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छत्तीसगढ़: दो दशक में विस्थापित आदिवासियों के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनी

8 जनवरी को NCST के साथ हुई बैठक में तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उनके पास इस जनजातीय पलायन का कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है.

छत्तीसगढ़ में माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष और हिंसा के कारण 2005 में हजारों आदिवासी परिवारों को अपना घर छोड़ना पड़ा.

वे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा के जंगलों में बस गए. लेकिन सरकार को इन आदिवासियों की सही सही संख्या पता नहीं है.

अब इस बात को दो दशक बीत चुके हैं लेकिन इन विस्थापित आदिवासियों की घर वापसी या पुनर्वास के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनी है.

सटीक आंकड़ों का अभाव

जनवरी 2025 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा की सरकारों से इन विस्थापित आदिवासियों की सही संख्या का सर्वेक्षण करने को कहा है.

8 जनवरी को हुई बैठक में इन राज्यों के अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उनके पास इस जनजातीय पलायन का कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है.

अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने कहा है कि अगली कार्रवाई तय करने के लिए विस्थापित जनजातीय लोगों की संख्या और इन राज्यों में उनके स्थानों की पहचान करना महत्वपूर्ण है. 

एनसीएसटी ने छत्तीसगढ़ सरकार को निर्देश दिया है कि वह इस काम के लिए एक नोडल ऑफिसर नियुक्त करे. इस नोडल ऑफिसर की ज़िम्मेदारी चारों पड़ोसी राज्य की सरकारों के साथ समन्वय करना होगा.

आयोग ने कहा कि इन राज्यों से आंकड़े प्राप्त करने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार एक रिपोर्ट तैयार करके उसे आगे की कार्रवाई के लिए एनसीएसटी को सौंपे.

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को मार्च 2022 में एक याचिका मिली थी जिसमें 2005 में  माओवादियों और भारतीय सुरक्षा बलों के बीच हुई हिंसा से बचने के लिए कई गुट्टीकोया आदिवासी पड़ोसी राज्यों में भागने को मजबूर हो गए थे. ये आदिवासी अब वहां कठिनाईयों का सामना कर रहे हैं.

आदिवासी अधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं ने कई बार इस मुद्दे को उठाया, लेकिन अब तक कोई व्यापक सर्वेक्षण नहीं हुआ.

आंकड़ों के अभाव में राहत और पुनर्वास योजनाएं भी अधर में लटकी हैं.

आदिवासी संगठनों का अनुमान है कि करीब 50,000 लोग इस हिंसा के कारण छत्तीसगढ़ से पलायन कर चुके हैं. वे पडोसी चार राज्यों के जंगलों की 248 बस्तियों में बसे हैं.

आदिवासियों की ज़मीन छीनने की रिपोर्ट्स

कुछ रिपोर्ट्स में यह भी दावा किया गया था कि तेलंगाना सरकार ने कम से कम 75 आदिवासी बस्तियों की ज़मीन वापस ले ली है.

आयोग को मिली शिकायतों में यह भी कहा गया था कि वन विभाग के अधिकारियों ने उनकी झोपड़ियां गिरा दीं और फसलें नष्ट कर दीं.

इस पर नवंबर 2022 में आयोग ने तेलंगाना के भद्राद्री कोठागुडेम जिले के कलेक्टर से जवाब मांगा था. सितंबर 2023 में कलेक्टर की रिपोर्ट में आरोपों को नकार दिया गया और विस्थापित आदिवासियों पर जंगल की ज़मीन पर अतिक्रमण करने का आरोप लगाया था.

क्यों नहीं मिलते इन्हें वन अधिकार?

वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत आदिवासियों को वन भूमि पर अधिकार मिलना चाहिए लेकिन राज्य सरकारें इन विस्थापितों को बाहरी मानकर उनके अधिकारों को नकार देती है.

तेलंगाना प्रशासन का कहना है कि क्योंकि ये लोग छत्तीसगढ़ से आए हैं इसलिए वे तेलंगाना की अनुसूचित जनजाति की सूची में नहीं आते और उन्हें वन अधिकार नहीं दिए जा सकते.

घर लौटना चाहते हैं या नहीं?

सरकार का कहना है कि इन विस्थापित परिवारों को छत्तीसगढ़ लौटने के लिए योजनाएं बनाई गई लेकिन वे लौटने को तैयार नहीं हैं.

केंद्रीय जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री दुर्गादास उइके ने जुलाई 2024 में एक सवाल के जवाब में राज्यसभा को बताया था कि छत्तीसगढ़ सरकार ने विस्थापित जनजातीय परिवारों की पहचान के लिए तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के पड़ोसी जिलों में सर्वेक्षण करने के लिए टीमें गठित की हैं.

संसद में बताया गया था कि छत्तीसगढ़ सरकार ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सर्वे किया है. उस सर्वे में  10,489 विस्थापित आदिवासी पाए गए थे.

इनमें 9,702 लोग सुकमा, 579 बीजापुर और 208 दंतेवाड़ा के थे.

आदिवासी विकास और पुनर्वास के मामलों में बार बार यह देखा गया है कि सरकार के पास जनसंख्या या अन्य ज़रूरी आंकड़े ही मौजूद नहीं हैं.

देश की विशेष रुप से कमज़ोर आदिवासी समुदायों के लिए शुरू की गई पीएम जनमन योजना के समय भी सरकार ने यह माना था कि उसके पास इन आदिवासियों की सही सही जनसंख्या या गांवों की संख्या के आंकड़े मौजूद नहीं हैं.

इसी तरह से 20 साल बीत गए हैं लेकिन अभी छत्तीसगढ़ सरकार के पास हिंसा की वजह से पलायन को मजबूर हुए आदिवासियों की संख्या का कोई सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

ज़ाहिर है जब ज़रूरी आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं तो पुनर्वास और कल्याण की योजनाएं बनाना और उन्हें लागू करना संभव नहीं है.

उम्मीद है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति का इस मामले में ताज़ा हस्तक्षेप प्रभावी साबित होगा.

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