मध्य प्रदेश के गुना में 14 जुलाई, 2024 को देवा पारधी को पुलिस ने उठा लिया. उसी दिन उसकी बारात जानी थी. उसके चाचा को भी चोरी के मामले में गिरफ़्तार किया गया था.
देवा को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गई.
देवा पारधी के परिवार के मुताबिक, “पुलिस ने उन्हें उल्टा लटका दिया, उनके मुंह पर काला कपड़ा बांध दिया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया.”
हालांकि, पुलिस ने कहा कि देवा की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई.
वहीं 13 नवंबर, 2023 को जब गुजरात में लोग अपनी दिवाली की छुट्टियां मना रहे थे, 22 वर्षीय नितिन सांसी अपनी बाइक से कहीं जा रहा था. दाहोद पुलिस को शक हुआ कि वह शराब लेकर जा रहा है और उन्होंने उसका पीछा किया.
उन्होंने उसे चलती बाइक से धक्का दे दिया और वह गिर गया. वह बुरी तरह घायल हो गया. उसे अस्पताल ले जाने के बजाय पुलिस ने उसे पीटा और ब्रेन हैमरेज के कारण उसकी मौके पर ही मौत हो गई.
जब परिवार के सदस्य और सांसी समुदाय के लोग पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज कराने दाहोद पुलिस स्टेशन गए तो पुलिस ने उनकी एफआईआर दर्ज करने के बजाय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत समुदाय के लगभग 400 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली. आज तक पुलिस अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की गई है.
विमुक्त जनजातियों (De-notified Tribes) के खिलाफ क्रूर अत्याचार, बलात्कार, अवैध हिरासत और भीड़ द्वारा हत्या की कई घटनाओं के उदाहरण मिलते हैं.
विमुक्त जनजातियों को औपचारिक रूप से आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 (सीटीए) के कारण “आपराधिक जनजातियों” के रूप में जाना जाता है. अंग्रेज चले गए लेकिन कलंक अभी भी इन जनजातियों को सता रहा है.
दरअसल, अंग्रेजों ने भारत की खानाबदोश जनजातियों के आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए सीटीए (क्रिमिलल ट्राइब्स एक्ट) लागू किया, जो ट्रांसपोर्टर, गायक, नर्तक, कलाबाज, जादूगर और बाजीगर थे.
इस अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने करीब 200 जनजातियों को “जन्मजात अपराधी” के रूप में अधिसूचित किया और उन्हें दंडात्मक बस्तियों में बंद कर दिया, जिन्हें उन्होंने “सुधारात्मक बस्तियां” कहा.
जब भारत को 1947 में स्वतंत्रता मिली तो इस अवसर का जश्न मनाने के लिए कई कैदियों को जेलों से रिहा किया गया. आज़ादी के इस जश्न में कथित “आपराधिक जनजातियां” शामिल नहीं थी. इन जातियों के लोग भारत के कई राज्यों बनाई गई कई “सुधारात्मक बस्तियों” में कैद किया गया था.
1949 में भारत सरकार ने CTA पर अपनी सिफ़ारिशों के लिए अनंतशयनम अयंगर समिति का गठन किया.
अयंगर समिति की सिफ़ारिशों को ध्यान में रखते हुए 31 अगस्त, 1952 को CTA को आखिरकार निरस्त कर दिया गया. इस कानून के निरस्त होने के बाद इन सभी अधिसूचित “आपराधिक जनजातियों” को “विमुक्त” या डीनोटिफ़ाइड (DNTs) कहा जाने लगा.
सरकार ने सैद्धांतिक रूप से क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट को निरस्त कर दिया लेकिन व्यवहार में इसे एच.ओ.ए. (Habitual Offenders Act) द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया.
यही कारण है कि आज भी, ‘आपराधिक जनजाति’ का कलंक उन्हें सता रहा है और उन्हें पुलिस उत्पीड़न, पूछताछ, अवैध हिरासत, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता का सामना करना पड़ रहा है.
इनके विकास या इन पर लगे कलंक को हटाने के लिए कोई एक समान नीति नहीं है. कई आयोग बने लेकिन उनकी रिपोर्ट सरकारी विभागों में धूल फांक रही है.
द अनटचेबल्स की प्रस्तावना में बीआर अंबेडकर कहते हैं, “शूद्रों के अलावा, हिंदू सभ्यता ने तीन सामाजिक वर्गों को जन्म दिया है जिनके अस्तित्व को वह ध्यान नहीं मिला जिसके वे हकदार हैं. ये तीन वर्ग हैं (1) आपराधिक जनजातियां (2) आदिवासी जनजातियां और (3) अछूत.”
दुर्भाग्य से संविधान सभा में “आपराधिक जनजातियों” के बारे में कोई गंभीर बहस नहीं हुई. जब भारत का संविधान लिखा जा रहा था, तब संविधान सभा में “आपराधिक जनजातियों” का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नेता नहीं था.
आजादी के बाद सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट को ख़त्म कर दिया और बंदी बस्तियों से लोगों को मुक्त कर दिया. ले
किन उनके उत्थान के लिए कोई पुनर्वास नीति या संवैधानिक प्रावधान नहीं किया. आज भी उनके विकास या उन्हें कलंकमुक्त करने के लिए कोई समान नीति नहीं है.
हाल ही में केंद्र सरकार ने 12 करोड़ DNT आबादी के लिए 5 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है. यह उनके साथ मजाक ही है… क्योंकि DNT अभी भी अपनी असली आजादी का इंतजार कर रहे हैं और वह है… औपनिवेशिक कलंक, यातना और भेदभाव से मुक्ति.