HomeAdivasi Dailyमुख्यमंत्री के हुक्म से आदिवासी ज़मीन हड़पी जा सकती है

मुख्यमंत्री के हुक्म से आदिवासी ज़मीन हड़पी जा सकती है

मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक नोट के अनुसार आदिवासी इलाकों में गैर आदिवासियों को सिर्फ़ 1.5 सेंट जमीन का कब्जा दिया जा रहा है. इसका मतलब ज़मीन का हस्तांतरण नहीं है. लेकिन विरोध कर रहे संगठन कहते हैं कि पहले ही आदिवासी इलाकों में गैर आदिवासियों का ज़मीन पर अतिक्रमण चल रहा है. इस नोट के बाद उसमें और तेज़ी आ जाएगी.

मानवाधिकार मंच (Human Rights Forum – HRF) ने मांग की है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय (CMO) द्वारा 14 जून को जारी किए गए नोट को तुरंत वापस लिया जाए. इस संगठन को आशंका है कि इस नोट का इस्तेमाल कर आदिवासियों की ज़मीन हड़पी जा सकती है.

नोट में कहा गया है कि ‘नवरत्नालु-पेडलंदरिकी इलू’ (गरीबों के लिए आवास) योजना के तहत आवास के लिए गैर-आदिवासियों को 1.5 सेंट की सीमा तक की ज़मीन के कब्जा प्रमाण पत्र जारी किए जा सकते हैं

नोट में कहा गया है कि कब्जा प्रमाण पत्र देना एपी अनुसूचित क्षेत्र भूमि हस्तांतरण विनियमन अधिनियम, 1959/1970 (AP Scheduled Areas Land Transfer Regulation Act, 1959/1970) का उल्लंघन नहीं है. इसका कारण बताते हुए कहा गया है कि ज़मीन का कोई हस्तांतरण नहीं हो रहा है.

HRF के आंध्र प्रदेश महासचिव, के सुधा और आंध्र और तेलंगाना के समन्वय समिति के सदस्य, वीएस कृष्णा का कहना है कि नोट में किया गया यह दावा गलत है. उनका कहना है कि जब से 1970 के नियम 1 (Land Transfer Regulation – LTR) को तहत इस मामले में नियम स्पष्ट हैं.

इन नियमों में ना सिर्फ़ ग़ैर-आदिवासियों को आदिवासी भूमि खरीदने से प्रतिबंधित किया गया है, बल्कि वो अनुसूचित इलाक़े में ग़ैर-आदिवासी से भी जमीन नहीं खरीद सकते हैं.

कानून के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में सभी भूमि मूल रूप से अनुसूचित जनजातियों यानि आदिवासियों की थी. लेकिन एलटीआर को पूरी लगन से लागू करने को सुनिश्चित करने के लिए सरकारों ने बहुत कम काम किया है.

एचआरएफ़ का दावा है कि सरकारें ग़ैर-आदिवासियों से अनुसूचित क्षेत्रों की भूमि को बचाने में काफ़ी हद तक नाकाम रहे हैं. यह एलटीआर द्वारा राज्य का कर्तव्य स्पष्ट किए जाने के बावजूद हुआ है.

संगठन के लोगों का कहना है कि इस इलाके में दशकों से आदिवासी भूमि पर गैर-आदिवासियों का काफ़ी अतिक्रमण हुआ है. माना जाता है कि ज़्यादातर मामलों में अधिकारियों और गैर-आदिवासियों के बीच मिलीभगत से ही ऐसा संभव हो पाया है.

इस संगठन का कहना है कि पिछले कुछ सालों में गैर-आदिवासियों द्वारा एजेंसी इलाक़े में और ज़्यादा आदिवासी भूमि हड़पने के बढ़ते दबाव के बीच यह मुख्यमंत्री कार्यालय से यह नोट आया है.

एचआरएफ टीम का कहना है कि अगर सीएमओ नोट में दिए गए निर्देशों को लागू किया जाता है तो इससे हालात और बिगड़ेंगे. इससे पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के लिए एक ख़तरा पैदा होगा.

वैसे पहली नज़र में सीएमओ के नोट से यह आशंका तो बढ़ ही जाती है कि इससे गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासी भूमि में घुसपैठ को मान्यता मिलेगी, औऱ इसमें तेज़ी आ सकती है.

एचआरएफ़ ने कहा कि सीएमओ नोट आदिवासियों को दी जाने वाली वैधानिक सुरक्षा के खुलेआम दुरुपयोग के बराबर है. नोट खुले तौर पर एलटीआर की अवमानना है, जिसे पांचवीं अनुसूची में संवैधानिक प्रावधानों के साथ-साथ जुलाई 1997 के सुप्रीम कोर्ट के समता फैसले में भी निर्धारित किया गया है.

इसीलिए एचआरएफ ने मांग की है कि इस संदिग्ध और खतरनाक नोट को तुरंत रद्द कर दिया जाए.

LTR और उससे जुड़ा विवाद

राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के लिए आंध्र प्रदेश में 1970 का भूमि हस्तांतरण विनियमन अधिनियम 1 है. यह अधिनियम आदिवासी भूमि को संविधान द्वारा जनजातीय भूमि को दिए गए विशेष दर्जे को ध्यान में रखते हुए गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने से रोकता है. इस 1/70 अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है.

1980 के दशक में, एन टी रामाराव के नेतृत्व वाली सरकार ने इस कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी. तब केंद्र सरकार ने संशोधन को रोकने के लिए संविधान की पांचवीं अनुसूची का इस्तेमाल किया. यह पहला मौक़ा था जब केंद्र ने इस प्रावधान का इस्तेमाल किया हो.

2000 के दशक के मध्य में, विशाखापत्तनम जिले के चिंतापल्ले आदिवासी क्षेत्र में बॉक्साइट के खनन की अनुमति देने के लिए अधिनियम में संशोदन करने के राज्य सरकार के फ़ैसले को लेकर एक विवाद उठा.

दुबई की एक कंपनी के 4,500 करोड़ रुपये के निवेश के साथ विशाखापत्तनम के पास एक एल्यूमीनियम स्मेल्टर स्थापित करने की पेशकश के बाद राज्य सरकार ने कानून में संशोधन करने का फैसला किया था.

1/70 में संशोधन करने का यह फ़ैसला विपक्षी दलों और सिविल सोसायटी के दबाव के बाद वापस ले लिया गया. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से साफ़ हो गया कि कैसे एक राज्य की आदिवासी कल्याण मशीनरी को न सिर्फ़ आदिवासी हितों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मोड़ा जा सकता है, बल्कि उन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी कमजोर कर दिया जा सकता है जो उन हितों की रक्षा कर सकते हैं.

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