राणा पूंजा भील का नाम भारतीय इतिहास में बहादुरी और निष्ठा का प्रतीक है. वे भील जनजाति के एक ऐसे अदम्य साहसी योद्धा थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए खुशखुशी अपने जीवन का बलिदान दे दिया.
आइए जानते हैं इस महान योद्धा की पूरी कहानी और कैसे उन्हें ‘राणा’ की उपाधि मिली
प्रारंभिक जीवन और भील जनजाति से जुड़ाव
राणा पूंजा का जन्म सोलहवीं शताब्दी में 5 अक्टूबर को राजस्थान के मेरपुर गांव में हुआ था.
वे एक ऐसे भील परिवार का हिस्सा थे जिसे अपने साहस, स्वाभिमान और संगठन शक्ति के लिए जाना जाता था. उनके पिता होलंकी मेरपुर के मुखिया थे और उनकी माता का नाम केहरी बाई था.
पिता की मृत्यु के बाद चौदह वर्ष की छोटी-सी आयु में राणा पूंजा को मेवाड़ की मेरपुर रियासत का मुखिया बना दिया गया.
कम उम्र में ही पूंजा ने अपनी नेतृत्व क्षमता से सबका दिल जीत लिया. उन्होंने अपनी जनजाति यानि भील आदिवासियों को संगठित किया और अपनी साहसी नीतियों से वे पूरे मेवाड़ में लोकप्रिय हो गए.
कैसे मिली ‘राणा’ की उपाधि
अपनी वीरता और संगठनात्मक क्षमता के कारण उन्हें पूरे मेवाड़ में जाना जाने लगा. ऐसे में जब 1576 में मेवाड़ पर मुगल आक्रमण का संकट छाया तब महाराणा प्रताप ने पूंजा भील का सहयोग मांगा.
इस कठिन समय में उन्होंने मेवाड़ के साथ खड़े होने का फैसला किया. उन्होंने माहराणा प्रताप को वचन दिया कि वे और मेवाड़ के सभी भील मुगलों से लड़ने के लिए और मेवाड़ की रक्षा करने के लिए तत्पर हैं. इसके बाद माहाराणा प्रताप ने उन्हें अपना भाई कहकर गले लगा लिया.
राणा पूंजा ने ही अपनी पूरी भील सेना को महाराणा प्रताप के साथ युद्ध में हिस्सा लेने के लिए संगठित किया.
महाराणा प्रताप ने उनकी निष्ठा, बहादुरी और संगठनात्मक क्षमता को देखते हुए उन्हें ‘राणा’ की उपाधि से सम्मानित किया.
हल्दीघाटी युद्ध में राणा पूंजा की भूमिका
1576 का हल्दीघाटी युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. इस युद्ध में राणा पूंजा भील और उनकी सेना ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उपयोग करके मुगलों को कड़ी चुनौती दी.
भीलों की वीरता और युद्ध नीतियों ने मुगलों को जीतने नहीं दिया.
राणा पूंजा की सेना ने न सिर्फ हल्दीघाटी में मुगलों का सामना किया बल्कि इसके बाद भी कई वर्षों तक मेवाड़ की रक्षा के लिए संघर्ष किया.
राणा पूंजा की विरासत
राणा पूंजा भील का नाम भारतीय इतिहास में वीरता और निष्ठा का प्रतीक बन चुका है.
राणा पूंजा और उनके साथियों के योगदान को सम्मान देने के उद्देश्य से ही मेवाड़ के राजचिन्ह में एक ओर राजपूत और दूसरी ओर भील प्रतीक अपनाया गया है.
राणा पूंजा ने न केवल भील जनजाति का सम्मान बढ़ाया बल्कि एक महान देशभक्त के रूप में भारत के इतिहास में अमर हो गए.
उनकी वीरता, संगठनात्मक क्षमता और देशभक्ति आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.
उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सही नेतृत्व और निष्ठा से कठिन से कठिन चुनौतियों का सामना किया जा सकता है.