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छत्तीसगढ़: FRA और ग्राम सभाओं को कमजोर किए जाने का आदिवासी कर विरोध रहे हैं

वन अधिकार अधिनियम (2006) आदिवासियों और वन पर निर्भर समुदायों को उन जमीनों पर अधिकार देता है जिन्हें वे पीढ़ियों से बचाते आ रहे हैं. इससे ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों का प्रबंधन और संरक्षण करने और नुकसानदेह गतिविधियों को रोकने का अधिकार मिलता है.

छत्तीसगढ़ में वन विभाग द्वारा सामुदायिक वन भूमि पर नियंत्रण करने के फैसले के विरोध में हजारों लोगों के एकजुट होने के साथ ही पूरे राज्य में विरोध की एक व्यापक लहर चल पड़ी है. 1 और 2 जुलाई को लोगों ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया.

उनका कहना है कि यह आदेश वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA 2006) और ग्राम सभाओं के संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन करता है.

स्थानीय ग्राम सभाओं, आदिवासी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समर्थित प्रदर्शन नगरी (धमतरी), नारायणपुर, गौरेला-पेंड्रा-मरवाही, सरगुजा के अंबिकापुर, कांकेर, गरियाबंद, महासमुंद के पिथौरा, बालोद और बस्तर सहित कई जिलों में हुए.

वन विभाग के 15 मई, 2025 के पत्र की निंदा करते हुए छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन (Chhattisgarh Bachao Andolan) के संयोजक आलोक शुक्ला, जो वन और आदिवासी अधिकारों पर प्रमुखता से काम करते हैं, ने कहा, “आदेश अवैध रूप से विभाग को एफआरए के तहत नोडल प्राधिकरण घोषित करता है, जो आदिवासी विकास विभाग के अधिकार क्षेत्र का सीधा उल्लंघन है. इसके अलावा वैज्ञानिक वन प्रबंधन को बढ़ावा देने वाले राष्ट्रीय कार्य योजना संहिता 2023 की आड़ में, विभाग ने ग्राम सभाओं और अन्य विभागों द्वारा समर्थित सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन को कम करने की धमकी दी है.”

उन्होंने प्रधान मुख्य वन संरक्षक वी श्रीनिवास राव के एक पत्र का जिक्र किया, जिसमें 2020 के एक रद्द किए गए आदेश का उल्लेख था. उस आदेश में वन विभाग को गलती से सामुदायिक वन संसाधन (Community forest resource) अधिकारों को लागू करने वाली मुख्य संस्था बना दिया गया था, जिसका आदिवासी अधिकार संगठनों ने ज़ोरदार विरोध किया था.

छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने कहा कि वह सीएफआर भूमि के प्रबंधन का फैसला तभी करेगा जब उसे यह भूमि मिल जाएगी. तब तक पर्यावरण मंत्रालय द्वारा स्वीकृत वन कार्य योजनाओं का ही पालन करना होगा, चाहे वो सामुदायिक अधिकार वाले इलाके ही क्यों न हों.

यह पत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि मॉडल योजना मिलने तक दूसरे विभाग, गैर-सरकारी संगठन या निजी संस्थाएँ सीएफआर क्षेत्रों में काम नहीं कर सकतीं.

हालांकि, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के 2015 के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, ग्राम सभाएँ सीएफआर भूमि के लिए अपनी खुद की आसान संरक्षण और प्रबंधन योजनाएं बना सकती हैं.

वन अधिकार अधिनियम (2006) आदिवासियों और वन पर निर्भर समुदायों को उन जमीनों पर अधिकार देता है जिन्हें वे पीढ़ियों से बचाते आ रहे हैं. इससे ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों का प्रबंधन और संरक्षण करने और नुकसानदेह गतिविधियों को रोकने का अधिकार मिलता है.

केंद्र में यह काम जनजातीय कार्य मंत्रालय देखता है, जबकि राज्यों में आदिवासी कल्याण विभाग. वन विभाग सिर्फ़ मदद करता है – दावों की जांच, नक़्शे देना और जमीन की सीमा तय करने में लेकिन फ़ैसला नहीं लेता.

छत्तीसगढ़ में 3.82 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर 4.78 लाख व्यक्तिगत भू-अधिकार दिए गए हैं और 4,349 मामलों में सीएफआर अधिकार 20,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र को कवर करते हैं.

वन और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने बताया कि पिछली राज्य सरकार को 2020 के आदेश पर विरोध का सामना करना पड़ा था और उसे इसमें संशोधन करना पड़ा था.

उन्होंने स्पष्ट किया कि वन विभाग वन अधिकार अधिनियम को लागू करने वाली मुख्य संस्था नहीं है और इसके विपरीत कोई भी राज्य का आदेश गैरकानूनी है और वन शासन को लोकतांत्रिक बनाने और समुदायों को सशक्त बनाने के अधिनियम के उद्देश्य को कमजोर करता है.

हालांकि, वन विभाग ने बाद में एक और पत्र जारी कर यह स्पष्ट किया कि वे संयोजक की भूमिका में रहेंगे, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा वन प्रबंधन योजना आने तक आदिवासियों को FRA के तहत दी गई वन भूमि का प्रबंधन वन विभाग के अलावा कोई और नहीं करेगा.

प्रदर्शनकारियों के मुताबिक, इस कदम से 20 हज़ार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन भूमि पर समुदाय का नियंत्रण गंभीर ख़तरे में है. इसके विरोध में आदिवासी इलाकों और जिलों में हजारों लोगों ने स्वतः ही रैलियां कीं और मुख्यमंत्री विष्णु देव साई को संबोधित ज्ञापन जिला अधिकारियों को सौंपे.

ज्ञापनों में इस बात पर जोर दिया गया कि विभाग का आदेश न केवल वन अधिकार अधिनियम के उद बल्कि अनुसूचित क्षेत्रों को दिए गए संवैधानिक प्रावधानों जैसे कि पेसा अधिनियम, पांचवीं अनुसूची और ग्राम सभा के निर्णयों के सर्वोच्च अधिकार का भी उल्लंघन करता है.

कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी कि अगर वन विभाग अपनी अधिकारिता का दुरुपयोग करता रहा और ग्राम सभाओं के अधिकारों का हनन करता रहा, तो लोकतांत्रिक वन प्रबंधन व्यवस्था चरमरा जाएगी.

प्रदर्शनकारियों ने चेतावनी दी कि अगर सरकार तुरंत आदेश को वापस नहीं लेती है और आधिकारिक तौर पर आदिवासी विकास विभाग को एफआरए नोडल एजेंसी के रूप में नामित नहीं करती है, तो वे जन जागरूकता अभियान, शांतिपूर्ण सत्याग्रह और विधानसभा धरनों के माध्यम से अपने अभियान को तेज करेंगे.

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