जुलाई महीने का आख़िरी सप्ताह चल रहा था. लेकिन अभी तक बारिश नाम मात्र को हुई थी. झारखंड में हमारी क़रीब 400-500 किलोमीटर की यात्रा पूरी हो चुकी थी. यहाँ के हर गाँव-हाट में लोगों में सूखे की चिंता दिखाई दे रही थी.
आज हम गुटी बेड़ा नाम के गाँव में पहुँचे थे. यह गाँव पहाड़ी चोटी (Hill Top) पर बसा है. लेकिन यहां भी उमस और ग़र्मी से राहत नहीं थी. कोई पत्ता तक नहीं हिल रहा था. इस बोझिल मौसम में साग की तलाश में गांव की औरतों के साथ जंगल के लिए निकलना था.
इसके अलावा जंगल में इस मौसम में पेड़ों के अलावा ज़मीन पर घनी घास हो जाती है. जिसकी वजह से साँप के काटने का डर रहता है. लेकिन जब गाँव की कई महिलाएँ हमें जंगल ले जाने को तैयार थीं तो हम ना नहीं कह सके थे.
गाँव से हमारे साथ लछिया, पगड़ी, टूटिन और झुपरी और उनकी कुछ और साथी निकलीं. रास्ते में इनकी कुछ और सहेली टकरा गई तो उन्हें भी इन्होंने साथ ले लिया था. इन सभी औरतों ने अपने नाम के साथ बड़े गर्व से पहाड़िन जोड़ कर बताया था.

दरअसल यह सौरिया पहाड़िया आदिवासियों का गाँव हैं. इस आदिवासी समुदाय को विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) की श्रेणी में रखा गया है. सौरिया पहाड़िया जनजाति के बारे में कहा जाता है कि उसकी आबादी लगातार कम हो रही है.
ख़ैर यह एक मसला है जिस पर कभी फिर बात हो सकती है. लेकिन आज एक बार फिर एक गाँव की आदिवासी औरतें हमें अपने साथ जंगल ले जा रही थीं. हमें यह देखने का अवसर मिला था कि आदिवासी समुदाय में घर के लिए खाना जुटाने की ज़िम्मेदारी निभाने में औरतों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है.
इन औरतों में से ज़्यादातर हम से बात करने में शर्मा रही थीं. लेकिन एक बुजुर्ग औरत टूटी फूटी हिंदी में हम से खूब बातें कर रही थीं. वो काफ़ी बातूनी थीं. उन्होंने अपनी दाईं आँख दिखाते हुए कहा कि उस आँख से उन्हें दिखाई नहीं देता है.
मैंने देखा कि उनको मोतियाबिंद हुआ है. मैंने उनसे कहा, “इसका तो मामूली सा ऑपरेशन होता है और आँख ठीक हो जाती है.” वो थोड़ा सा हंस दी और बोली, “कौन हमें शहर ले कर जाएगा और ऑपरेशन करवाएगा ?”
गाँव से निकलते ही जंगल की चढ़ाई शुरू हो गई थी और अब हमारे पसीने छूटने लगे थे. क़रीब दो किलोमीटर की चढ़ाई के बाद हम लोग जंगल में दाखिल हो गए. हमारे साथ चल रहे ग्रुप में से दो औरतें जंगल में दो तरफ़ निकल गईं.
इन दोनों को ही उस पेड़ का आईडिया था जिसकी कोपल हम साग के लिए लेने आए थे. कुछ देर में वह पेड़ मिल गया जिस पर कोपल आई थीं. कुछ औरतें साग तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ गईं और बाक़ी हमारे साथ गप्प लगाने लगीं.
अब लगभग सभी औरतें हम से खुल कर बात करने में सहज हो गईं थीं. उनमें से एक ने पूछा (शायद झुपरी थी) कि तुम दिल्ली से आए हो, कैसी ही दिल्ली? मैंने उनसे कहा कि कैसे बताऊँ कि दिल्ली कैसी है? फिर मैंने उनसे कहा, “आप चलो दिल्ली मेरे साथ, ख़ुद ही देख लेना कैसी है दिल्ली?”
“चलेंगी” मैंने उन्हें थोड़ा भरोसा दिलाते हुए कहा. “अकेली थोड़ी चल दूँगी, इन सब को भी ले चलो साथ तो चलूँ.” झुपरी ज़ोर से ठहका लगा देती है. उसकी सारी साथी भी कहती हैं, “हाँ हाँ चलेंगे.” मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि उनके गाँव की शिखा नाम की लड़की भी उनके साथ चलेगी. इससे उन्हें विश्वास हो गया था कि मैं शायद गंभीरता से यह बात कह रहा हूँ.
वह बोलीं, “ठीक है पहले घर चलते हैं दूसरे कपड़े पहनते हैं और फिर चलते हैं.” फिर उनमें से एक कहती हैं, “शाम तक तो वापस गाँव आ जाएँगे ना?” मैं थोड़ी देर कुछ नहीं बोल पाया था. फिर मैंने उनसे कहा कि शाम तक तो हम राँची भी नहीं पहुँच पाएँगे, आने की तो बात दूर की है.

“आपको आने-जाने और दिल्ली देखने के लिए कम से कम एक सप्ताह का टाइम तो लग जाएगा.” यह सुन कर वो सारी औरतें बड़ी अचंभित थीं और उन्होंने एक सुर में कहा कि एक सप्ताह के लिए वो नहीं जा सकती हैं. फिर वो हंसती हैं और अपनी कुछ और बातें करने लगती हैं.
मैंने उन्हें टोकते हुए पूछा कि इस जंगल में क्या रखा है. वे लोग दिल्ली नहीं जाना चाहते ना जाएँ पर कम से कम साहेबगंज तो जा सकते हैं जहां सरकार उन्हें घर बना कर देने को तैयार है. इस पर वो औरतें थोड़ा नाराज़ होते हुए बोलती हैं, यहाँ हमारे खेत हैं, जंगल है, नीचे हमें क्या मिल जाएगा.
हमारे पुरखों की ज़मीन है यहाँ हमारे देवी देवता बसते हैं. हम अपनी भाषा बोलते हैं, एक दूसरे की दुख-सुख की कहते हैं. वहाँ हमें कौन खाने को देगा. वहाँ के लोग तो हमें पागल समझते हैं.
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि वहाँ पर बड़ा बाज़ार है, अस्पताल है स्कूल है. इस पर वो थोड़ा और नाराज़ हो जाती हैं. वो कहती हैं, “बड़े बाज़ार में हमें कौन पूछता है, देखो हमारी जेब में एक पैसा नहीं है. हमें बाज़ार में जा कर क्या करना है.”
उसके बाद उनमें से एक औरत बोलती है (इस बार टूटिन बोली थी) कि हमारे खेतों में जबरन खुदाई की जा रही है. अब बात बिलकुल बदल गई थी.
उन्होंने मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर समझना लिया था कि मैं थोड़ा डीटेल में जानना चाहता हूं कि वो कह क्या रही हैं. उन्होनें समझाते हुए कहा, “हमारे खेतों से पत्थर खोदा जा रहा है. आपने रास्ते में देखा होगा कि पहाड़ भी काटा जा रहा है. “
मैने उनसे पूछा कि क्या उनकी मर्जी के बिना उनके खेत से पत्थर निकाला जा रहा है. इस पर वो कहती हैं, “ हमें पत्थर का पैसा मिलता है. लेकिन वो एक बीघा लीज़ पर लेते हैं और कई बीघे में पत्थर खोदते रहते हैं. आप-पास के जंगल के पहाड़ को भी खोद लेते हैं.”
वो कहती हैं कि उन्हें गांव के कुछ लोग अपनी ज़रूरत के लिए ज़मीन पत्थर खुदाई के लिए देते हैं. लेकिन ठेकेदार खेत के आस-पास के पहाड़ों का पत्थर पर निकाल लेते हैं. इस तरह से तो हमारा जंगल ही खत्म हो जाएगा.
जंगल में इन औरतों से बात करते हुए मेरे मन के कई सवालों का जवाब मुझे मिल रहा था. इनमें पहला जवाब था कि बेशक पहाड़ के दुर्गम है और ज़िंदगी आसान नहीं है. फिर भी जंगल और पहाड़ आदिवासी को जीने का साधन देता है.
दूसरा जवाब था कि आदिवासी इन पहाड़ों में सुरक्षित महसूस करता है. उसे लगता है कि उसकी संस्कृति, पुरखे और देवी देवता सब यहां पर सुरक्षित हैं.
जबरन विस्थापन और आदिवासी की जिंदगी
आदिवासियों को ज़बरदस्ती उनके परिवेश से विस्थापित करने के परिणाम उस समुदाय के लिए ख़तरनाक देखे गए हैं. 2018 में एक ग़ैर सरकारी संस्था (Sama Resource Group for Women and Health) ने झाऱखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में एक स्टडी की थी.
इस स्टडी में बताया गया है कि आदिवासियों में स्वास्थ्य की ख़राब हालत और सामाजिक और राजनीतिक मामले में उनका निचला स्थान काफी हद तक विस्थापन से ही जुडा है.
उनकी ज़मीन का अधिग्रहण, जंगल पर नियंत्रण खो देना और विकास परियोजनाओं के लिए विस्थापन आदिवासियों को हासिय पर धकलने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं.

विस्थापन और जंगल से दूर होने पर आदिवासी आबादी का पोषण और जीवन दोनों ही ख़तरे में पड़ जता है. ख़ासतौर से विशेष रूप से पिछड़े या आदिम जनजातियों के लिए स्थिति बेहद मुश्किल बन जाती है.
देश के विकास के लिए खनिज और ज़मीन की मांग लगातार बढ़ रही है. इसका सीधा असर आदिवासी आबादी पर पड़ता है. मसलन भारत के कुल कोयला भंडार का 70 प्रतिशत झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में है.
इसी तरह से 80 प्रतिशत हाईग्रेड का लोहा, 60 प्रतिशत बॉक्साइट और सारा क्रोमाइट इन राज्यों में है. इस खनिज की ज़रूरत उद्योग को है.
इसलिए आदिवासी इलाकों में विस्थापन सबसे अधिक है. इसके अलावा रिजर्व फॉरेस्ट से भी आदिवासियों पर जंगल से बाहर आने का दबाव लगातार बना रहता है.
छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य का मामला अभी चल ही रहा है. यहां पर एक बड़े उद्योग घराने को कोयला खनन की अनुमित दिए जाने के बाद आदिवासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटकी हुई है.
उसी तरह से ओडिशा के मयूरभंड में हमने इसी साल के शुरूआती महीने में देखा कि वहां कई आदिम जनजाति समुदायों को जंगल में घुसने से रोक दिया गया था.
वन विभाग ने इन आदिवासियों पर आरोप लगाया था कि जंगल में लगी आग के लिए वही ज़िम्मेदार थे. अफ़सोस की बात ये है कि विस्थापित होने वाले आदिवासी के पुनर्वास का इंतज़ाम ठीक नहीं किये जाते हैं.