HomeAdivasi Dailyमध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने आदिवासी युवक की फांसी की सज़ा घटाई

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने आदिवासी युवक की फांसी की सज़ा घटाई

हाईकोर्ट ने सज़ा कम करते समय युवक की जिंदगी की परिस्थितियों पर गौर किया और कहा कि ये कृत्य क्रूर है लेकिन यह अत्यधिक क्रूरता वाली श्रेणी में नहीं आता जिसके लिए फांसी अनिवार्य मानी जाती है.

मध्य प्रदेश के हाई कोर्ट ने एक बहुत ही गंभीर अपराध में दोषी एक 20 साल के आदिवासी युवक को दी गई फांसी की सज़ा को बदल दिया है. अब उसे 25 साल की कठोर कैद और 10,000 रुपये का जुर्माना भरना होगा.

आरोपी ने चार साल की बच्ची के साथ बलात्कार और उसकी हत्या का प्रयास किया था. आरोप है कि युवक ने एक रात, एक परिवार की झोपड़ी में सोने की जगह मांगने का बहाना बनाया था. बाद में उसने उस घर से चार साल तीन महीने की एक छोटी बच्ची को उठा लिया था.

उसने बच्ची के साथ बलात्कार किया और फिर उसका गला घोंट दिया. आरोप है कि उसे लगा था कि बच्ची मर गई है और उसे एक आम के बगीचे में फेंककर चला गया ताकि उसे कोई न ढूंढ़ सके. लेकिन बच्ची मरी नहीं थी.

निचली अदालत का फैसला

जब यह मामला ट्रायल कोर्ट में पहुंचा, तो अदालत ने युवक को दोषी पाया.

अदालत ने उसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण कानून (पॉक्सो एक्ट) के तहत सज़ा सुनाई.

अपराध की गंभीरता को देखते हुए निचली अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी.

हाईकोर्ट ने क्या कहा?

युवक ने हाईकोर्ट में अपनी फांसी की सजा के खिलाफ अपील की थी. इसके बाद मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस देवनारायण मिश्रा की दो जजों वाली बेंच ने इस मामले पर विचार किया.

अदालत ने माना कि यह अपराध बहुत क्रूर और डरावना था. एक नन्ही बच्ची के साथ ऐसा करना बिल्कुल गलत और निंदनीय है.

अदालत ने कहा कि भारत में फांसी की सज़ा सिर्फ दुर्लभतम में दुर्लभ मामलों में दी जाती है, जहां अपराध की क्रूरता अकल्पनीय हो.

हाईकोर्ट ने माना कि हालांकि यह कृत्य बेहद क्रूर था, लेकिन यह अत्यधिक क्रूरता वाली श्रेणी में नहीं आता जिसके लिए फांसी अनिवार्य मानी जाती है.

दोषी युवक की पृष्ठभूमि को भी देखा गया

हाईकोर्ट ने सज़ा कम करते समय युवक की जिंदगी की परिस्थितियों पर भी गौर किया. कोर्ट के अनुसार वह अशिक्षित, आदिवासी युवक था और उसके माता-पिता ने उसकी ठीक से देखभाल नहीं की, न ही उसे पढ़ाने-लिखाने की कोशिश की.

कम उम्र में ही उसने घर दिया और सड़क किनारे एक ढाबे पर काम करने लगा. इससे पहले उसका कोई अपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं रहा और जेल में भी उसका व्यवहार ठीक था.

अदालत ने कहा कि वह जिस माहौल में पला-बढ़ा, उसमें उसे सही तरीके से बड़े होने के लिए ज़रूरी अवसर और मार्गदर्शन नहीं मिला.

हाईकोर्ट ने निचली अदालत के उस फैसले को बरकरार रखा जिसमें युवक को आईपीसी की धाराओं (जैसे बच्ची का अपहरण, घर में घुसपैठ, हत्या का प्रयास, सबूत छिपाना) के तहत दोषी ठहराया गया था. लेकिन पॉक्सो एक्ट के तहत दी गई फांसी की सज़ा को बदल दिया.

पॉक्सो एक्ट के तहत अब युवक को 25 साल की कठोर कैद की सजा मिलेगी. साथ ही 10,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया है.

अगर वह जुर्माना नहीं भरता है, तो उसे एक साल की अतिरिक्त कठोर कैद भुगतनी होगी.

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