HomeLaw & RightsCNT में थाना क्षेत्र बाध्यता का खत्म होना: 'सांस्कृतिक विस्थापन' की शुरुआत?

CNT में थाना क्षेत्र बाध्यता का खत्म होना: ‘सांस्कृतिक विस्थापन’ की शुरुआत?

अगर यह निर्णय लागू होता है, तो राज्यभर के किसी भी आदिवासी को, जो आर्थिक रूप से सक्षम है किसी भी जिले या थाना क्षेत्र में आदिवासी भूमि खरीदने का अधिकार मिल जाएगा.

छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (CNT Act), 1908 झारखंड के आदिवासियों की भूमि सुरक्षा की आत्मा है. यह कानून आदिवासियों को न केवल बाहरी ज़मींदारी शोषण से बचाता है, बल्कि उनके सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को भी संरक्षित करता है.

इस कानून की एक प्रमुख धारा यह सुनिश्चित करती है कि आदिवासी भूमि का क्रय-विक्रय केवल एक ही थाना क्षेत्र के आदिवासी समुदायों के भीतर हो ताकि भूमि का नियंत्रण बाहरी ताक़तों या असमान आर्थिक शक्तियों के हाथ न लगे.

अब झारखंड सरकार इस थाना क्षेत्रीय बाध्यता को हटाने पर विचार कर रही है. यदि यह निर्णय लागू होता है, तो राज्यभर के किसी भी आदिवासी को, जो आर्थिक रूप से सक्षम है किसी भी जिले या थाना क्षेत्र में आदिवासी भूमि खरीदने का अधिकार मिल जाएगा.

सरकार की मान्यता है कि यह सुधार ‘आदिवासी समुदायों के बीच व्यापक भूमि सुलभता’ और ‘आर्थिक गतिशीलता’ को बढ़ावा देगा.

यह निर्णय विशेषकर उन आदिवासियों को ध्यान में रखकर लिया गया है, जो एक जिले से दूसरे जिले में जाकर बसते हैं, नौकरी करते हैं या कोई उद्यम करना चाहते हैं. परंतु… नीतिगत मंशा और जमीनी सच्चाई — अक्सर दो अलग-अलग संसार होते हैं.

इस बदलाव के संभावित सकारात्मक पक्ष निम्न गिनाए जा सकते हैं:

1.    स्वतंत्रता और गतिशीलता में वृद्धि – आदिवासी समुदाय के शिक्षित, प्रवासी या व्यावसायिक वर्ग को अब अपने ही राज्य के भीतर भूमि खरीदने की सैद्धांतिक आज़ादी मिल जाएगी.

2.    आंतरिक निवेश और विकास – यदि एक आदिवासी उद्यमी या समूह किसी अन्य जिले में भूमि खरीदकर उद्योग या कृषि स्टार्टअप करना चाहता है, तो वह ऐसा कर पाएगा — बिना कानूनी अड़चनों के.

3.    राज्य के भीतर आदिवासी – आदिवासी लेन-देन को मान्यता यह स्पष्ट कर सकता है कि राज्य की सीमाओं के भीतर आदिवासी समुदायों का आपसी विश्वास और लेन-देन सशक्त है. लेकिन… निहित खतरे कहीं गहरे हैं.

4.   आदिवासी समाज के भीतर वर्गीय विभाजन गहरा होगा – यह निर्णय आदिवासी समाज में एक नया आर्थिक श्रेणीभेद पैदा कर सकता है. जिन आदिवासियों के पास पूंजी होगी जैसे ठेकेदार, नेता, कारोबारी — वे अन्य जिलों की उपजाऊ और सामरिक दृष्टि से लाभकारी जमीनें खरीदेंगे. इस प्रक्रिया में गरीब, हाशिए पर पड़े आदिवासी समुदाय और भी वंचित हो सकते हैं.

5.    कॉर्पोरेट पूंजी का प्रवेश द्वार – यह सबसे गंभीर चिंता है. बड़े कॉर्पोरेट, खनन या रियल एस्टेट कंपनियाँ, जो पहले सीधे आदिवासी भूमि नहीं खरीद सकती थीं. अब “आदिवासी मुखौटों” के माध्यम से हर जिले में ज़मीन हथियाने का नया रास्ता पा जाएँगी.

सरकार का यह फैसला सांस्कृतिक विस्थापन न्योता है. सांस्कृतक विस्थापन का मतलब है समुदाय को उसकी परंपराओं, मान्यताओं, जीवनशैली, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान से धीरे-धीरे या अचानक काट दिया जाता है.

यह केवल भौगोलिक विस्थापन नहीं होता, बल्कि यह उस ‘जड़ से उखाड़ देने की प्रक्रिया’ का नाम है, जो बाहर से नहीं बल्कि कभी-कभी विकास और सुधार के नाम पर भीतर से ही होती है. थाना क्षेत्र की बाध्यता हटाना — सांस्कृतिक विस्थापन का द्वार खोलता है?

1. ग्राम-आधारित जीवन व्यवस्था का विघटन : आदिवासी समाज ‘गांव’ को मात्र भौगोलिक ईकाई नहीं मानता — वह एक जीवित सामाजिक संरचना है, जिसमें हर व्यक्ति की एक भूमिका होती है.

थाना क्षेत्र की सीमा तक भूमि की बिक्री की अनुमति दरअसल इसी संरचना की रक्षा करती है. जब बाहर के लोग, भले ही वे आदिवासी ही क्यों न हों — इस संरचना में दाखिल होंगे, तो यह संतुलन टूटेगा।यह ग्रामसभा की सर्वोच्चता और पारंपरिक ग्राम गणराज्य की सत्ता को धीरे-धीरे कमज़ोर कर देगा.

2. पारंपरिक ‘सामूहिक’ अवधारणाओं का क्षरण : आदिवासी समाज में भूमि एक संपत्ति नहीं, बल्कि साझी विरासत होती है. एक ही जाति या गोत्र के लोगों के बीच भूमि स्थानांतरण भी सामाजिक सहमति से होता है. यदि अब कोई धनिक आदिवासी किसी अन्य क्षेत्र में ज़मीन खरीदता है, तो यह भूमि को वस्तु (commodity) में बदलने की दिशा में पहला कदम होगा — जो पूंजीवादी संस्कृति की घुसपैठ है.

3. भाषा, बोली और परंपरा की टूटती कड़ी :  हर थाना क्षेत्र एक खास बोली, रीति, सामाजिक परंपरा और भूमि उपयोग की पद्धति से जुड़ा होता है. जब कोई बाहरी (चाहे वो आदिवासी हो) उस क्षेत्र में बसता है, तो धीरे-धीरे स्थानीय बोली, त्योहार, रीति और लोकसंस्कृति दबती है.

उदाहरण के लिए: नागपुरी भाषी क्षेत्र में अगर संताली या हो भाषी बड़े पैमाने पर बसते हैं, तो नागपुरी बोली के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होगा.

4. ‘आदिवासी मुखौटे’ के ज़रिए बाहरी हस्तक्षेप : कॉर्पोरेट, खनन कंपनियाँ, बिल्डर लॉबी — सभी को आदिवासी भूमि में रुचि है। वे अब “आदिवासी नामधारी दलालों” के ज़रिए दूसरे ज़िलों में ज़मीन खरीदवाएँगे.  यह एक सांस्कृतिक आक्रमण होगा — नकाब में और यह आक्रमण आदिवासी ही आदिवासी के खिलाफ इस्तेमाल होगा.

5. पारंपरिक न्याय और सामाजिक अनुशासन का विघटन : थाना क्षेत्रीय सीमा सामाजिक अनुशासन और सामाजिक जवाबदेही का भी आधार है. स्थानीय गांव और समुदाय अपने क्षेत्र के भीतर होने वाले विवादों, ज़मीन के झगड़ों और सामाजिक विघटन को लोक व्यवस्था और परंपरा से हल करते हैं.

जब कोई बाहरी व्यक्ति आता है, तो यह तंत्र काम नहीं करता विवाद कानूनी पेचीदगियों में फंसता है, और लोकन्याय की परंपरा दरक जाती है।

6. ‘अजनबीपन’ का स्थायी भाव :  अपने ही राज्य के भीतर जब एक आदिवासी दूसरे क्षेत्र में जाकर ज़मीन खरीदकर बसता है, तो वह वहां ‘स्थानीय नहीं’ होता. वह सामाजिक संबंधों से कटा होता है, लोक-मान्यताओं से अनजान होता है, और उसकी जीवन शैली धीरे-धीरे शहरी-व्यक्तिवादी संस्कृति की ओर झुकती है. यह “अपने में होकर भी अजनबी बन जाना” — सांस्कृतिक विस्थापन का सबसे गहरा रूप है.

यदि यह फैसला बिना व्यापक संवाद, समुदाय की राय, और ग्रामसभाओं की अनुमति के लिया गया तो यह एक प्रकार का ‘भीतर से किया गया विस्थापन’ होगा। भूमि बदलेगी, परंपरा बदलेगी, सोच बदलेगी और अंततः पहचान भी बदल जाएगी. और यही सांस्कृतिक विस्थापन का न्योता है. अबुआ सरकार का यह फैसला किसके लाभ के लिए है?

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