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आदिवासी समुदायों में बेटियों को पिता की संपत्ति में हक देने के सवाल से समाज क्यों कतराता है?

9 दिसंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह बेहद अफ़सोस की बात है कि संविधान लागू होने के 70 साल बाद भी आदिवासी परिवारों में बेटी को पिता की संपत्ति में बराबर का हक़ नहीं मिलता है. कोर्ट ने कहा कि जब देश में अन्य समुदायों और धर्मों में बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हक दिया गया है तो फिर आदिवासी बेटियों को इस अधिकार से वंचित क्यों रखा गया है? इस सवाल पर आदिवासी विद्वान और नेता क्या कहते हैं, झारखंड से एक ग्राउंड रिपोर्ट

9 दिसंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह बेहद अफ़सोस की बात है कि संविधान लागू होने के 70 साल बाद भी आदिवासी परिवारों में बेटी को पिता की संपत्ति में बराबर का हक़ नहीं मिलता है. कोर्ट ने कहा कि जब देश में अन्य समुदायों और धर्मों में बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हक दिया गया है तो फिर आदिवासी बेटियों को इस अधिकार से वंचित क्यों रखा गया है?

अदालत ने कहा कि इस सवाल में संविधान की धारा 14 और 21 में नागरिकों को दिए गए बराबरी का अधिकार भी जुड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर गंभीर टिप्पणी की हैं. इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट फरियादी को यानि उस आदिवासी महिला को पिता की संपत्ति के एवज में मिले मुआवाजे में हिस्सा नहीं दिला सका. 

इसकी वजह है कि देश में ऐसा कोई कानून मौजूद नहीं हैं जिसके तहत अदालत ऐसा आदेश जारी कर सकती थी. इसलिए कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि वह हिन्दू उत्तराधिकार कानून आदिवासी समुदायों पर भी लागू करने के बारे में विचार करे.

हांलाकि सुप्रीम कोर्ट यह जानता है कि ऐसा करना आसान नहीं है. क्योंकि संविधान में आदिवासी समुदायों की संस्कृति, भाषा और कस्टमरी लॉ यानि परंपरागत कानूनों को संरक्षित करने के लिए प्रावधान किया गया है. सरकार भी राजनीतिक कारणों से इस तरह के मामले को टालना ही बेहतर समझेगी. 

लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस चिंता को नज़रअंदाज़ तो किया जा सकता है, खारिज नहीं किया जा सकता है. हाल ही में हमें आदिवासी बहुल राज्य झारखंड जाने का अवसर मिला तो यह सवाल हमने वहां पर कई कानून के विद्वानों और समुदाय के नेताओं के सामने रखा. 

विद्वान और समुदाय के नेता क्या कहते हैं

इस मसले पर हमने नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ (national university of study and research in Law) के असिस्टेंट प्रोफेसर रामचंद्र उरांव कहते हैं, “आज की तारीख में जो भी आधुनिक कानून बने हैं उन सभी की शुरुआत तो कस्टमरी लॉ के तौर पर ही हुई थी. आज जो आधुनिक हिन्दू कोड या फिर मुसलमानों के लिए शरीयत है, ये सब प्रथाओं और परंपराओं के आधार पर ही बने कानून हैं. लेकिन ये सभ परंपराएं या प्रथाएं अब कानून बन चुकी हैं. लेकिन आदिवासी प्रथाएं या कस्टमरी लॉ अभी भी कोडिफाइड नहीं है.”

आदिवासी समुदायों के कस्टमरी लॉ में क्या किसी बदलाव की गुंजाईश है या फिर ये प्रथाएं और परंपराएं बहस या बदलाव से उपर हैं, इस सवाल के जवाब में रामचंद्र उरांव कहते हैं, “किसी भी कस्टम यानि परंपरा या प्रथा में बदलाव की गुंजाइश या ज़रूत से तो इंकार नहीं किया जा सकता है. अगर कोई कस्टम अनैतिक काम को बढ़ावा देता है मसलन एक समय मे देव दासी की प्रथा थी या फिर सती प्रथा थी, ऐसी किसी प्रथा को तो बदला ही जाना चाहिए. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि प्रथा या परंपरा तार्किक होनी चाहिए.”

आदिवासी परिवारों में बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हक दिये जाने के सवाल पर अदालत की चिंता पर भी हमने उनकी राय मांगी. इस सवाल पर उनका कहना था, “इस तरह का यह पहला मामला नहीं है, पहले भी मधु किशवर बनाम बिहार सरकार केस हो चुका है. उस समय भी यह बात आई थी कि यह आर्टिकल 14 और 21 का उल्लंघन है. क्योंकि छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (CNT Act) का सेक्शन 7 और 8 कहता है कि संपत्ति का उत्तराधिकारी पुरूष सदस्य ही होगा. उस समय की ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल से इस मसले पर सलाह मांगी गई थी. लेकिन कुल मिला कर इस मसले को ठंडे बस्ते में रख दिया गया था.”

रामचंद्र उरांव कहते हैं, “इस पूरे मसले की जड़ में आदिवासियों को अपनी ज़मीन खो जाने का डर है. आदिवासी समुदाय को लगता है कि अगर महिलाओं को ज़मीन में हिस्सा दिया गया तो फिर समुदाय से ज़मीन निकल कर दूसरे समुदायों के हाथ में जा सकती है. ऐसी कुछ घटनाएं हुई भी हैं जब आदिवासी महिलाओं का इस्तेमाल कर आदिवासियों की ज़मीन हड़पी गई है. इस तरह की घटनाएं आदिवासी समुदायों को इस मामले में और डरा देता है.”

हमने यह पाया कि आदिवासी समुदाय में ज़्यादातर विद्वान या समुदाय के नेता इस सवाल पर किसी तरह की कोई बहस ही नहीं चाहते हैं. मसलन जब हमने चाईबासा में मानकी मुंडा व्यवस्था में मुंडा यानि एक तरह से ग्राम के सामजिक मुखिया से यह सवाल पूछा तो उनका कहना था कि मानकी मुंडा और दूसरे आदिवासी समुदायों की व्यवस्था में महिलाओं के अधिकारों का पूरा ख्याल रखा गया है.

उनके अनुसार जब तक बेटी पिता के घर पर रहती है उसको बाप की संपत्ति में पूरा अधिकार है. इसके अलावा अगर बेटी विधवा हो गई है तो उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने पिता के घर लौट आए. इस अवस्था में उसे भरण पोषण के लिए ज़मीन दिए जाने का प्रवाधान है. 

इसी तरह से उरांव समुदाय में बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्से का अधिकार देने के सवाल पर भी समुदाय के नेता कहते हैं कि यह प्रासिंगक नहीं है.

मसलन रांची में रहने वाले उरांव समुदाय के एक नेता रवि तिग्गा कहते हैं, “आदिवासी समुदायों के परंपरागत कानूनों में महिलाओं को अन्य समाजों की तुलना में ज्यादा अधिकार हासिल हैं. उनके भरण-पोषण का भी पूरा ख्याल रखा गया है.”

क्या बदलाव संभव है

आदिवासी परिवार में बेटी को पिता की संपत्ति में बराबरी का अधिकार देने के सवाल पर फिलहाल आदिवासी समुदाय विचार करने को तैयार नज़र नहीं आता है. इसमें सबसी बड़ी बाधा उसका ज़मीन के साथ मजबूत रिश्ता और ज़मीन खो जाने का डर है. लेकिन आदिवासी समुदाय के विद्वान और नेता भी कस्टमरी लॉ में कुछ बदलाव की बात को बुरी नहीं मानते हैं. 

जैसा प्रो रामचंद्र उरांव ने कहा कि आदिवासी प्रथाओं और परंपराओं को अभी तक कोडिफाई नहीं किया जा सका है. इसलिए भी इन सभी सवालों पर अदालतों के हाथ बंधे रहेंगे. लेकिन उन्होंने ही बताया कि असम सहित देश के कई राज्यों में इस दिशा में अच्छा काम हो रहा है.

लेकिन बदलाव का रास्ता लंबा, पचीदा और कठिन है. 

सरकार भी तीन तलाक़ को ख़त्म करने जैसे किसी कदम से इस मामले में बचेगी. क्योकि वह जानती है कि ऐसे किसी कदम का उसे भारी राजनीतिक नुकसान होगा. 

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