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लुरकुड़िया: आदिवासी संस्कृति, भाषा और भविष्य

उरांव आदिवासी समुदाय की परंपरागत संस्था धुमकुड़िया को पुनर्जीवित करने के प्रयासों पर देखिये एक ख़ास रिपोर्ट -

मेरले गांव झारखंड के लोहरदगा ज़िले के किस्को प्रखंड में पड़ता है. उरांव आदिवासियों का यह गांव पहाड़ों से घिरा है. शायद यही वजह है जब राज्य में सामान्य से कम बारिश भी होती है तो भी यहां पर इतनी वर्षा हो जाती है कि परिवारों के खाने भर के लिए धान पैदा हो जाता है.

इस गांव की ख़ूबसूरती कुदरत का वरदान है. लेकिन इस गांव के जंगल में एक ऐसा प्रयोग चल रहा है जिसके बारे में सुन के कर इसे देखने और समझने की  जिज्ञासा होती है. 

इस गांव में बुधुवीर लुरकुड़िया नाम की संस्था स्थापित की गई है. इस संस्था उरांव समुदाय के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सिखाया जाता है.

ऐतिहासिक तौर पर “धुमकुड़िया” नाम की संस्था, उरांव आदिवासी समाज में यह भूमिका निभाती रही है.  लेकिन यह संस्था धीरे धीरे समय के साथ लुप्त होती चली गई. इसके साथ उरांव समाज की कई परंपराएं भी विलुप्ति की कगार पर आ गईं.

उरांव समुदाय की इस परंपरागत संस्था को बचाने के लिए कुछ व्यक्तिगत प्रयास हो रहे हैं जिन्हें समाज का समर्थन भी प्राप्त हो रहा है.

लेकिन इसे धुमकुड़िया की बजाए ‘लुरकुड़िया’ कहा जा रहा है. तो पहली जिज्ञासा तो यही होती है कि ‘धुमकुड़िया’ की बजाए ‘लुरकुड़िया’ शब्द का इस्तेमाल क्यों हो रहा है. 

इस बारे में इस लुरकुड़िया के संस्थापक संजीव भगत कहते हैं, “लुरकुड़िया हमारी कुडख भाषा का शब्द है. अगर इसे हिंदी में अनुवाद करें तो इसका मतलब होता है जहां पर ज्ञान दिया जाता है. इसे विद्यालय भी कहा जा सकता है.”

वे आगे कहते हैं, “धुमकुड़िया को आप प्राथमिक पाठशाला कह सकते हैं. लुरकुड़िया आगे की पढ़ाई का केंद्र है. जहां परंपरागत ज्ञान के साथ आधुनिक शिक्षा भी दी जाती है.”

लुरकुड़िया शब्द के बारे में यह माना जाता है कि साल 1998 से अधिक प्रचलन में आया है. यह बताया जाता है कि इस साल जब गुमला में  लुरकुड़िया नाम के संस्थान की स्थपाना हुई तो यह शब्द स्थापित हो गया.

वैसे कुडुख भाषा के जानकार यह बताते हैं कि यह शब्द भाषा में मौजूद था और इसका इस्तेमाल भी होता रहा है. लेकिन साल 1998 के बाद यह शब्द स्थापित हो गया. 

इस मामले में भी ज़्यादातर जानकार एकमत हैं कि धुमकुड़िया को ही आज के युग में लुरकुड़िया कहा जा रहा है. इनमें फ़र्क ये है कि धुमकुड़िया में सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां चलती थीं, जबकि लुरकुड़िया स्कूली शिक्षा को कहा जा सकता है.

बुद्धु वीर लुरकुड़िया में छात्र अपनी मातृभाषा के साथ साथ विज्ञान, गणित और अन्य विषयों की पढ़ाई कर रहे हैं. लेकिन देश या राज्य की जो शिक्षा व्यवस्था है उसके तहत किसी भी शिक्षण संस्थान को सरकार से मान्यता प्राप्त होना एक अनिवार्य शर्त होती है.

इसलिए यहां पढ़ने वाले छात्रों के माता-पिता की एक चिंता यह भी हो सकती है कि यहां पर पढ़ाई के बाद क्या उनके बच्चे उच्च शिक्षा यानि कॉलेज के लिए पात्र होंगे.

इस लुरकुड़िया के संस्थापकों का कहना है कि वे इस संस्था को सरकार से मान्यता दिलाने का प्रयास भी कर रहे हैं.

लोहरदगा के एक छोटे से आदिवासी गांव में एक बड़ा सपना हक़ीकत में बदल रहा है. इस कोशिश को समाज का समर्थन और भरोसा दोनों की ज़रुरत है.

इस मामले में मेरले गांव की लुरकुड़िया के संचालकों को कामयाबी मिल रही है. लेकिन इस संस्थान को चलाने और आगे बढ़ाने के लिए एक वित्तीय मॉडल की ज़रूरत भी है.

क्योंकि यह संस्थान जहां स्थापित किया गया है वहां परिवारों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं हैं. एक सशक्त वित्तीय मॉडल ना होने की सूरत में अच्छे उद्देश्य के साथ शुरू किए गए संस्थानों को भी बचाना मुश्किल हो सकता है.

मेरले लुरकुड़िया के संस्थापक ने इस बात का ध्यान रखा है और उन्होंने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसका बोझ ना तो सिर्फ़ समुदाय पर पड़े और ना ही छात्रों के परिवार पर पड़े.

इस लुरकुड़िया को एक बात जो इसे अन्य अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों से अलग बनाती है कि यहां आधुनिक शिक्षा के साथ उरांव समुदाय की संस्कृति, परंपरा और भाषा को बचाने का काम हो रहा है.

लेकिन इस काम में भी कई चुनौतियां है. मसलन आदिवासी परंपरा, संस्कृति या भाषा से जुड़े लिखित दस्तावेज़ कम ही मिलते हैं. 

उरांव आदिवासी समुदाय की परंपार के साथ आधुनिक स्कूली शिक्षा के मिश्रण के साथ स्थापित लुरकुड़िया में मातृभाषा में पढ़ाई की जाती है, लेकिन इस भाषा की स्क्रिप्ट पर विवाद रहा है.

यह एक ऐसा पहलू है जो एक चुनौती पेश करता है. लेकिन इसके बावजूद मातृभाषा को बचाने के प्रयासों में लुरकुड़िया का एक बड़ा योगदान हो सकता है. क्योंकि कम से कम यहां पर उस भाषा में संवाद तो हो ही रहा है.

इस वजह से अध्यापकों और छात्रों के बीच भाषाई दिवार नहीं रहती है. 

लुरकुड़िया में हमने एक और बात देखी जो किसी अन्य स्कूल में कभी नज़र में नहीं आई. यहां दिवारों पर आदिवासी अधिकारों और संविधान के प्रावधानों के बारे मे जानकारी लिखी गई थी. 

उरांव आदिवासी परंपरा के साथ साथ आधुनिक ज्ञान से लैस अपने अधिकारों के प्रति जागरुक नागरिक तैयार करने में लुरकुड़िया नाम की इस संस्था का योगदान हो सकता है.  

उरांव आदिवासी समुदाय की भाषा, संस्कृति और इतिहास को बचाने की चिंता करने वालों के लिए लुरकुड़िया का प्रयोग एक राहत और हौसला देने वाला कदम है.

इस पहल के ज़रिये जिस तरह से परंपरा और आधुनिक ज्ञान का मेल करने की कोशिश है वह क़ाबिले तारीफ़ है. यह एक ऐसा संस्थान हो सकता है जो अखड़ा और धुमकुड़िया दोनों परंपरागत संस्थानों के लुप्त हो रही चिंताओं का जवाब बन सकता है.

लेकिन इस कोशिश की कामयाबी के लिए संसाधनों की ज़रूर भी है. इसके साथ ही इस पहल से जुड़ी आशंकाओं को दूर करने के लिए भी समुदाय के आर्थिक और सामिजक समर्थन और सहयोग की ज़रुरत होगी…..

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