HomeLaw & Rightsआरक्षण के उप-वर्गीकरण के फ़ैसले से आदिवासी इलाकों में आंदोलन की ज़मीन...

आरक्षण के उप-वर्गीकरण के फ़ैसले से आदिवासी इलाकों में आंदोलन की ज़मीन बनेगी

देश की राजनीति में फ़िलहाल संविधान, दलित-ओबीसी-आदिवासी और आरक्षण केंद्र में है. इस स्थिति में आरक्षण में उप-वर्गीकरण का फ़ैसला एक हलचल पैदा करेगा. इसके साथ ही इस फ़ैसले ने एक बार फिर बराबरी और प्रतिनिधित्व के संदर्भ में आरक्षण पर बहस को जन्म दिया है.

क़रीब दो हफ़्ते पहले दिल्ली के रोहणी में अखिल भारतीय जनजाति विकास संघ एक बैठक में शामिल होने का मौका मिला. वैसे इस बैठक को दिल्ली में नौकरी करने वाले अधिकारियों, अध्यापकों और कर्मचारियों का आयोजन भी कहा जा सकता है. 

यह आयोजन मीणा समुदाय के छात्र-छात्राओं के लिए दिल्ली में एक हॉस्टल निर्माण के लिए पैसा एकत्र करने के लिए किया गया था. इस हॉस्टल में मीणा समाज के ग़रीब परिवारों के बच्चे रह कर अलग अलग प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सकेंगे. 

इस कार्यक्रम में जो नेतृत्वकारी लोगों ने समाज से इस हॉस्टल के निर्माण में आर्थिक सहयोग की मांग के साथ कुछ चिंताएं भी ज़ाहिर की थीं. इनमें सबसे बड़ी चिंता अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के भीतर उप-वर्गीकरण का रास्ता खोलने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसले से जुड़ी थीं.

इस चिंता को ज़ाहिर करते हुए यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में यह फ़ैसला दिया गया है उसमें अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के उप-वर्गीकरण का सवाल किया ही नहीं गया था. इस बैठक में मौजूद सभी लोग इस बात से बेहद चिंतत नज़र आ रहे थे.

इस बैठक में मौजूद कई पूर्व आईएएस अधिकारियों ने मीणा समुदाय के लोगों को चेताते हुए कहा कि बेशक सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में केंद्र या राज्य सरकारों को एसटी आरक्षण के उप-वर्गीकरण का आदेश नहीं दिया है. लेकिन इस आदेश में केंद्र या राज्य सरकार को यह छूट दे गई है कि वह चाहे तो उप-वर्गीकरण कर सकती है.

इन लोगों का निष्कर्ष ये है कि राजस्थान और ज़्यादातर राज्य सरकारें इस फ़ैसले को लागू करने में देर नहीं करेंगी. क्योंकि सत्ताधारी दल के लिए संख्या बल ज़्यादा मायने रखता है. इस लिहाज़ से कम से कम राजस्थान में मीणाओं का संख्या बल इतना नहीं है जिसकी चिंता वोटबैंक के तौर पर की जाएगी. 

इस बैठक में महाराष्ट्र में धनगर समुदाय के आरक्षण पाने के लिए चल रहे आंदोलन का भी उदाहरण दिया गया. इस संदर्भ में कहा गया कि धनगर समुदाय अगर एसटी आरक्षण का हक़दार हो जाता है तो पहले से जो अनसूचित जनजातियां सूचि में मौजूद हैं, उनका हिस्सा मारा जाएगा. 

दूसरी तरफ़ राजस्थान से ही भगवती भील आरक्षण के उप वर्गीकरण के पक्ष में लगातार सोशल मीडिया पर लिख रही हैं. भगवती भील एक सामाजिक कार्यकर्ता है जिन्हें राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के साथ मंच पर देखा गया था. 

भगवती भील ‘X’ पर लिखती हैं,” 4% लोग राजस्थान का 12% और केंद्र का 7.5% आरक्षण का लाभ 1956 के बाद से ले रहे हैं. उन्हें कभी देश के आदिवासियों की चिंता नहीं हुई, जो केवल आरक्षण के लिए खुद को आदिवासी कहने लगे हैं वो तय करेंगे की वर्गीकरण होना चाहिए या नहीं. वर्गीकरण तो होगा.”

दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले ने सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उप-वर्गीकरण को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया है. इस फ़ैसले पर ऐसी ही अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली हैं.  

कुछ लोगों ने इस निर्णय का स्वागत किया है, क्योंकि इससे उन दलित और आदिवासी समुदायों को बेहतर प्रतिनिधित्व मिल सकता है, जो SC और ST में भी भेदभाव का सामना करते हैं. 

वहीं इस फ़ैसले की आलोचना भी हो रही है कि यह फ़ैसला दलित और आदिवासी समुदायों के बीच और अधिक विभाजन पैदा करता है . यह चिंता भी ज़ाहिर कि जा रही है कि भारत के हाशिए पर रहने वाले वर्गों के बीच एकजुटता बनाने में बाधा उत्पन्न करता है.

सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला SC और ST में उप-वर्गीकरण को अनिवार्य नहीं बनाता है. यह फ़ैसला पहले के ईवीचिन्नैया बनाम आंध्रप्रदेशराज्य (2005) के फैसले को पलटना है, जिसमें उप-वर्गीकरण को असंवैधानिक बताया गया था।

दूसरा, यह फैसला उप-वर्गीकरण के लिए सीमाएँ निर्धारित करता है. सरकार को यह दिखाना होगा कि उप-वर्गीकरण किसी विशेष SC या ST समुदाय की आवश्यकता के आधार पर किया गया है.

तीसरा, कोर्ट ने ‘क्रीमी लेयर’ पर कोई अनिवार्य निर्देश नहीं दिया है, बल्कि इसे सरकार पर छोड़ दिया है कि वह तय करे कि आर्थिक रूप से समृद्ध SC या ST सदस्यों को आरक्षण से बाहर किया जाना चाहिए या नहीं.

लेकिन इस फ़ैसले की तीनों ही मुख्य बातें राज्य सरकारों को आरक्षण जैसे राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दे पर फ़ैसला लेने का अधिकार देता है. यह मुद्दा संवेदनशील होने के साथ साथ जटिल भी है. 

फ़िलहाल भारत की राजनीति की बहस में संविधान, ओबीसी-दलित-आदिवासी और आरक्षण केंद्र में हैं. सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला इस बहस में एक पेचीदगी पैदा करता है. राजनीतिक दलों को देर-सबेर इस फ़ैसले पर कोई स्पष्ट राय बनानी होगी.

दलित और आदिवासी आरक्षण के उप-वर्गीकरण को सवैंधानिक ठहराने वाले सुप्रीम कोर्ट के जजों के नज़रिये पर भी बहस देखी जा रही है. इस सिलसिले में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी रिसर्च (Vidhi Centre for Legal Policy research) के एन कृष्णमूर्ति ने इकनोमिक पॉलिटिकल विकली (EPW) में एक लेख लिखा है. 

इस लेख में कृष्णमूर्ति कहते हैं कि इस फ़ैसले के दो दृष्टिकोण हैं. पहला दृष्टिकोण, मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ का है. यह दृष्टिकोण आरक्षण को संविधान में निहित “वास्तविक समानता” की प्राप्ति का साधन मानता है. 

यह दृष्टिकोण यह कहता है कि SC और ST में भी कुछ समुदाय अधिक पिछड़े हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है. इसलिए, आरक्षण को इस तरह से लागू करना चाहिए कि यह समान अवसरों की वास्तविकता को साकार करे.

वहीं, न्यायमूर्ति गवई का दृष्टिकोण आरक्षण को ‘प्रतिनिधित्व’ के संदर्भ में देखता है. उनके अनुसार, उप-वर्गीकरण का उद्देश्य SC और ST के बीच बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है. उनका दृष्टिकोण “क्रीमी लेयर” को आरक्षण से बाहर करने की ओर संकेत करता है, जहां समाज के समृद्ध दलित वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए.

हालांकि दोनों ही दृष्टिकोण संवैधानिक उप-वर्गीकरण को सही मानते हैं, लेकिन उनके आरक्षणों की भूमिका पर मतभेद हैं. 

इस लेख में यह बताया गया है कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का दृष्टिकोण आरक्षण को सामाजिक समानता की दिशा में एक कदम मानता है, जबकि न्यायमूर्ति गवई का दृष्टिकोण इसे समाज के विभिन्न वर्गों में संतुलन बनाए रखने का साधन मानता है.

उनके अनुसार इस विभाजन का भविष्य में आरक्षण नीति और संवैधानिक व्याख्या पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है. 

देश में आरक्षण की व्यवस्था और उसका वर्गीकरण मुद्दा नहीं है. लेकिन देश में आज के राजनीतिक हालात में आरक्षण के उप वर्गीकरण की बहस आदिवासी इलाकों में भी कई आंदोलन (समर्थन और विरोध) को जन्म दे सकती है. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments