छत्तीसगढ़ के जशपुर में पहाड़ी कोरवा परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली है. इस परिवार के चार लोगों के शव रविवार सुबह पेड़ से लटके हुए मिले थे. इस दर्दनाक घटना का सबसे दुखद पहलु ये है कि मृतकों में दो बच्चे भी शामिल है. आशंका है कि बच्चों को फांसी से लटकाने के बाद पति-पत्नी ने भी फंदे से लटककर अपनी जान दे दी.
ग्रामीणाों की सूचना पर पहुंची पुलिस ने शवों को नीचे उतरवाकर पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया है. पहाड़ी कोरवा, को विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) के तौर पर वर्गीकृत किया गया है.
इस समुदाय में सामूहिक आत्महत्या की यह पहली घटना बताई जा रही है. जानकारी के मुताबिक, घटना बगीचा थाना क्षेत्र के सामरबहार पंचायत की है. यहां की झूमराडूमर बस्ती में राजुराम कोरवा अपनी पत्नी भिनसारी बाई और दो बच्चों चार साल की बेटी देवंती व एक साल के बेटे देवन राम के साथ रहता था.
चारों सदस्यों के शव घर के बाहर अमरूद के पेड़ से फांसी पर लटके हुए मिले हैं. बगीचा थाना के सब इंस्पेक्टर एमआर साहनी ने बताया कि, अभी तक आत्महत्या के कारणों का पता नहीं चल सका है.

यह घटना अफ़सोसनाक से ज़्यादा शर्मनाक है
भारत में कुल 705 आदिवासी समूहों को औपचारिक तौर पर मान्यता दी गई है. यानि भारत में इतने छोटे-बड़े आदिवासी समुदायो को अनुसूचित जनजाति की सूची में जगह मिली है. इनमें से 75 आदिवासी समुदायों को पीवीटीजी (Particularly Vulnerable Tribes) के तौर पर अलग से पहचान दी गई है.
पहाड़ी कोरवा इन्हीं 75 आदिवासी समुदायों में से एक है. बल्कि यह समुदाय उन पीवीटीजी में गिना जाता है जिनके अस्तित्व को ही ख़तरा है. अगर हालात नहीं बदले तो कुछ ही साल बाद इन आदिवासियों के बारे में हम लिख पढ़ रहे होंगे कि कैसे एक आदिवासी समुदाय देखते देखते विलुप्त हो गया.
मै भी भारत की टीम ने छत्तीसगढ़ और झारखंड में पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के साथ कुछ समय बिताया है. हमने यह पाया कि यह आदिवासी समुदाय सामाजिक तौर पर बिखर रहा है. इस समुदाय में परिवार लगातार टूट रहे हैं. पहाड़ी कोरवा बस्तियों में पहली नज़र में चारों तरफ ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी फैली हुई नज़र आती है.
इस समाज की लड़कियों का यौन शोषण और हत्याओं की ख़बरें सिरहन पैदा नहीं करती हैं. क्योंकि इन बस्तियों के आस-पास के लोगों के लिए इस समुदाय के बारे में इस स्थिति को नॉर्मल मान लिया गया है.
लेकिन इस पूरी कहानी में सरकार या शासन की भूमिका बेहद शर्मनाक है. सरकार ने इन आदिवासियों को एक बेहतर जिंदगी देने के वादे के साथ एक जगह पर बसा दिया. लेकिन सरकार यह भूल गई कि यह समुदाय जो सदियों से जंगल में खाने की तलाश में यहां से वहां घूमने का आदि है, वह स्थाई जीवन के तौर तरीकों से वाकिफ नहीं है. इसलिए उन्हें लंबे समय तक सपोर्ट की ज़रूरत होगी.
यह मान लिया गया कि उन्हें राशन और जीने की कुछ न्यूनतम सुविधाएं दे कर उन्हें मुख्यधारा का हिस्सा बना लिया जाएगा.
ऐसा भी नहीं है कि सरकार को पहाड़ी कोरवा या ऐसे ही देश के कई आदिवासी समदुायों के बारे में सही सही जानकारी नहीं है. 2014 में प्रोफेसर खाखा कमेटी की रिपोर्ट में विस्तार से इन समुदायों के मसलों पर जानकारी दी गई है. लेकिन इस रिपोर्ट पर अभी तक तो कोई कार्रावाई नहीं हुई है.