“पेसा 1996 लागू हो जाएगा तो डिस्ट्रिक्ट ऑटोनॉमस काउंसिल बनेगी जिसका अध्यक्ष पड़हा राजा होगा. गुमला, लोहरदगा, रांची और लातेहार ज़िले में उरांव समुदाय की पारंपरिक पड़हा व्यवस्था है.” जयराम उरांव कहते हैं. वे फ़िलहाल उरांव बहुल गुमला ज़िले की पड़हा व्यवस्था से जुड़े हुए हैं.
“पी पेसा 1996 के प्रावधान के तहत राज्य विधान मंडल अनुसूचित क्षेत्रों में ज़िला स्तरों पर की पंचायतों में प्रशासनिक व्यवस्थाओं की परिकल्पना करते समय संविधान की छठी अनुसूचि के पैटर्न का अनुसरण करने का प्रयास करेगा.” विक्टर मालतो, आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के नेता कहते हैं.
“झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा 1996 के 23 प्रावधानों को लागू करने के लिए नियमावली बनाई जानी चाहिए. झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 असवैंधानिक है” आदिवासी क्षेत्र सुरक्षा परिषद के नेता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं.
“झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों में “अबुआ राज” की स्थापना की ओर पेसा एक महत्त्वपूर्ण कदम है. पेसा लागू करवाने की पूरी प्रक्रिया लोगों के साथ मिलकर संचालित होनी चाहिए. इसे लेकर संगठन ने राज्य सरकार से कई मांग की है.” झारखंड जनाधिकार महासभा का बयान कहता है.
इन चारों ही बयानों के आधार पर ऐसा आभास होता है कि ये इनमें मोटेतौर पर एक ही बात कही जा रही है. लेकिन झारखंड में पेसा 1996 पर चल रही ज़बरदस्त बहस में ये चार अलग अलग पाले में खड़े हुए लोगों के बयान हैं.
इसमें जयराम उरांव उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो फ़िलहाल सरकार के पक्ष में खड़े हैं. जबकि विक्टर मालतो और ग्लैडसन डुंगडुंग दोनों ही सरकार के ख़िलाफ़ डटे हुए हैं. जबकि झारखंड जनाधिकार महासभा थोड़ा इधर-थोड़ा उधर का रुख अपना कर कहती है कि बीच का रास्ता निकाला जाए.
इस बहस की पृष्ठभूमि ये है कि करीब 30 साल पहले बने पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 यानि पेसा 1996 (PESA 1996) को झारखंड में प्रभावी बनाने के लिए राज्य सरकार ने एक नियमावली का मसौदा (Draft PESA Rules) तैयार किया है.
झारखंड पेसा नियमावली के मसौदे के बारे में राज्य के पंचायत राज मंत्रालय की तरफ़ से यह संकेत दिया गया कि यह अंतिम स्वरुप में तैयार है. इस नियमावली को अब मंत्रिमंडल की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा.
झारखंड पंचायत राज मंत्रालय की तरफ़ से दिए गए संकेतों से ऐसा लगा कि अब जल्दी ही झारखंड में भी पेसा अधिनियम 1996 के नियमावली को मंजूरी मिल जाएगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि नियमावली का जो मसौदा सरकार ने तैयार किया है उस पर एक ज़बरदस्त विवाद पैदा हो गया है.
ऐसा लगता है कि इस विवाद ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को नियमावली को मंजूरी देने के फ़ैसले को टालने के लिए विवश कर दिया है. इस बीच में आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने झारखंड हाईकोर्ट में एक अवमानना याचिका दायर कर दी.
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने अपनी याचिका में कहा है कि झारखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से 29 जुलाई 2024 को दो महीने के भीतर पेसा 1996 के नियम तैयार करने के लिए कहा था. लेकिन राज्य सरकार ने अभी तक अदालत की बात पर अमल नहीं किया है.
पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 यानि पेसा 1996 देश के 10 राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों में लागू है. लेकिन ओडिशा और झारखंड दो ऐसे राज्य हैं जहां इस अधिनियम को प्रभावी बनाने के लिए ज़रूरी पेसा नियमावली (PESA Rules) नहीं बनी है.
पेसा पर बहस में कौन क्या कहता है
झारखंड में पेसा अधिनियम, 1996 की नियमावली के बारे में जारी अधिसूचना कहती है कि झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 131 की उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करते हुए झारखंड पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) नियमावली का प्रारुप (Draft Rules of PESA) तैयार किया गया है.
झारखंड पेसा नियमावली के प्रारुप में परिभाषाओं के बारे में बात करते हुए कहा गया है कि जहां अधिनियम का ज़िक्र है उसका मतलब झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 है. इसमें आगे कहा गया है कि ग्राम सभा का मतलब है झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 3 में परिभाषित ग्राम सभा होगा.
झारखंड में पेसा 1996 के तैयार किये गए नियमावली के मसौदे की इन बातों पर मुख्य विवाद है. इस विवाद में सरकार की मंशा पर सवाल उठाने वाले लोगों का कहना है कि पेसा 1996 की नियमावली के नाम पर झारखंड पंचायत राज 2001 के प्रावधानों को ही आगे बढ़ाया जा रहा है.
इस बारे में विक्टर मालतो और ग्लैडसन डुंगडुंग यानि आदिवासी बुद्धिजीवी मंच और आदिवासी क्षेत्र सुरक्षा परिषद कहते हैं कि झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 पूरी तरह से असवैंधानिक है. उनके अनुसार झारखंड में राज्य गठन के बाद पहली सरकार बाबूलाल मरांडी (बीजेपी) की बनी थी.
इस सरकार ने राज्य के सामान्य क्षेत्रों के लिए बनाए गए पंचायत राज अधिनियम को ही अनुसूचित क्षेत्रों में थोप दिया. ताज़ा स्थिति में इन दोनों ही संगठनों का कहना है कि वर्तमान सरकार भी पेसा 1996 के तहत अनुसूचित इलाकों में ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने का सिर्फ़ ढोंग कर रही है.
वे कहते हैं कि अगर पेसा 1996 की नियमावली के नाम पर पंचायत राज अधिनियम के ही नियम अनुसूचित क्षेत्रों में बैकडोर से थोपे जा रहे हैं.
इसके अलावा आदिवासी बुद्धिजीवी मंच का इस बात पर भी ज़ोर है कि झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 में यह भी कहा गया है कि अनसूचित क्षेत्रों में ज़िला स्तर का प्रशासनिक ढांचा तैयार करते समयसंविधान की अनुसूचि 6 की परिकल्पना (pattern of 6 schedule) का अनुसरण किया जाना चाहिए.
इस मामले में झारखंड जनाधिकार महासभा का कहना है कि झारखंड के अनुसूचित क्षेत्र पेसा के अधिकांश महत्वपूर्ण प्रावधानों से वंचित हैं. झारखंड पंचायती राज अधिनियम, 2001 के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र को पेसा के अधिकांश प्रावधानों और शक्तियों से वंचित रखा गया है.
इस मामले में जनाधिकार महासभा ने इस पूरे विवाद के बीच कहा है कि अगर किसी को यह लगता है कि पेसा 1996 की नियमावली बनने से अनुसूचित इलाकों में पंचायत के चुनाव बंद हो जाएंगे तो वे भ्रम में हैं.
जनाधिकार महासभा का कहना है कि असल में पेसा संविधान के भाग 9 में दिये पंचायत व्यवस्था के उपबंधों को पांचवी अनुसूची क्षेत्र में कई अपवादों और उपान्तरणों के साथ विस्तार करता है.
इसमें पंचायत त्रिस्तरीय होगा और उसके लिए चुनाव भी होगा. इस कानून का मूल यही है कि अनुसूचित क्षेत्र में त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था के प्रावधानों का विस्तार होगा. लेकिन आदिवासी सामुदायिकता, स्वायत्तता और पारंपरिक स्वशासन इस पंचायत व्यवस्था का मुख्य केंद्र बिंदु होगा.
गांव राजस्व गांव से भिन्न होगा. समाज ही गांव को परिभाषित करेगा. ऐसी पारंपरिक ग्रामसभा को संवैधानिक और सर्वोपरि दर्जा होगा.
सरकार और समर्थक क्या कहते हैं
झारखंड में पंचायत राज विभाग ने पेसा नियमावली का जो अंतिम प्रारुप (Final Draft Rules of PESA) तैयार किया है वह सार्वजनिक नहीं है. इसके अलावा सरकार या पंचायत राज मंत्रालय की तरफ से आधिकारिक तौर पर इस पूरी बहस में ख़ामोशी नज़र आती है.
इस बहस में शुरूआती दौर में शामिल रही पंचायत मंत्रालय की निदेशक निशां उरांव ने काफ़ी आक्रमकता से ड्राफ्ट नियमावली का बचाव किया. लेकिन अब उन्होंने भी मीडिया से दूरी बना ली है. पंचायत मंत्रालय या सरकार का पक्ष भी अब कुछ सामाजिक संगठन, एनजीओ या फिर परंपरागत आदिवासी संस्थाओं से जुड़े हुए लोग ही रख रहे हैं.
इस मामले में सरकार ने पेसा नियमावली पर भ्रम को दूर करने के लिए गांव के स्तर पर समाज में सक्रिय लोगों के साथ संवाद का कार्यक्रम शुरू किया है. पंचायत मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने निजी बातची में मैं भी भारत को बताया कि अब सरकार इस विवाद में पड़ने की बजाए, लोगों के बीच फैले भ्रम को दूर करना चाहती है.
इसके लिए सरकार ने कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़ा है. इसी क्रम में झारखंड में पत्थलगढ़ी में शामिल रहे बिजय कुजूर भी इस अभियान में शामिल हैं. बिजय कुजूर कहते हैं, “देश में झारखंड सहित दस राज्य पांचवी अनूसचित क्षेत्रों वाले राज्य हैं और सभी नौ राज्यों में पेसा 1996 क़ानून की नियमावली को राज्य पंचायत राज्य एक्ट में समाहित किया गया है. वही झारखंड में भी हो रहा है.”
उधर मंथन नाम की ग़ैर सरकारी संस्था चलाने वाले सुधीर पाल भी सरकार के साथ खड़े हुए हैं. वे कहते हैं, “झारखंड में पेसा क़ानून से ज़्यादा शायद लोगों की भावना से जुड़ गया है इसलिए बात कई बार क़ानून से आगे निकल जाती है. हमने पिछले दो-ढाई साल में यह कोशिश की है कि उन सभी लोगों को साथ लेकर जो इस क़ानून से सरोकार रखते हैं, नियमावली का ड्राफ़्ट बनाएं. आज की तारीख़ में जो ड्राफ्ट है मुझे लगता है कि वह कुछ कमियों के बावजूद एक अच्छी शुरुआत है.”
ज़मीन पर लोग क्या समझते हैं
गुमला, रांची, लोहरदगा और पश्चिम सिंहभूम में परंपरागत आदिवासी संस्थाओं से जुड़े कई लोगों से बातचीत के बाद हमें ऐसा अहसास हुआ कि पेसा 1996 की नियमावली के बारे में भ्रम की स्थिति बनी हुई है.
मसलन गुमला में उरांव समुदाय की पड़हा व्यवस्था और खड़िया समुदाय की डोकलो सोहर व्यवस्था से जु़ड़े कई लोगों को यह विश्वास है कि पेसा नियमावली का जो ड्राफ़्ट तैयार किया गया है अगर वह लागू हो जाता है तो चुनी हुई पंचायतें ख़त्म हो जाएंगी और परंपरागत संस्थाएं ही प्रशासनिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियां निभाएंगी.
पड़हा व्यवस्था से जुड़े महेंद्र उरांव कहते हैं, “अब त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव व्यवस्था का समय ख़त्म हो चुका है, क्योंकि पेसा की नियमावली तैयार होने के बाद अनुसूचित क्षेत्रों में चुनाव नहीं हो सकता है.”
इस सिलसिले में फ़ौदा सिंह भी कहते हैं, “ जो लोग पेसा नियमावली पर सवाल उठा रहे हैं उनकी आशंकाएं निर्मूल हैं. यह नियमावली अनुसूचित इलाकों में स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को लागू करेगी.”
कुछ इसी तर्ज़ पर कई और लोग भी कहते हैं कि अगर पेसा नियमावली का वर्तमान प्रारुप लागू हो जाता है तो अनुसूचित इलाकों में स्वायत्त ज़िला परिषद होंगी और उनकी अध्यक्षता पंरपरागत संस्थाओं के मुखिया करेंगे.
झारखंड की पेसा नियमावली पर बनी यह राय ज़ाहिर तौर पर सरकारी पक्ष से प्रभावित है. यहां पर कई लोगों से बातचीत में यह अहसास भी हुआ है कि सरकारी पक्ष को रखने वाले लोगों ने नीचे यह भी समझाने की कोशिश की है कि झारखंड पंचायत राज अधिनियम को असंवैधानिक बताने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट में हार चुके हैं.
ऐसा लगता है कि सरकार की तरफ से इस बहस में शामिल लोगों ने कुछ चुना हुआ सच बोला है. मसलन ज़मीन पर जो लोग सरकार के पक्ष में खड़े हैं उन्हें यह नहीं बताया गया है कि पेसा नियमावली लागू होने का मतलब यह नहीं होगा कि गांव में पंचायत के चुनाव बंद हो जाएंगे.
दूसरी तरफ आदिवासी बुद्धिजीवी मंच और आदिवासी क्षेत्र सुरक्षा परिषद भी लगातार अनुसूचित क्षेत्रों में बैठक और सभाएं कर लोगों के बीच अपना पक्ष रखते हैं. इन सभाओं या बैठकों में लोगों को यह बताया जाता है कि पेसा नियमावली का वर्तमान प्रारुप एक धोखा है.
अगर यह नियमावली लागू होती है तो पेसा अधिनियम 1996 की मूल भावना और प्रावधानों का उल्लंघन है. इन सभाओं में शामिल लोगों में स्पष्ट रुप से इन बातों का असर नज़र आता है.
यह बहस एक इतिहास रच सकती है
झारखंड आंदोलनों की भूमि रहा है. आज़ादी से पहले भी और आज़ादी के बाद भी झारखंड में शोषण से मुक्ति, आदिवासी पहचान और परंपरा के संरक्षण और जल-जंगल – ज़मीन के अधिकार की रक्षा के लिए कई आंदोलन होते रहे हैं.
वैसे झारखंड राज्य का गठन भी एक लंबे आंदोलन की बदौलत ही हुआ था. इसके अलावा आदिवासी आंदोलन की वजह से कई बड़े उद्योग घरानों के ज़मीन अधिग्रहण के मामले पर पीछे हटना पड़ा.
झारखंड में पेसा नियमावली पर छिड़ी यह बहस क्या एक और आंदोलन की ज़मीन तैयार कर रही है? यह कहना फ़िलहाल संभव नहीं है. लेकिन राज्य सरकार इस बहस को नज़रअंदाज़ ना तो कर रही है और ना ही शायद वह ऐसा करने का ख़तरा उठा सकती है.
इस बहस के जवाब में राज्य सरकार का दावा है कि झारखंड में पेसा की नियमावली अन्य राज्यों की प्रक्रिया और अनुभव के अनुसार ही है. लेकिन इस नियमावली का विरोध कर रहे लोगों का तर्क है कि जो ग़लतियां अन्य राज्यों में हुई हैं ज़रूरी नहीं है वे झारखंड में भी दोहराई जाएं.
अगर झारखंड सरकार इस विरोध के सामने झुक जाती है और झारखंड पेसा नियमावली को पेसा 1996 के सभी 23 प्रावधानों को समाहित करते हुए बनाती है तो यह अपने आप में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम होगा.
इस बात को समझने के लिए पेसा 1996 क़ानून के निर्माण के इतिहास को देखना होगा.
साल 1992 में 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के ज़रिए पंचायतो को सवैंधानिक मान्यता मिल गई. पंचायती राज अधिनियम को संसद ने पास कर दिया और 20 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति ने इस बिल पर मोहर लगा दी. इस संशोधन से ग्राम पंचायतों को 29 विषयों पर काम करने का अधिकार दिया गया.
लेकिन इस संशोधन में की गई व्यवस्था में पांचवीं अनुसूचि के क्षेत्रों को बाहर रखा गया. क्योंकि ये आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं और उनकी स्वशाशी व्यवस्था अन्य इलाकों से अलग है. इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के 73वें संशोधन में 10 राज्यों के अनुसूची 5 के क्षेत्रों को त्रिस्तरीय चुनाव व्यवस्था से बाहर रखा गया था.
वर्तमान में जिन दस राज्यों में अनुसूचि 5 के क्षेत्र हैं उनमें आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना हैं.
संविधान के 73 वें संविधान संशोधन में अनुसूचित क्षेत्रों को त्रिस्तरीय चुनाव व्यवस्था से बाहर रखे जाने के बावजूद मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश ने सामान्य क्षेत्रों के साथ साथ पंचायत राज अधिनयम के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में भी पंचायत के चुनाव संपन्न करा दिए.
जबकि संविधान के अनुच्छेद 243 M में कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्रों और उत्तर-पूर्व के जनजातीय क्षेत्रों के लिए अलग से क़ानून बनाया जाएगा. जब एक के बाद एक राज्य सरकारों ने अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज अधिनयम को लागू करना शुरू कर दिया तो कई राज्यों में आदिवासियों ने आंदोलन का रास्ता लिया. इस सिलसिले में मध्य प्रदेश और झारखंड (बिहार) में बड़े बड़े आंदोलन हुए.
कई राज्यों में हाईकोर्ट में अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज अधिनियम के तहत पंचायत चुनाव कराने के ख़िलाफ़ याचिकाएं दायर की गईं. अंतत: सरकार ने 1994 में दिलीप सिंह भूरिया कमेटी का गठन किया.
दिलीप सिंह भूरिया कमेटी ने अनुसूचित इलाकों में स्वाशासी व्यवस्थाओं में लोक पंरपराओं और रीति रिवाजों की भूमिका और अन्य मसलों पर 17 जनवरी 1995 को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी. भूरिया कमेटी की सिफ़ारिश पर पंचायतों से संबंधित संविधान के भाग 9 के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू करने हेतु 1996 में एक स्वतंत्र अधिनियम लागू किया गया. इस अधिनियम को आमतौर पर पेसा 1996 (PESA) यानि The provision of the Panchayats Extension to the Scheduled Areas Act 1996 के नाम से जाना जाता है.
देश के कई राज्यों के आदिवासियों और उनके संगठनों के आंदोलन की बदौलत पेसा 1996 का निर्माण हुआ है. लेकिन इस क़ानून को लागू करने में लगभग सभी राज्य सरकारों ने सुस्ती तो दिखाई ही है. इसके अलावा किसी भी राज्य सरकार ने अपने यहां इस अधिनियम को लागू करने में गंभीरता नहीं दिखाई है.
पेसा 1996 के 25 साल पूरे हुए तो अनुसूचित क्षेत्रों वाले 10 राज्यों के जनसंगठन दिल्ली में जमा हुए और उन्होंने पेसा 1996 के क्रियान्वयन की समीक्षा की थी. इस असवर पर जारी किये गए एक दस्तावेज़ में यह बताया गया है कि किसी भी राज्य ने पेसा 1996 को ध्यान में रखते हुए अपने अन्य क़ानूनों में बदलाव नहीं किये हैं.
जब तक राज्य अपने उन क़ानूनों में बदलाव नहीं करते हैं तब तक पेसा के प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सकता है.
झारखंड पेसा नियमावली बनाने के मामले में उन 10 राज्यों में आख़री है जिसके सामने सभी राज्यों के अनुभव मौजूद हैं. इन अनुभवों के आधार पर सरकार चाहती है कि वह वही रास्ता अपनाए जो अन्य सरकारों ने अपनाया है.
लेकिन झारखंड के आदिवासी संगठन कहते हैं कि झारखंड वह पेसा नियमावली के मामले में वह फ़रेब ना करे जो अन्य राज्य सरकारों ने किया है. झारखंड में अगर आदिवासी संगठन सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर दे कि वह एक ऐसी नियमावली बनाए जो अक्षरश: पेसा 1996 का पालन करे तो यह एक ऐतिहासिक जीत होगी.
लेकिन फ़िलहाल जो सूरत बन रही है उसमें यह काम बेहद मुश्किल लग रहा है. इसका कारण ये है कि पेसा नियमावली के विरोध में उतरे संगठन और लोग एक मंच पर आने के लिए तैयार नहीं है. बल्कि वे एक-दूसरे पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा रहे हैं.
दूसरी तरफ़ सरकार भी पेसा नियमावली पर आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रही है. झारखंड में पेसा नियमावली की पूरी प्रक्रिया से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकार ने हमें बताया कि फ़िलहाल जो स्थिति बन रही है उसमें नियमावली का कैबिनेट में पास होना मुश्किल लगता है.