-तैसे मजदूरी कर अपना गुज़ारा कर रहे थे. बिरसा और उसके भाई के पैदा होने के बाद बिरसा के पिता सुगना को घर संभालने में दिक्कत होने लगी.
क्योंकि उनके पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे सात लोगों का खाना-पीना कर सके.
इसलिए बिरसा के माता-पिता ने यह तय किया कि वे बिरसा को उनके नाना- नानी के घर पालन-पोषण के लिए भेजेंगे.
मौसा और मामा ने की देखभाल
उनके नाना-नानी के घर में बिरसा की देखभाल उनकी मौसी किया करती थी.
लेकिन कुछ समय बाद उनकी मौसी की शादी हो गई और वे बिरसा को भी अपने साथ ससुराल ले आई.
बिरसा अपनी मौसा-मौसी के साथ खंटगा गाँव में रहने लगे. बचपन से ही बिरसा अच्छे खिलाड़ी थे. उन्हें बासुरी बजाने का भी खूब शौक था.
वे अक्सर गाँव से दूर अपने दोस्तों के साथ जंगल में भेड़ बकरियों को चराने ले जाते थे. लेकिन भेड़ बकरियों को छोड़ वे दोस्तों के साथ खेलते रहते थे. इसके अलावा कभी-कभी पेड़ की छाँव में बैठ बांसुरी बजा लिया करते.
बिरसा की जिंदगी का नया पड़ाव
एक दिन जब वे अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे, तब उनकी बकरी को कोई उठाकर ले गया.
बिरसा के मौसा काफी कड़क मिज़ाज के थे. उन्हें जब इसके बारे में पता चला, तो उन्होंने बिरसा की खूब पिटाई की.
बिरसा से यह सहन ना हुआ और वे अपने पिता के घर लौट आए. बिरसा के पिता उसे देख फूले ना समाए. एक गरीब पिता ज्यादा देर खुश ना रहे सका. उनके पास इतने पैसे नहीं थे, कि वे बिरसा का पालन-पोषण सही तरीके से कर पाते.
इसलिए बिरसा के पिता ने उन्हें अयुबहातु भेज दिया, जहां उनके मामा का घर था.
शिक्षा की शुरूआत
बिरसा के मामा ने उन्हें पढ़ने के लिए सलगा के एक स्कूल में भर्ती किया.
स्कूल में पढ़ाने वाला मास्टर मुंडा समुदाय (Munda Tribe) का होकर भी ईसाई धर्म से प्रभावित था. उसने बिरसा को ईसाई धर्म की शिक्षा दी.
जिसके बाद बिरसा ने बुर्जू के प्राइमरी स्कूल और चाईबासा के अपर प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई की. ये दोनों ही स्कूल ईसाई धर्म के पादरी लोगों के थे.
स्कूल का एक अनोखा किस्सा
एक बार की बात है. बिरसा की कक्षा में एक अग्रेंज पादरी पढ़ाने आया था. उन्होंने बिरसा से कहा कि अगर मुंडा समुदाय के सभी लोग ईसाई बन जाए और अपनी पूजनीय ज़मीन अंग्रेजों का सौंप दे, तो उन सभी को स्वर्ग की प्राप्ती होगी.
जिसके बाद बिरसा सोच में पढ़ गए. आदिवासी अपनी ज़मीन को जान से भी ज्यादा चाहते है. बिरसा के मन में अक्सर ये सवाल आता, क्या स्वर्ग प्राप्त करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है.
पादरी कई बार आदिवासियों के रीति रिवाज़, जादू टोना और पूजा-पाठ के बारे में बुराई करते. वे बताते कि कैसे आदिवासी बीमार पढ़ने पर उसे भूत-प्रेत का साया मानते है.
जिसे सुन बिरसा यही सोचते रहते कि क्या आदिवासी समाज में हो रही बुराई को खत्म करने का कोई मार्ग नहीं.
बिरसा मुंडा की जिंदगी का अहम पड़ाव
झारखंड (Tribes of Jharkhand) में आदिवासी राज कायम रखने के लिए एक राजनीतिक आंदोलन किया. इस आंदोलन का नाम सरदारी था.
सरदारी नाम इसलिए रखा गया क्योंकि जो लोग इस आंदोलन में शामिल थे, वे मुंडा समुदाय के मुखिया( मानकी) थे.
1400 आंदोलनकारियों ने छोटानागपुर के कमिश्नर को पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने यह मांग रखी कि महाजन और ठेकेदारों को हटाकर, उनके इलाके में आदिवासी राज कयाम हो. उन्होंने यह भी वादा किया कि आदिवासी राज कयाम होने के बाद भी वे अंग्रेज़ों को कर देते रहेंगे.
लेकिन अंग्रेज़ों को आदिवासी आंदोलनकारियों का यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया.
समय के साथ यह आंदोलन तेज होता गया. आदिवासियों ने अंग्रेंजों के गिरजाघरों से अपना नाता तोड़ दिया और खुद का पूजा स्थल बनाया.
इसके अलावा उन्होंने खुद का एक पादरी भी चुना. जिसके बाद उन्होंने नागबंसी राजा को खत्म कर, दोसिया में खुद का एक ऑफिस खोला. इस ऑफिस से वे कई हुकुम निकालते थे.
आदिवासियों के इस आंदोलन के दौरान कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया.
जल्दी ही आदिवासियों को अपने इस आंदोलन को ज़ारी रखने के लिए नए नेता की आवश्यकता थी. यह सारी खबर चाईबासा में स्कूल में पढ़ने वाले बिरसा को मिलती रहती थी.
क्योंकि बिरसा को पढ़ाने वाले पादरी इस आंदोलन के सख्त खिलाफ थे.
इस स्थिति को देखते हुए बिरसा खुद को रोक नहीं पाए. उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और ईसाई धर्म भी त्याग दिया.
स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा खूंटी लौट आए.
नए सफर की शुरूआत
बिरसा अब 20 वर्षीय हो चुके थे. अब वे और अपने पिता की कमाई के सहारे नहीं खा सकते थे. बिरसा कमाई के लिए केन्दार गाँव चले गए.
यहां उन्होंने आनंद पांड़ नामक एक व्यक्ति के घर पर नौकर का काम किया. बिरसा के गुरू आनंद काफी आस्तिक थे.
बिरसा दिनभर खेती का काम करते और शाम को अपने मालिक से महाभारत और रामायण की कथा सुनते थे.
वे भी खुद को राम, अर्जुन और भीम जैसा वीर बनाना चाहते थे.
आनंद पांड बिरसा के सिर्फ मालिक नहीं थे, बल्कि वे उसके गुरू भी थे. आनंद ने उसे बीमारी का इलाज़ करने के लिए दवाई बनाना सिखाया.
एक दिन आनंद बिरसा को अपने साथ जमींदार जगमोहन सिंह के घर ले गया. जगमोहन किसानों पर बहुत जुल्म करता और उनका शोषण करता.
इन सब को देख बिरसा के मन में जमीनदारों को लेकर गुस्सा भर गया. वे अपने लोगों की अंग्रेंजी हुकुमत और जमीनदारों से रक्षा करना चाहते थे.
जिसके बाद बिरसा अपने गाँव लौट आए. यहां वे जगह-जगह घूमते और लोगों से उनकी समस्या पूछते थे. बिरसा लोगों की समस्याओं को विवेक के साथ सुलझाते भी थे.
अंग्रेजों ने गाँव वालों के इलाज़ के लिए अस्पताल नहीं खोले थे. अस्पताल की अनुउपस्थिति देख बिरसा ने यह तय किया कि वे जगह-जगह जाकर लोगों का इलाज़ करेंगे.
वे पेड़ के नीचे बैठकर लोगों की कई बीमारियों के लिए दवा बनाते. उन्हें देख आस-पास कई युवा इकट्ठा हो जाते. वे युवाओं के अंदर अपनी बातों से क्रांतिकारी भाव भी पैदा करते.
उन्हें अंग्रेजी हुकुमत और महाजनों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करते थे.
एक बार गाँव में बड़ी महामारी फैल गई. इस महामारी से लगातर लोगों की मौत होने लगी. उस समय बिरसा सुबह-शाम बाहर ही रहते और लोगों की मदद करते थे.
बिरसा की दवा और इलाज़ से कई आदिवासी महामारी से बच गए. जिसके बाद लोग बिरसा को जानने लगे.
बिरसा बने भगवान
बिरसा ने एक दिन सपने में सिंगबोंगा का दर्शन किया. सिंगबोंगा ने बिरसा से सपने में कहा कि मेरा सब कुछ तुम्हारा है.
सिंगबोंगा ने आगे कहा कि वे धरती पर अपने लोगों की शोषण, गुलामी और अज्ञान से रक्षा करें.
बिरसा ने अपने दोस्त को सपना बताते हुए कहा कि सिंगबोंगा ने मुझे हर एक चीज दी है. मै लोगों की बीमारी ठीक करूँगा, इसलिए अब लोगों को बीमारी ठीक करने के लिए भूत-प्रेत को पूजने की जरूरत नहीं है.
उन्होंने आगे कहा कि अब अंग्रेजों का आदेश मानने की जरूरत नहीं है और ना ही हम उन्हें कोई टैक्स देंगे.
जिसके बाद बिरसा के दोस्त ने पूरे गाँव में उनकी बात फैला दी.
गाँव के लोगों ने उन्हें भग्वान मान लिया, क्योंकि बिरसा की बातों में लोगों को सच्चाई दिखती और वे लोगों की बीमारियों का इलाज़ भी किया करते थे.
बिरसा का पहला विद्रोह और गिरफ्तारी
बिरसा मुंडा सहित कई आदिवासी चक्रधरपुर पुलिस थाना पहुंचे. वहां उन्होंने इन्सपेक्टर के हाथ में एक मांग पत्र थामाया. उन्होंने कहा कि झारखंड के जंगलों में आदिवासियों का सदियों से अधिकार रहा है.
उनसे जंगलों के नाम पर टैक्स लेना नाजायज और जुल्म है. इसलिए इस टैक्स को बंद किया जाए.
चक्रधरपुर पुलिस थाने की यह घटना अंग्रेजी प्रशासन तक पहुंची. यह पूरी घटना के बारे में सुन अंग्रेज आश्चर्य चकित हो गए.
जिसके बाद बिरसा ने राजनीति में कदम रखा. बिरसा ने राजनीति करना सरदार आंदोलन से सिखा था. लेकिन सरदार आंदोलन में एक कमी थी, जिसे बिरसा ने भांप लिया था.
सरदार आंदोलन में सभी सरदार ज़मीनदारों और महाज़नों को छोटानागपुर से निकलना चाहते थे. लेकिन आदिवासी राज कायम होने के बाद भी अंग्रेजों को कर देने के लिए तैयार थे.
वहीं बिरसा का मानना था कि ज़मीनदारों और महाज़नों को आसानी से निकाला जा सकता है. लेकिन अंग्रेजों की हुकुमत खत्म करना आसान नहीं है. अंग्रेजों की रक्षा के लिए कोर्ट, पुलिस मौजूद है.
बिरसा का मानना था कि अंग्रेजों को सिर्फ छोटानागपुर से नहीं बल्कि पूरे देश से निकाल देना चाहिए.
विरोध की शुरूआत
बिरसा ने यह भी तय किया कि वे शुरूआत में अंग्रेजों का विरोध नहीं करेंगे. क्योंकि अंग्रेज यह भांप लेगे कि बिरसा उनके खिलाफ है और उन्हें गिरफ्तार कर लेंगे.
उन्होंने यह तय किया कि वे आदिवासियों को धर्म का उपदेश देंगे. इन धर्म उपदेश के दौरान वे लोगों को एकता और अंधविश्वास की क्रूर प्राथाओं के विरुद्ध जागरूक करते थे.
लोग उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर के गाँव से आया करते. विकलांग लोग भी जैसे-तैसे उनके पास पहुंच जाते.
जब बिरसा के आसपास भीड़ बढ़ने लगी तो उन्होंने लोगों को मुंडा भाषा में राजनीति के बारे में जागरूक करना शुरू किया.
उन्होंने आदिवासियों को समझाया कि आदिवासियों का उनकी ज़मीन पर सदियों से अधिकार है. इसलिए उन्हें अंग्रेजों को टैक्स देने की जरूरत नहीं. इसके अलावा वे उन्हें अंग्रेजी कानून और हुकुम ना मानने की भी सलाह देते.
लोगों की भीड़ के बीच अंग्रेजों के कुछ भारतीय चेले सादे कपड़ो में मौजूद थे. वे बिरसा की सारी बातें एक रिपोर्ट के ज़रिए अंग्रेजों तक पहुंचा रहे थे.
जिसके बाद बिरसा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेजों ने हेड कान्स्टेबल भेजा, लेकिन लोगों ने उस हेड कांस्टेबल को खूब मारा. इसी बहाने से अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ्तार कर लिया.
जिसके बाद रांची में बिरसा और उसके साथियों के खिलाफ झूठा मुकदमा चलाया गया. यह मुकदमा उन्हें जेल में रखने का बहाना था. कोर्ट में सुनवाई के दौरान बिरसा को अंग्रजी जज ने अढ़ाई साल की सजा सुनाई.
जिसके बाद बिरसा कुछ समय तक जेल में ही रहें. महारानी विक्टोरिया के पचासवें जन्मदिन पर जेल से कादियों को छोड़ने का हुकुम आया.
जिसके बाद बिरसा मुंडा अपनी सज़ा सीमा से पहले ही जेल से छूट गए. जेल से निकलने के बाद उन्होंने आदिवासियों को चारो-ओर फैलने वाली बीमारी चेचक से बचाया.
यह समय सन 1895-96 का रहा था.
अंधविश्वास के खिलाफ जनता जागरूकता
छोटानागपुर के आदिवासियों में भूत-प्रेत को मानने और झाड़ फूँक करने का काफी चलन था. बिरसा ने इन सारे अंधविश्वासों का डटकर विरोध किया.
अगर किसी आदिवासी को बीमारी हो जाती थी, तो वे समझते की इसे किसी भूत-प्रेत या चुरिन ने पकड़ लिया है.
इसलिए बीमार आदिवासी के परिवार वाले भूत-प्रेत का प्रसन्न करने के लिए कई मंत्र पढ़ते, झाड़-फूँक करते थे.
बिरसा ने इन सारे अंधविश्वासों का डटकर विरोध किया था और लोगों का उपयुक्त दवा से इलाज़ किया.
बिरसा आंदोलन का दूसरा तूफान
1898 का वह साल था जब अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी बगावत शुरू होने वाली थी. 1898 फरवरी के महीने में डोम्बारी पहाड़ी में एक सभा हुई.
इस सभा के दौरान बिरसा ने ज़मीन पर लाल और सफेद रंग से बना झंडा गाड़ा और सभा में मौजूद सभी आदिवासियों से कहा कि इस झंडे में मौजूद सफेद रंग को अंग्रेजों के खून से रंगना है.
उन्होंने आदिवासी को सचेत करते हुए कहा कि अंग्रेजों के विरोध में इस लड़ाई में ज़मीनदार अंग्रेजों का साथ देंगे. इसलिए वह ज़मीनदारों से लड़ने के लिए भी तैयार रहे.
इसके अलावा उन्होंने युवाओं के मन में भी क्रांतिकारी भावना जागाई. बिरसा ने युवाओं को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी.
इसके साथ ही उन्होंने अदालत में मुकदमा चलने और जेल जाने जैसे परिस्थितियों से ना डरने की ट्रेनिंग भी दी.
1899 – 24 दिसंबर 1899 में सभी आंदोलनकारी आदिवासियों ने खूंटी, तमाड़, बसिया और राँची सभी जगहों पर मौजूद अंग्रेजी कोठियों पर तीर-कमान चलाए गए.
जाहिर है कि अंग्रेजी सरकार आदिवासियों के इस पहल से बेखबर थी.
1900 – 5 जनवरी 1900 को पूरे मुंडा समाज में विद्रोह फैल उठा. 6 जनवरी को आदिवासियों ने अंग्रेजी राज के दो सिपाहियों को मार डाला.
7 जनवरी को 300 मुंडा आदिवासियों ने तीर-धनुष से पुलिस थाने पर हमला कर दिया. इस हमले के दौरान एक सिपाही को मारा डाला गया. इसके अलावा पुलिस थाने और उसके आस-पास मौजूद महज़नों के घर में आग लगा दी.
9 जनवरी 1900 का दिन आदिवासियों के इतिहास में एक अमर का दिन है. इस दिन विद्रोह के दौरान जो कुछ भी हुआ से उसे पूरे देश में खलबली मच गई.
इस दिन डोम्बारी पहाड़ी पर आदिवासियों ने दुनिया की सबसे बड़ी खूंखार ताकत ब्रिटिश राज का 9 घंटे तक मुकाबला किया था.
इस दिन कई आदिवासी अपने राष्ट्र प्रेम और अपनी जाति के प्रेम के लिए शहीद हो गए.
यह खबर अखबरों में सब तरफ छप गई और सब जगह बिरसा आंदोलन की चर्चा होने लगी.
उस समय भारत के महान नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने बंगाल विधानसभा पर सरकार से बिरसा मुंडा के आंदोलन पर सवाल पूछा, लेकिन अंग्रेजों के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं था.
अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के आंदोलन को खत्म करने के लिए चारों ओर से फौज इकट्ठा की थी.
बिरसा मुंडा की मौत
9 जनवरी के इस विद्रोह में बिरसा का साथी गया मुंडा तो शहीद हो गया, लेकिन बिरसा को अंग्रेजी सिपाही नहीं पकड़ सके.
दो लड़कियां हाथ में बंदूक पकड़कर बिरसा की दिन-रात रक्षा करती. वे जंगलों में घूमते और रात को पेड़ के ऊपर चढ़कर सो जाते थे.
लेकिन अंग्रेजों के सिपाही उन्हें पकड़ने में कामयाब नहीं हो पाए.
जो काम इतना विशाल ब्रिटिश राज नहीं कर सका. वह देश के गद्दार और विश्वासघाती ने कर दिया. बिरसा के ही एक आदमी ने 500 रूपये के लालच में उन्हें पुलिस के हाथ पकड़वा दिया.
जिसके बाद बिरसा को रांची के जेल में बंद रखा गया. बिरसा का शरीर बेहद कमज़ोर हो गया था. वे महीनों तक भूखे-प्यासे जंगल में भटकते रहते थे.
9 जून 1900 को रांची के जेल में हैजा के कारण उनकी मृत्यु हो गई. वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि उन्हें जहर दिया गया था.
उनकी मौत के बाद अंग्रेजों ने उन्हें रांची हजारीबाग रोड पर डिस्टिलरी के पीछे दफना दिया.