HomeIdentity & Lifeगढ़चिरौली में माडिया महिलाएं कुर्मा प्रथा से मुक्त हो रही हैं

गढ़चिरौली में माडिया महिलाएं कुर्मा प्रथा से मुक्त हो रही हैं

शिक्षित लड़कियों का मानना है कि मासिक धर्म के बारे में अंधविश्वास ही मुख्य कारण है जिसकी वजह से लोग इस प्रथा पर विश्वास करते हैं. गांव के बुजुर्ग लोग कहते हैं कि घर पर मासिक धर्म वाली महिलाओं के रहने से ग्रामदेवी नाराज़ हो जाएंगी और पूरा गांव हमारे भगवान के श्राप से पीड़ित होगा.

भारत में मासिक धर्म को लंबे समय से वर्जित माना जाता रहा है. मासिक धर्म वाली महिलाओं को अपवित्र माना जाता है और उन्हें कड़े प्रतिबंधों के तहत रहने के लिए मजबूर किया जाता है. उन्हें सामाजिक और धार्मिक कार्यों में भाग लेने से रोक दिया जाता है… मंदिरों, धार्मिक स्थलों और यहां तक कि रसोईघर में भी प्रवेश नहीं करने दिया जात है.

लेकिन भारत के सबसे गरीब और सबसे अविकसित जिलों में से एक महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में गोंड और माडिया जनजातियों की महिलाओं को जिस तरह के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, वह बहुत ही भयानक है.

ये जनजातियां मासिक धर्म वाली महिलाओं को अशुद्ध और अछूत मानती है और उन्हें मासिक धर्म होने पर दूर भेज देती है.

कुर्मागढ़ में रहती महिलाएं

जिले के माडिया आदिवासी समुदाय (Madia tribal community) और गोंड जनजाति (Gond tribe) की लड़कियां और महिलाएं एक प्रथा कुर्मा (Kurma) का पालन करती हैं.. यह वह प्रथा है जिसके अनुसार लड़कियां और महिलाएं मासिक धर्म यानि पीरियड के दौरान अपने घरों से दूर एक झोपड़ी में अलग-थलग रहती हैं.

गढ़चिरौली के ज्यादातर गांवों में सदियों पुरानी इस कुर्मा प्रथा का पालन किया जाता है.

यह झोपड़ी, जहां मासिक धर्म वाली महिलाएं रहती हैं, कुर्मागढ़ या कुर्मा घर के रूप में जाना जाता है.

इन झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओं के साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है. उन्हें दूर से खाना और पानी दिया जाता है और उन्हें काम पर या स्कूल जाने से मना किया जाता है.

उनकी पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार उन्हें हर महीने पांच दिन इस कुर्मागढ़ में बिताने पड़ते हैं, जो ज़्यादातर जंगल के किनारे गांव के बाहरी इलाके में स्थित होता है. उन्हें खाना बनाने या गांव के कुएं से पानी भरने की अनुमति नहीं है और उन्हें महिला रिश्तेदारों द्वारा दिए गए भोजन और पानी पर निर्भर रहना पड़ता है.

माडिया समुदाय के लोगों का विश्वास है कि मासिक धर्म के दौरान महिलाओं और लड़कियों के घर पर रहने से वो खराब कृषि उपज जैसे दुर्भाग्य लाएंगीं.

इन झोपड़ियों में आमतौर पर उचित बाथरूम या रसोई की सुविधा नहीं होती है और न ही बिजली की सुविधा होती है.

एक महिला का कहना है कि एक शिक्षित महिला के रूप में मैं जानती हूं कि यह प्रथा अनावश्यक है. लेकिन अंधविश्वास लोगों के दिमाग में इतनी गहराई से बैठा है कि इसे जड़ से खत्म करना मुश्किल है.

शिक्षित लड़कियों का मानना है कि मासिक धर्म के बारे में अंधविश्वास ही मुख्य कारण है जिसकी वजह से लोग इस प्रथा पर विश्वास करते हैं. गांव के बुजुर्ग लोग कहते हैं कि घर पर मासिक धर्म वाली महिलाओं के रहने से ग्रामदेवी नाराज़ हो जाएंगी और पूरा गांव हमारे भगवान के श्राप से पीड़ित होगा.

कुर्मा प्रथा का पालन न करने की सज़ा एक मुर्गी या बकरा है, जिसकी बलि गाँव के देवता को दी जाती है.

आदिवासी महिलाओं का कहना है कि वे सदियों पुरानी मान्यताओं के सामने असहाय हैं. जो लोग विरोध करते हैं उन्हें पंचायत के सामने लाया जाता है और पूरे गाँव के लिए चिकन बनाने और सभी के लिए शराब खरीदने के लिए कहा जाता है.

बदलाव की बयार बह रही

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में माडिया समुदाय की कई अन्य महिलाओं ने देखा है कि प्रतिबंध अब पहले जितने कठिन नहीं है.

पहले महिलाओं और लड़िकयों को मासिक धर्म समाप्त होने तक कुर्मागढ़ से बाहर जाने या अपने परिवार से मिलने की अनुमति नहीं थी. लेकिन अब वो घूम सकती हैं और अपने घर के आंगन तक जा सकती हैं.

यह बदलाव माडिया समुदाय की कुछ महिला वॉलंटियर्स की कोशिशों से संभव हो पाया है. जो मासिक धर्म के बारे में जागरूकता फैलाती हैं और उन्हें कुर्मा बंद करने का आग्रह करती हैं. उन्हें

आदिवासी समुदायों के साथ काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था स्पर्श (SPARSH) गढ़चिरौली द्वारा सहायता प्रदान की जाती है.

गैर-लाभकारी संस्था के संस्थापक और गढ़चिरौली के फुले-अंबेडकर कॉलेज ऑफ सोशल वर्क के एसोसिएट प्रोफेसर दिलीप बारसागड़े कहते हैं कि हमने 2014 में कुर्मा को खत्म करने पर काम करना शुरू किया.

उन्होंने यह काम तब शुरू किया जब माडिया समुदाय से ताल्लुक रखने वाली उनकी एक छात्रा कुर्मागढ़ में आइसोलेशन के दौरान बीमार पड़ गई.

वे कहते हैं, “हमने जिले के 223 कुर्मागढ़ों का सर्वेक्षण किया. हमने पाया कि कुर्मागढ़ में रहने के दौरान करीब 32 महिलाओं की मौत सांप के काटने, जानवरों के हमले या आपातकालीन चिकित्सा सुविधा न मिलने जैसे कारणों से हुई.”

वे कहते हैं, “हमने जिला और आदिवासी अधिकारियों के लिए रिपोर्ट तैयार की लेकिन कार्रवाई धीमी रही.”

इसलिए बरसागड़े और उनकी टीम ने करीब 37 गांवों में जागरूकता फैलाने के लिए 18 महिला वॉलंटियर्स को इकट्ठा किया. लेकिन यह मुश्किल था.

दूसरे आदिवासी टोला की एक महिला कहती हैं कि हमारे परिवार वाले हमारा समर्थन करते हैं लेकिन बड़ा समुदाय नहीं करता.

जबकि अधिकांश लोग इसे परंपरा का मामला बताते हैं तो दूसरे लोग इसके परिणामों से डरते हैं.

एक अन्य निवासी कहती हैं, “अगर हम कुर्मागढ़ जाने से इनकार करते हैं तो हमें पंचायत के सामने बुलाया जाएगा और पूरे गांव को खाना खिलाने के लिए कहा जाएगा, जो एक महंगा काम है.”

वॉलंटियर्स और स्पर्श संस्था ने फिर अपना ध्यान बदलने का फैसला किया.

बारसागड़े कहते हैं, “हमने यह सुनिश्चित करके कुर्मागढ़ों में रहने की स्थिति में सुधार किया कि झोपड़ियों में उचित छतें, दरवाज़े वाले बाथरूम और बिजली कनेक्शन हों.”

साथ ही स्वच्छ सैनिटरी नैपकिन तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए कुछ महिलाओं को दोबारा इस्तेमाल किए जाने वाले कपड़े के पैड डिज़ाइन करने और बनाने की ट्रेनिंग भी दी हई, जो अब छह गांवों में बेचे जाते हैं.

बारसागड़े कहते हैं, “महिला वॉलंटियर कुर्मा के खिलाफ़ खड़े होने के लिए अधिक सशक्त महसूस करती हैं और उनमें से कुछ ने इस प्रथा का पालन करना बंद कर दिया है. हमें जल्द ही और प्रगति देखने की उम्मीद है.”

बदलाव की दिशा में साहसिक कदम

दरअसल,साल 2015 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान झोपड़ियों में बंद रखने की प्रथा की निंदा की. इसने महाराष्ट्र सरकार को इस प्रथा को समाप्त करने का निर्देश भी दिया. लेकिन बदलाव खासकर दूरदराज के एक-दूसरे से जुड़े समुदायों में ऊपर से नीचे तक के निर्देश से कहीं ज़्यादा की ज़रूरत होती है.

इसके लिए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है जो स्थानीय रीति-रिवाजों, परंपराओं और प्राथमिकताओं पर विचार करता हो.

इसलिए गढ़चिरौली के जंगल में स्थित चन्नाबोडी गांव ने बदलाव के इस आह्वान पर कुछ अलग किया. कुछ कार्यकर्ताओं ने इस प्रथा पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग की लेकिन ग्रामीणों ने समझा कि ऐसा कदम उल्टा पड़ सकता है.

क्योंकि इन झोपड़ियों के बिना मासिक धर्म वाली महिलाओं के पास जंगल में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा, जहां उन्हें और भी ज़्यादा ख़तरा हो सकता है. इसलिए स्थानीय समुदाय ने परंपरा को भीतर से बदलने का फ़ैसला किया.

एक नया कुर्मा घर

ग्रामीणों ने कुर्मा घर के पुनर्निर्माण का काम शुरू किया. ख़ास बात ये थी कि इसमें गांव के पुरुषों ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया.

गांव में सबसे छोटी, सबसे उपेक्षित झोपड़ी के बजाय नए कुर्मा घर को बड़ा, समावेशी और मल्टीफंक्शनल बनाया गया था. ग्रामीणों ने टिकाऊ, पारंपरिक तरीकों का उपयोग करके पुनर्निमाण किया यह शौचालय और बहते पानी जैसी सुविधाओं से भी लैस था.

कुरमा घर के परिवर्तन ने पूरे चन्नाबोडी में नई लहर पैदा की. इस जगह पर स्वास्थ्य शिविर और जागरूकता सत्र आयोजित किए गए, जिससे मासिक धर्म के बारे में लोगों का नज़रिया धीरे-धीरे बदला. जो महिलाएं कभी अलग-थलग और उपेक्षित थीं, वे अब एक सामुदायिक केंद्र का हिस्सा बनी. जहां वे स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर सकती हैं, शैक्षिक सत्रों में भाग ले सकती हैं.

चन्नाबोडी की सफलता से प्रेरित होकर, जिला प्रशासन अब गढ़चिरौली के अन्य गांवों में भी इस मॉडल को अपना रहा है.

लेकिन अभी भी कई गांवों की महिलाएं और लड़कियां इस प्रथा से पीड़ित हैं.

कुर्मा प्रथा ने कई महिलाओं ली जान

मासिक धर्म वाली महिलाओं को अपवित्र मानने और उन्हें अलग-थलग करने की प्रथा के कारण जिले के कई गांवों में दुर्घटनाएँ और मौतें भी होती हैं. कुर्मा घर में रहने के दौरान साँप और बिच्छू के काटने से कई महिलाओं की मौत हो जाती है.

वहीं साफ-सफाई, बाथरूम, पानी और बीमार होने पर चिकित्सा सुविधा न मिलने के कारण भी मौतें होती हैं.

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