भारत में कई आदिवासी समुदाय बहुसंख्यक आबादी वाले समाज में घुल गए हैं. यानि उनकी अपनी कोई विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान अब नहीं रही है. कई आदिवासी समुदाय ऐसे हैं जो किसी तरह से अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए हुए हैं, लेकिन उन समुदायों के लिए इस पहचान को बनाए रखना लगातार मुश्किल हो रहा है.
लद्दाख के बेडा समुदाय के सामने भी कुछ इसी तरह की चुनौती पेश आ रही है. इस जनजाति के लोगों की जीविका लोक वाद्यों और गीतों के भरोसे चलती आई है. लेकिन अब इस समुदाय के लोग भी जीविका के लिए अन्य साधनों की तरफ़ देख रहे हैं.
विलुप्त होने का ख़तरा
इस समुदाय के बारे में यह आशंका भी ज़ाहिर की जा रही है कि यह जनजाति जल्दी ही विलुप्त हो सकती है. क्योंकि अब। इस जनजाति की जनसंख्या बहुत कम रह गई है.
2011 की जनगणना के अनुसार की संख्या अब क़रीब 420 बची है. इस समुदाय की जनसंख्या के जो आँकड़े दर्ज हैं उनके अनुसार 1931 में इनकी जनसंख्या 400 मिलती है. इसके बाद 1991 में इनकी संख्या 319 दर्ज होती है. जबकि साल 2001 की जनगणना में इस समुदाय की जनसंख्या सिर्फ़ 200 ही बताई गई है.
इन आँकड़ों से ऐसा लगता है कि इस समुदाय की सही सही जनसंख्या दर्ज किये जाने में कोई चूक हो रही है. इसलिए ज़रूरी है कि इस समुदाय के लोगों की सही सही संख्या का पता लगाया जाए.
बेडा समुदाय को बेटा, बेदर या जयाली नाम से भी जाना जाता है. इस समुदाय के ज़्यादातर परिवार लेह ज़िले में रहते हैं.
इस समुदाय को विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों की सूचि (PVTG) में शामिल करने की ज़रूरत भी बताई गई है. लेकिन अभी तक इस सिलसिले में सरकार ने कोई फ़ैसला नहीं किया है.
परंपरागत नियमों को अहमियत दी जाती है
बेडा समुदाय के बारे में कहा जाता है कि यह समुदाय हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीती के इलाक़े से लेह की तरफ़ आए हैं. इसलिए इनकी भाषा कई बोलियों और भाषाओं के शब्द और उच्चारण मिल जाते हैं.
इस समुदाय के ज़्यादातर लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं लेकिन कुछ परिवारों ने इस्लाम धर्म को भी अपनाया है. जनगणना के आँकड़ों के अनुसार क़रीब 20 प्रतिशत लोग इस्लाम धर्म को मानते हैं.
बेडा जनजाति में अपने समुदाय के भीतर ही शादी को प्राथमिकता दी जाती है. यह समुदाय गोत्र व्यवस्था का सख़्ती से पालन करता है. हालाँकि शादी की रस्में बेहद सामान्य हैं.
यह समुदाय तलाक़ की अनुमति देता है और इसे ना तो बुरा माना जाता है और ना ही इसकी प्रक्रिया बेहद पेचीदा है.
गीत-संगीत जीविका का साधन
लद्दाख में भी देश के अलग अलग जनजातीय समुदाय की तरह से ही लोक संगीत -गीत संस्कृति का एक अभिन्न अंग है. इस लोक संगीत और गीतों में यहाँ की जनजातियों के इतिहास, संस्कृति, जीवन मूल्यों और समाज की बनावट सब कुछ मौखिक रूप से बताया और सुनाया जाता है.
लद्दाख में भी समय के साथ आधुनिकतावाद का असर जनजातीय गीत संगीत पर आया है. यहाँ के गीतों और वाद्यों में भी बदलाव देखा गया है.
यह बदलाव शायद लाज़मी भी था क्योंकि अब दुनिया में कम ही जनजातियाँ हैं जो पूरी तरह से अपने ही परिवेश में जी रही हैं.
लेकिन बेडा जनजाति की लिए लोकगीत और संगीत जीवन का आधार है. यह उनकी परंपरा या संस्कृति का हिस्सा ही नहीं है बल्कि उनकी जीविका का साधन भी है.
इस समुदाय के लोग लोक वाद्यों पर लोकगीत गाते हैं. इन गीतों में कुदरत और इंसान के रिश्ते, सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं का ज़िक्र मिलता है.
ये लोग अक्सर उत्सवों के गीत गाते हैं. इनके वाद्यों में बाँसुरी, सुरना (बिगुल), ढाप (छोटा ढोल) और दमन (चमड़े से बने दो ड्रम) होते हैं. आज भी लद्दाख में बेड़ा समुदाय के गीतों और संगीत की कद्र है.
किसी भी बड़े सामाजिक या धार्मिक आयोजन में अक्सर ही इन लोगों को गीत-संगीत के लिए बुलाया जाता है. लेकिन बदलते ज़माने में अब इस समुदाय के सामने वह मोड़ आ गया है जब उन्हें जीविका के अन्य साधनों की तरफ़ देखना पड़ रहा है.
क्योंकि आज के ज़माने में वैसे उत्सव कम हो गए हैं जहां इन्हें अपने लोकगीतों को गाने का मौक़ा मिलता था.
सामाजिक भेदभाव के शिकार भी हैं
बेडा समुदाय अपने परंपरागत पेशे यानि लोक गीत और वाद्य यंत्रों को छोड़ रहा है तो इसकी वजह आर्थिक होने के साथ साथ सामाजिक भी है.
बेडा समुदाय अपनी सामाजिक पहचान को अब छुपाने की कोशिश करता है क्योंकि लद्दाख के बौद्ध समाज में उनके साथ भारी भेदभाव होता रहा है.
शायद यह भी एक कारण है कि जनगणना के आँकड़ों में बेड़ा जनजाति की संख्या लगातार कम दर्ज हो रही है. बौद्ध आबादी के गाँवों में बेड़ा जनजाति के लोगों से एक दूरी बना कर रखी जाती है.
इसके अलावा उन्हें समाज या धार्मिक व्यवस्था में किसी मुख्य पद पर चयनित नहीं किया जाता है.
बेडा जनजाति के लोगों और उनके परंपरागत वाद्य यंत्रों और लोक गीतों को बचाने के कुछ उपाय 2015 में किए गए एक शोध में सुझाए गए हैं.
ICSSR के इस शोध में सुझाव दिया गया है कि इस जनजाति के लोगों के लिए स्थाई रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाने बेहद ज़रूरी हैं.
इस शोध में यह कहा गया है कि बेडा जनजाति को रोज़गार के साधन और एक सुरक्षित जीवन की गारंटी उनकी समृद्ध संगीत परंपरा को बचाने में भी मदद कर सकती है.