HomeAdivasi Dailyछह घंटे की दूरी, लेकिन सदियों का फ़र्क – दो आदिवासी भाइयों...

छह घंटे की दूरी, लेकिन सदियों का फ़र्क – दो आदिवासी भाइयों की कहानी

दोनों के बीच 30 किलोमीटर ही नहीं बल्कि सदियों का फ़ासला नज़र आता है. जहां लाहेरी में रहने वाले तिम्मा के पास एक स्मार्टफ़ोन है, पांडरू के पास एक साधारण फ़ोन भी नहीं है.

पिछले हफ़्ते जब उनकी 12 साल की बेटी मुरी को तेज़ बुखार हुआ, तो छत्तीसगढ़ के मेतावाड़ा गांव के आदिवासी पांडरू पुंगती को उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. लेकिन यह आसान काम नहीं था, क्योंकि सबसे पास का अस्पाताल महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में 30 किमी दूर लाहेरी गांव का एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) है. और वहां पहुंचने का एक ही तरीक़ा है – पैदल चलना, क्योंकि दोनों गांवों के बीच पक्की सड़क नहीं है.

पांडरू ने बांस के डंडों से एक स्ट्रेचर बनाया, और उनका परिवार – जिसमें मुरी के अलावा पांडरू की पत्नी और पांच महीने की एक दूसरी बेटी भी है – छह घंटे की इस लंबी, थका देने वाली यात्रा पर निकल पड़ा. लाहेरी में पांडरू के रिश्तेदार दिनेश तिम्मा रहते हैं. उन्हों टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “उन लोगों ने सुबह 10 बजे चलना शुरू किया, और दोपहर 4 बजे यहां पहुंचे.”

मेटावाड़ा और आसपास के गांवों के लोगों को इलाज के लिए महाराष्ट्र के इस पीएचसी में ही जाना पड़ता है, क्योंकि उनके पास और कोई अस्पताल नहीं है.

पांडरू का गांव नारायणपुर ज़िले में अबूझमढ़ में है, जिसे माओवादियों का गढ़ माना जाता है. वह सिर्फ़ मड़िया, जो एक स्थानीय आदिवासी भाषा है, बोल सकता है. पांडरू तिम्मा, जो हिंदी जानते हैं, के ज़रिये ही अपनी बात कह पाते हैं.

दोनों के बीच 30 किलोमीटर ही नहीं बल्कि सदियों का फ़ासला नज़र आता है. जहां लाहेरी में रहने वाले तिम्मा के पास एक स्मार्टफ़ोन है, पांडरू के पास एक साधारण फ़ोन भी नहीं है.

नारायणपुर के ज़िला कलेक्टर धर्मेश साहू ने माना कि माओवाद के चलते यह इलाक़ा काफ़ी पिछड़ा है. उन्होंने कहा, “महाराष्ट्र में गढ़चिरौली और इस इलाक़े को जोड़ने के लिए 30 किमी के राजमार्ग की योजना बहुत पहले बनाई गई थी, लेकिन काम कभी पूरा नहीं हो सका. यहां तक ​​​​कि इसके लिए सर्वेक्षण भी अभी तक नहीं किया गया है.”

साहू कहते हैं कि माओवादियों की मौजूदगी सरकारी तंत्र को दूर रखती है, और इस वजह से सालों से अस्पताल जैसी कोई भी सुविधा यहां नहीं पहुंच पाई है.

यहां के गांवों के लिए छत्तीसगढ़ का सबसे क़रीब का अस्पताल 46 किमी दूर है. इसलिए यह लोग घने जंगलों से गुज़रकर गढ़चिरौली आते हैं.

मेतावाड़ा गांव में पांच या छह घर हैं. यह परिवार आजीविका के लिए अपनी ज़मीन पर खेती तो करते हैं, लेकिन उनके पास इसके लिए कोई साधन नहीं हैं. वो हाथ से खेत खोदते हैं और बीज बोते हैं.

पांडरू के उत्तरों का अनुवाद करते हुए तिम्मा बताते हैं कि गांव में बिजली की आपूर्ति नहीं है, न ही कोई स्कूल है. घरों में रोशनी के लिए सोलर लैंप हैं.

हां, पांडरू के पास आधार कार्ड है और वह जानता है कि राज्य का मुख्यमंत्री कौन है.

मुरी का इलाज पूरा होने के बाद, परिवार जल्द गांव लौटना चाहता है. पांडरू कहते हैं कि मुरी अब स्वस्थ है, इसलिए वो भी पैदल चल सकती है.

मुरी कभी स्कूल नहीं गई. मैतावाड़ा और दूसरे गांवों के समूह के लिए एक आश्रम शाला है, लेकिन सरकारी स्कूल नहीं है.

छत्तीसगढ़ के इन लोगों के अलावा गढ़चिरौली के 42 गांवों से 10,200 से ज़्यादा की आबादी के लिए लाहेरी का ही एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है. साल के ज़्यादातर महीने यह पीएचसी एक छोटी सी नदी की वजह से कटा रहता है.

लहेरी पीएचसी के डॉ महेंद्र जामदाड़े कहते हैं, “बारिश के दौरान, पीएचसी तक सिर्फ़ नावों द्वारा ही पहुँचा जा सकता है. सर्दियों में एक अस्थायी पुल बना दिया जाता है जिस पर वाहन नहीं चल सकते. सिर्फ़ गर्मियों में ही हम बाइक से इसे पार कर सकते हैं.”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments