देश के अलग अलग हिस्सों में आदिवासी अपनी पैतृक भूमि से जबरन बेदखली के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. उनकी ज़मीन को अब बाघ अभयारण्य (Tiger reserve) घोषित कर दिया गया है.
जबकि वन और पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ता मूल निवासियों को वनों के सच्चे संरक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं. उनके अनुसार वन्यजीव संरक्षण के समाधान में समुदाय की भागीदारी ज़रूरी है.
लेकिन इस अवधारणा के उल्टा बाघ संरक्षण के नाम पर आदिवासी समुदायों को उन जंगलों से जबरन हटाया जा रहा है, जहां वे पीढ़ियों से रहते आए हैं.
ये बेदखली करीब 4 लाख आदिवासियों को प्रभावित कर रही है, जो अब अपने घरों और विरासत की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं.
नागरहोल, काजीरंगा, उदंती-सीतानदी, राजाजी और इंद्रावती जैसे प्रमुख बाघ अभयारण्यों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. प्रदर्शनकारी सरकार द्वारा अवैधानिक कार्रवाई को तत्काल रोकने की मांग कर रहे हैं.
भारत में करीब 3 हज़ार बाघ हैं, जो 75,000 वर्ग किलोमीटर के जंगल में फैले 53 बाघ अभयारण्यों में फैले हैं. हालांकि ये अभयारण्य बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं लेकिन इनकी वजह से लोगों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है.
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, 1972 से अब तक भारत सरकार ने 50 बाघ अभयारण्यों के 751 गांवों से 56,247 परिवारों को बेदखल किया है.
हाल ही में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने राज्य के वन्यजीव अधिकारियों को इन बेदखली में तेज़ी लाने के लिए कहा है. NTCA की योजनाएं RTI अनुरोध के ज़रिए सामने आईं, जिसमें जुलाई में इसके निदेशक के पत्र सार्वजनिक किए गएय
इस खुलासे ने मूल निवासी समूहों में रोष पैदा कर दिया है, जिनका कहना है कि उनकी ज़मीन को संरक्षित क्षेत्रों में बदलने से पहले उनसे कभी सलाह नहीं ली गई और अब उन्हें अपने घरों से जबरन निकाला जा रहा है.
इसके जवाब में हज़ारों आदिवासी विरोध में इकट्ठे हुए हैं. अकेले नागरहोल टाइगर रिजर्व में 700 से ज़्यादा लोगों ने रिजर्व के गेट पर प्रदर्शन किया.
लोगों ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि एनटीसीए हमारी भूमि पर अतिक्रमण कर रहा है. हम कभी भी अपने घर छोड़ने के लिए सहमत नहीं हुए. ये बेदखली तुरंत बंद होनी चाहिए.
देश भर में करीब 4 लाख मूल निवासी लोगों को इन जबरन निष्कासनों के कारण अपने घरों को खोने का ख़तरा है.
आलोचकों का तर्क है कि ये बेदखली राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों कानूनों का उल्लंघन करती है. 2006 का वन अधिकार अधिनियम मूल निवासी समुदायों को अपनी पैतृक भूमि पर बने रहने का अधिकार देता है जब तक कि वे स्थानांतरित होने के लिए सूचित सहमति न दें.
कानूनी सुरक्षा के बावजूद बाघ संरक्षण प्रयासों का समर्थन करने वाले बड़े संरक्षण संगठन जबरन बेदखली के मुद्दे पर चुप रहे हैं. इन संगठनों का तर्क है कि लुप्तप्राय बाघों की रक्षा के लिए मूल निवासी लोगों को स्थानांतरित करना जरूरी है.
सर्वाइवल इंटरनेशनल की डायरेक्टर कैरोलीन पीयर्स ने एक प्रेस नोट में कहा, “भारतीय अधिकारी संरक्षण के पुराने, औपनिवेशिक मॉडल का पालन कर रहे हैं. यह दृष्टिकोण गलत तरीके से मूल निवासी लोगों को वन्यजीवों के लिए ख़तरा मानता है. जबकि वास्तव में वे इन पारिस्थितिकी तंत्रों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मूल निवासी लोगों और बाघों को जीवित रहने के लिए एक-दूसरे की ज़रूरत है.”
आलोचकों ने इन बेदखलियों के पीछे वित्तीय हितों की ओर भी इशारा किया है. एक बार जब मूल निवासी लोगों को हटा दिया जाता है तो बाघ अभयारण्य अक्सर आकर्षक इको-टूरिज्म डेस्टिनेशन बन जाते हैं, जो भारत के बढ़ते पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देते हैं.
जबकि संरक्षण और सह-अस्तित्व के उदाहरण मौजूद हैं. केरल के पेरियार टाइगर रिजर्व में आदिवासी वन्यजीवों की रक्षा के लिए वन अधिकारियों के साथ मिलकर काम करते हैं, जो दर्शाता है कि सहयोग संभव है.
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने मूल निवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा के उल्लंघन का हवाला देते हुए इन बेदखलियों की निंदा की है.
वैश्विक स्तर पर मूलनिवासी समुदायों को संरक्षण के नाम पर विस्थापन का सामना करना पड़ता है लेकिन अनुसंधान से लगातार पता चलता है कि जब मूलनिवासी लोगों द्वारा प्रबंधन किया जाता है तो वन अधिक स्वस्थ होते हैं और वन्यजीवन अधिक फलता-फूलता है.