HomeIdentity & Lifeआदिवासी भूमि, भाषा और पहचान पर हमला

आदिवासी भूमि, भाषा और पहचान पर हमला

जनजातीय भाषाओं पर हमला हो रहा है. कई देशी भाषाएं अभी भी आठवीं अनुसूची में शामिल होने की प्रतीक्षा कर रही हैं. जिससे प्रभावी रूप से आदिवासियों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और भाषाई नरसंहार में तेजी आ रही है.

लोकतंत्र, न्याय और समानता पर गर्व करने वाले देश में सदियों से इस भूमि को पोषित करने वाले समुदाय उपेक्षित, शोषित, विस्थापित और हाशिये पर हैं.

भारत के आदिवासी देश की आबादी का 8.6 प्रतिशत से अधिक हिस्सा हैं जो अपने अधिकारों, संसाधनों और पहचान पर अभूतपूर्व हमले का सामना कर रहे हैं.

जबकि सत्तारूढ़ भाजपा आदिवासी हितों की रक्षा करने का दावा करती है, उन्हें समान नागरिक संहिता (UCC) से बाहर रखती है, सांस्कृतिक समरूपता और आर्थिक शोषण का उसका एजेंडा एक बहुत ही गहरा सच उजागर करता है.

आदिवासियों को वहां बाहर रखा जाता है जहां यह सरकार को राजनीतिक रूप से अनुकूल लगता है और जब यह बड़े हिंदुत्व प्रोजेक्ट की सेवा करता है तो उन्हें आत्मसात कर लिया जाता है.

उन्हें राजनीतिक टोकन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन जब वास्तविक मुद्दों यानि भूमि अधिकार, शिक्षा, आजीविका सुरक्षा और सांस्कृतिक स्वायत्तता को संबोधित करने की बात आती है तो उन्हें व्यवस्थित रूप से नजरअंदाज कर दिया जाता है.

आदिवासी अभी भी पीछे छूटे हुए हैं

भारत की पहली आदिवासी महिला की राष्ट्रपति के रूप में नियुक्ति को एक ऐतिहासिक क्षण के रूप में देखा गया. जो हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए लंबे समय से प्रतीक्षित प्रतिनिधित्व का संकेत था.

इस प्रतीकवाद का जश्न तो मनाया गया लेकिन इससे ज़मीनी स्तर पर आदिवासी समुदायों के लिए कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया.

आदिवासी अपनी ज़मीनों से लगातार विस्थापित हो रहे हैं, उनकी आजीविका नष्ट हो रही है और उनके जंगल निगमों को सौंपे जा रहे हैं फिर भी सरकार इन विश्वासघातों पर चुप है.

ओडिशा के कंधमाल में आदिवासी महिलाओं की हाल ही में भूख से मौत, चावल की कमी के कारण आम की गुठली खाने को मजबूर, कोई अकेली घटना नहीं है. बल्कि यह शासन की विफलता का एक गंभीर आरोप है.

इस बीच राष्ट्रपति के अपने गृह राज्य ओडिशा में संस्कृति थोपे जाने का विरोध करने पर आदिवासी महिलाओं को हिंदुत्व की भीड़ ने बेरहमी से पीटा.

ये घटनाएं एक दर्दनाक सच्चाई को रेखांकित करती हैं.

राजनीतिक बयानबाजी के बावजूद सरकार ने आदिवासी कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को त्याग दिया है और वास्तविक सशक्तिकरण की जगह प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता दी है.

जबकि व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व मायने रखता है, यह संरचनात्मक न्याय का विकल्प नहीं हो सकता.

भाजपा सरकार अपने दावों के बावजूद, आदिवासियों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों को लागू करने में व्यवस्थित रूप से विफल रही है. जिससे लाखों लोग शोषण, भूमि अधिग्रहण और सांस्कृतिक विनाश के प्रति संवेदनशील हो गए हैं.

आदिवासी बच्चों के साथ विश्वासघात

सरकार गर्व से दावा करती है कि वह एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालयों (EMRS) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के माध्यम से आदिवासी शिक्षा को बढ़ावा दे रही है.

लेकिन चमकदार रिपोर्टों से परे वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयां करती है जो न केवल शिक्षा के बारे में है बल्कि आदिवासी पहचान के अस्तित्व के बारे में भी है.

वैसे तो ये पहल महत्वाकांक्षी प्रतीत होती हैं लेकिन मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में आर्थिक कठिनाई, सांस्कृतिक अलगाव और खराब इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण अनुसूचित जनजाति के छात्रों के बीच स्कूल छोड़ने की दर में वृद्धि हुई है.

मातृभाषा में शिक्षा का एनईपी का वादा काफी हद तक अधूरा है, जिससे छात्रों को अपरिचित यानि जिन भाषाओं को वो नहीं जानते उनमें पढ़ाई करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे वे और अधिक अलग-थलग हो जाते हैं.

आदिवासी बहुल जिलों में, छात्र गणित और अंग्रेजी में लगातार खराब प्रदर्शन करते हैं, जो शिक्षा प्रदान करने में प्रणालीगत विफलताओं को उजागर करता है.

ईएमआरएस मॉडल खुद ही ढह रहा है. साल 2018 तक 284 स्कूल स्वीकृत किए गए थे फिर भी केवल 226 ही काम कर रहे हैं. उनमें से कई में शिक्षकों, उचित बुनियादी ढांचे या सांस्कृतिक एकीकरण की कमी है.

आदिवासी बच्चों को सशक्त बनाने के बजाय ये स्कूल उन्हें उनकी जड़ों से अलग करते हैं, उनकी भाषा और पहचान को छीन लेते हैं.

बच्चों को पारंपरिक आभूषण पहनने से मना किया जाता है, उन्हें अपनी आदिवासी भाषा बोलने से हतोत्साहित किया जाता है और उन्हें हिंदुत्व की कहानियों में ढाला जाता है. झारखंड में आदिवासी इस बात का विरोध कर रहे हैं कि ये स्कूल उनके बच्चों को “अपने ही घरों में अजनबी” बना रहे हैं.

यह शिक्षा नहीं है. यह सांस्कृतिक वर्चस्व की राजनीतिक परियोजना है और यह खुलेआम हो रही है. सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि कितने आदिवासी बच्चे अशिक्षित रह जाएँगे. सवाल यह है कि कितने बच्चे बिना किसी पहचान के रह जाएंगे.

और जैसे-जैसे शिक्षा उन्हें उनकी पहचान से अलग करती है, आर्थिक नीतियां उनके सम्मान के साथ जीने की क्षमता को कुचलती रहती हैं.

भूमि पर कब्ज़ा

आदिवासियों के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात उनकी पुश्तैनी ज़मीनों को व्यवस्थित तरीके से छीनना रहा है. जिसे विकास और संरक्षण के नाम पर उचित ठहराया जाता है.

वन्यजीव संरक्षण के नाम पर पूरे समुदाय को बाघ अभयारण्यों से बेदखल किया जा रहा है. फिर भी उन्हीं क्षेत्रों में आलीशान रिसॉर्ट और पर्यटन परियोजनां उभरती हैं, जो संरक्षण नीतियों के पाखंड को उजागर करती हैं.

लक्षद्वीप में जनजातीय भूमि पर गलत तरीके से “सरकारी संपत्ति” होने का दावा किया गया है, और उसे हाई-एंड टूरिज्म इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए उद्योगपतियों को सौंप दिया गया है.

जबकि पारंपरिक मछुआरा समुदाय अपनी आजीविका कॉर्पोरेट समर्थित निजी रिसॉर्ट्स के हाथों खो रहे हैं.

ओडिशा में आदिवासी समुदायों के लिए पवित्र मानी जाने वाली गंधमर्दन पहाड़ियां, स्थानीय जनजातियों के वर्षों के प्रतिरोध के बावजूद खनन निगमों के खतरे में हैं.

सरकार खनन परियोजनाओं को आगे बढ़ा रही है जो पवित्र भूमि को नष्ट कर देंगी, जल स्रोतों को प्रदूषित करेंगी और आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल कर देंगी. यह सब आर्थिक विकास के नाम पर किया जा रहा है जिससे केवल निगमों को लाभ होगा.

पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 यानि पेसा का उद्देश्य आदिवासियों को उनके स्वयं के संसाधनों पर नियंत्रण देकर उन्हें सशक्त बनाना था. लेकिन कई राज्यों में इसके कार्यान्वयन में जानबूझकर देरी की गई और इसे कमजोर किया गया, जिससे यह अप्रभावी हो गया.

साथ ही आदिवासी उप-योजना (TSP) के तहत आवंटित धन, जो विशेष रूप से आदिवासी कल्याण के लिए है. नियमित रूप से गैर-आदिवासी परियोजनाओं में चला जाता है, जिससे महत्वपूर्ण योजनाओं को कम वित्त पोषण मिलता है और आदिवासी और भी हाशिए पर चले जाते हैं.

इस बीच खनन-भारी जनजातीय क्षेत्रों में जनजातीय कल्याण के लिए निर्धारित जिला खनिज फाउंडेशन (DMF) की धनराशि रहस्यमय तरीके से गायब हो गई है. उसका घोर दुरुपयोग किया गया है और इस बारे में बहुत कम पारदर्शिता है कि इसका कितना हिस्सा वास्तव में उन समुदायों तक पहुंचा है जिनके लिए इसे बनाया गया था.

और जब आदिवासी अपनी भूमि की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं तो उन्हें एक और लड़ाई का सामना करना पड़ रहा है और वो अपने सांस्कृतिक अस्तित्व की लड़ाई.

आदिवासियों का हिंदुत्वीकरण

भाजपा का यह दावा कि आदिवासियों को समान नागरिक संहिता (UCC) से बाहर रखा जा रहा है. लेकिन यह एक सावधानीपूर्वक तैयार किए गए धोखे से ज़्यादा कुछ नहीं है.

सरकार सार्वजनिक रूप से आदिवासियों को आश्वासन देती है कि उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं की रक्षा की जाएगी, यह एक साथ एक आक्रामक हिंदुत्व एजेंडे को आगे बढ़ा रही है जिसका उद्देश्य आदिवासी संस्कृतियों को मिटाना है.

यह सांस्कृतिक विनियोग के माध्यम से किया जा रहा है, जहां जनजातीय देवताओं को हिंदू देवताओं के रूप में दोबारा ब्रांड किया जा रहा है और जनजातीय त्योहारों की ब्राह्मणवादी परंपराओं के अनुरूप पुनर्व्याख्या की जा रही है. जिससे उनकी विशिष्ट धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान कमजोर हो रही है.

सरकार की धर्मांतरण की राजनीति इस हमले में एक और परत जोड़ती है. सरना या जीववादी धर्मों का पालन करने वाले आदिवासियों पर हिंदू के रूप में पहचान करने के लिए भारी दबाव डाला जाता है.

जबकि जो लोग ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाते हैं, उन्हें ‘धर्मांतरित’ करार दिया जाता है और कठोर धर्मांतरण विरोधी कानूनों के माध्यम से निशाना बनाया जाता है.

साथ ही राजनीतिक प्रतीकवाद का इस्तेमाल एक धुंआधार आवरण के रूप में किया जाता है – जबकि भाजपा दिखावे के लिए आदिवासी नेताओं को सत्ता के पदों पर बिठाती है.

यह जमीनी स्तर पर आदिवासी स्वायत्तता को कमजोर करती है और वास्तविक निर्णय लेने की शक्ति उन लोगों के हाथों में छोड़ देती है जो आदिवासियों को हिंदुत्व के खेमे में शामिल करना चाहते हैं.

यह संरक्षण नहीं है, यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में आदिवासी पहचान को व्यवस्थित रूप से मिटाना है.

आरएसएस से संबद्ध संगठनों द्वारा संचालित एकल विद्यालय, आदिवासियों के ‘हिंदुत्वीकरण’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जो शिक्षा को आदिवासी पहचान को नया आकार देने और उन्हें हिंदुत्व के दायरे में समाहित करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं.

ये एकल-शिक्षक विद्यालय, जो बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट दान से वित्त पोषित होते हैं, “राष्ट्रीय एकीकरण” की आड़ में दूरदराज के आदिवासी क्षेत्रों में संचालित होते हैं लेकिन उनका असली एजेंडा मूल निवासी ज्ञान प्रणालियों को हिंदू राष्ट्रवादी आख्यान से बदलना है.

जनजातीय रीति-रिवाजों और विश्वासों को व्यवस्थित रूप से मिटा दिया जाता है और बच्चों को हिंदू धार्मिक शिक्षाएं सिखाई जाती हैं, जिससे वे अपनी पारंपरिक संस्कृति से दूर हो जाते हैं.

कई योग्य समुदायों को आदिवासी का दर्जा देने से इनकार करना और वोट बैंक की राजनीति के लिए चुनिंदा रूप से इसे प्रदान करना सरकार के पाखंड को और उजागर करता है.                           

कई विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह (PVTG) अत्यधिक गरीबी और बहिष्कार से पीड़ित हैं, जबकि अन्य को विशुद्ध रूप से राजनीतिक कारणों से मान्यता नहीं दी जाती है.

जनजातीय भाषाओं पर भी हमला हो रहा है. कई देशी भाषाएं अभी भी आठवीं अनुसूची में शामिल होने की प्रतीक्षा कर रही हैं. जिससे प्रभावी रूप से आदिवासियों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और भाषाई नरसंहार में तेजी आ रही है.

आदिवासी नेतृत्व वाले भविष्य की आवश्यकता

आधुनिक विकास, जलवायु परिवर्तन, संसाधनों की कमी और पारिस्थितिकी विनाश की चुनौतियों को उन्हीं शोषणकारी मॉडलों से हल नहीं किया जा सकता है, जिन्होंने उन्हें बनाया है.

आदिवासी, जो सदियों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर रहते आए हैं, एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं. जहां आर्थिक प्रगति जंगल, पानी और ज़मीन की कीमत पर नहीं आती. टूटी हुई व्यवस्था में जबरन समाहित होने के बजाय आदिवासियों को अधिक टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए.

ऐसा होने के लिए आदिवासियों का सम्मान किया जाना चाहिए न कि उन्हें पिछड़ा समझा जाना चाहिए. उनकी संस्कृति और भाषा को पुरातनपंथी माना जाना चाहिए या उनके समुदायों को बर्बरता की रूढ़ियों में बदल दिया जाना चाहिए.

अब समय आ गया है कि सरकार आदिवासियों की उन्नति पर ध्यान दे, उनकी पहचान, भाषा, संस्कृति, आवास या आजीविका को नष्ट किए बिना विकास में उनका उचित हिस्सा सुनिश्चित करे.

राष्ट्र को यह समझना चाहिए कि आदिवासी प्रगति में बाधा नहीं हैं, बल्कि वे इसकी कुंजी हैं. उनकी गहरी समझ, जीवन जीने का टिकाऊ तरीका और प्रकृति के साथ सहजीवी संबंध आधुनिकता के संकटों का समाधान प्रदान करते हैं, और अब समय आ गया है कि देश आदिवासियों से सीखे, न कि उन्हें उनके जीवन के तरीके छोड़ने के लिए मजबूर करे.

अब समय आ गया है कि आदिवासी अपने अधिकारों को सिर्फ़ मतदाता के रूप में ही नहीं, बल्कि एक मज़बूत राजनीतिक ताकत के रूप में भी अपनाएं. सिर्फ़ प्रतीकात्मकता ही काफ़ी नहीं है.

भाजपा और सरकार को आदिवासियों के साथ न्याय करना चाहिए, सिर्फ़ दिखावे से काम नहीं चलेगा. आदिवासियों को सिर्फ़ प्रतिनिधित्व की ज़रूरत नहीं है, उन्हें राजनीतिक और सामाजिक दोनों तरह से सशक्त बनाने की ज़रूरत है.

शासन में उनकी भागीदारी औपचारिक पदों से आगे बढ़नी चाहिए. नीति-निर्माण, भूमि अधिकार, शिक्षा और आर्थिक सुरक्षा में उनकी बात सुनी जानी चाहिए.

वहीं आदिवासियों को जवाबदेही की मांग करनी चाहिए. हम आदिवासी हैं (इस भूमि के मूल संरक्षक) न कि वनवासी (जंगल में रहने वाले) जैसा कि भाजपा ने बताया है, और हमारी आवाज़ को अब अनदेखा नहीं किया जाएगा.

(यह लेख सप्तगिरी शंकर उलाका ने अंग्रज़ी में लिखा है. यहां उस लेख का हिंदी अनुवाद है.)

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