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मेहनत बराबर, लेकिन मज़दूरी कम, केरल की आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहा अन्याय

यह फ़र्क सिर्फ़ वायनाड में नहीं, बल्कि केरल के दूसरे हिस्सों में भी पिछले कई दशकों से जैसे एक प्रथा है. ख़ासतौर से खेत मज़दूरी के लिए पुरुषों और महिलाओं को दिए जाने वाली मज़दूरी में अंतर बहुत ज़्यादा हो सकता है. महिलाओं को अक्सर यह कहकर काम नहीं दिया जाता कि वो कमज़ोर हैं.

केरल के वायनाड ज़िले में मीलों तक फैले खेतों में सैकड़ों महिलाएं और पुरुष सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक कड़ी मेहनत करते हैं, और शाम को अपनी दैनिक मज़दूरी पाने के लिए कतार में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इस मज़दूरी में इनका हिस्सा बराबर नहीं है.

अडिया आदिवासी समुदाय की 45 साल की गीता ने द ल्यूज़ मिनट को बताया, “मेरे हिसाब से पुरुष और महिलाएं एक ही काम करते हैं. हम ज़्यादा काम करते हैं क्योंकि हम (महिलाएं) पुरुषों की तरह ब्रेक नहीं लेते हैं. हम खाना खाने के लिए भी सिर्फ़ 30 मिनट का ब्रेक लेते हैं. लेकिन दिन के अंत में, हमें 300 रुपये मिलते हैं, और उन्हें 500 रुपये.”

यह फ़र्क सिर्फ़ वायनाड में नहीं, बल्कि केरल के दूसरे हिस्सों में भी पिछले कई दशकों से जैसे एक प्रथा है. ख़ासतौर से खेत मज़दूरी के लिए पुरुषों और महिलाओं को दिए जाने वाली मज़दूरी में अंतर बहुत ज़्यादा हो सकता है. महिलाओं को अक्सर यह कहकर काम नहीं दिया जाता कि वो कमज़ोर हैं.

वायनाड में वेल्लारडा की कूवा कॉलोनी की 39 साल की लीला ने टीएनएम से कहा कि जहां वो रहती हैं, वहां के बागानों में उन्हें कभी काम नहीं मिलता. वो कहती हैं, “हमें बागान में काम के लिए कभी नहीं बुलाया जाता क्योंकि वहां दरांती और कुदाल से काम करना पड़ता है. उन्हें लगता है कि हम ऐसा नहीं कर पाएंगे. अगर हम कहते भी हैं, तो वो नहीं मानते. कभी-कभार हमें खरपतवार और झाड़ियों को हटाने के लिए एक दिन के काम के लिए बुलाया जाता है, और 300 रुपये मिलते हैं.”

खेतों के पास रहने वाली आदिवासी महिलाएं मुख्य रूप से मनरेगा के काम पर निर्भर करती हैं, जिसके उन्हें 280 रुपये मिलते हैं. मनरेगा के तहत पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान भुगतान किया जाता है.

कण्णूर ज़िले के कुड़ियानमला की 65 साल की कल्याणी का कहना है कि जब से उन्हें याद है, तब से यह फ़र्क है. वो कहती हैं, “पहले खेतों में काम के लिए महिलाओं को 100 रुपये और पुरुषों को 200 रुपये मिलते थे. हमें झाड़ियों को साफ़ करने के लिए ही बुलाया जाता था. समय के साथ, पैसा थोड़ा बढ़ गया लेकिन अंतर बना रहा. हमारे इलाक़े में अब पुरुषों को 700 से 1000 रुपये तक दिए जाते हैं, लेकिन हमें ज़्यादा से ज़्यादा 400 रुपये मिलते हैं.”

इसके पीछे की एक बड़ी वजह है पुरुषों और महिलाओं को दिए जाने वाले काम में फ़र्क. पुरुषों को भारी काम जिसमें शारीरिक मेहनत ज़्यादा लगती है, उसके लिए बुलाया जाता है, जबकि महिलाओं को आसान काम के लिए रखा जाता है.

एक किसान ने ज़मीन के मालिकों की सोच साझा करते हुए कहा, “वो कुछ भी कहें, महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले ज्यादा काम नहीं करतीं. पुरुष आसानी से खुदाई कर सकते हैं और औज़ारों का इस्तेमाल कर सकते हैं. तो हम महिलाओं को समान मज़दूरी कैसे दे सकते हैं.”

यह रवैया न सिर्फ़ महिलाओं को कुछ तरह के काम करने से रोकता है, बल्कि एक ऐसी स्थिति बना देता है कि उनकी आय बेहद कम हो जाती है. कासरगोड ज़िले की एक मज़दूर शारदा कहती हैं, “मुझे केले या नारियल के पेड़ लगाना पसंद है. लेकिन हमें ऐसा करने से मना किया जाता है, क्योंकि वो दावा करते हैं कि यह मुश्किल काम है.”

2017 में जारी श्रम आयोग के एक आदेश के अनुसार, केरल में धान के खेतों में न्यूनतम मज़दूरी 410 रुपये है, लेकिन वायनाड में कई आदिवासी महिलाओं को यह रक़म नहीं मिलती. आलप्पुझा, कण्णूर और त्रिशूर जैसे दूसरे ज़िलों में मज़दूरों को अक्सर न्यूनतम मज़दूरी मिल जाती है.

इसी तरह, मवेशियों की देखभाल करने वाले मज़दूरों को प्रति दिन 480 रुपये मिलते हैं, लेकिन वायनाड में महिलाओं को इसी काम के लिए 300 रुपये ही दिए जाते हैं. पुरुष मज़दूरों को, हालांकि, खेत मज़दूरी के लिए 490 रुपये कम से कम मिलते हैं.

(Photo Credit: The News Minute)

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