HomeAdivasi Dailyझारखंड में आदिवासियों की जमीन पर मंदिर और इसके पीछे की राजनीति

झारखंड में आदिवासियों की जमीन पर मंदिर और इसके पीछे की राजनीति

हाल ही में राज्य सरकार में पूर्व मंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) नेता हेमलाल मुर्मू ने एक सार्वजनिक बैठक में आरोप लगाया कि आदिवासियों की जमीन पर दावा करने और उसे हड़पने के लिए राज्य भर में कई जगहों पर भगवान हनुमान की मूर्तियां बनाई जा रही हैं.

एक मूर्ति की तस्वीर 19 सितंबर की रात से सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर शेयर की गई. जिसमें बिरसा मुंडा – धरती आबा (पृथ्वी के भगवान) को भगवान गणेश के रूप में चित्रित किया गया है.

ये तस्वीरें गुजरात के नर्मदा जिले के राजपिपला नगरपालिका क्षेत्र की हैं. जहां 19 सितंबर को गणेश चतुर्थी के अवसर पर एक पूजा पंडाल के अंदर कथित तौर पर भगवान गणेश की मूर्ति में बिरसा मुंडा की छवि झलक रही थी. यानि गणेश जी की मूर्ति को बिरसा मुंडा की तरह धोती, पगड़ी पहनाई गई थी और हाथ में धनुष-बाण थमा रखा है. कई आदिवासी कार्यकर्ताओं ने इसकी आलोचना की है.

गुजरात के भरूच में रहने वाले आदिवासी कार्यकर्ता राज वसावा कहते हैं, “भगवान गणेश को धनुष-बाण लिए हुए बिरसा मुंडा के रूप में चित्रित किया जाना पूरे देश के आदिवासियों का अपमान है.”

उन्होंने कहा, “हम इसके पीछे का सटीक उद्देश्य नहीं जानते हैं लेकिन यह बिरसा मुंडा और हमारी प्रकृति-पूजक विश्वास प्रणाली का हिंदूकरण करने का प्रयास जैसा लगता है. यह अच्छी तरह से जानने के बावजूद कि आदिवासियों का एक अलग धर्म है.”

प्रफुल्ल वसावा, अनिल वसावा और राजपीपला नगर परिषद के पूर्व अध्यक्ष महेश वसावा सहित गुजरात के अन्य आदिवासी कार्यकर्ताओं ने भी अपनी नाराजगी व्यक्त की है. उनका कहना है कि भगवान गणेश और बिरसा मुंडा का ऐतिहासिक रूप से कोई संबंध नहीं रहा है.

वहीं जिस पंडाल में यह मूर्ति रखी गई है वह राजपीपला नगर पालिका के वार्ड नंबर 2 के अधिकार क्षेत्र में आता है. इस वार्ड की 23 वर्षीय पार्षद ऋचा वसावा, जो कि खुद एक आदिवासी हैं. वो मूर्ति का समर्थन करती हैं.

ऋचा ने कहा, “जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वे बिरसा मुंडा के बारे में कुछ नहीं जानते हैं. भले ही भगवान गणेश को आदिवासी पोशाक पहने हुए चित्रित किया गया है लेकिन मूर्ति का उद्देश्य बिरसा मुंडा जैसा नहीं है. मूर्ति में कोई खराबी नहीं है. हालांकि मैं सभी आदिवासियों की तरह प्रकृति की पूजा करती हूँ लेकिन मैं सभी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करती हूँ और सभी त्योहार मनाती हूँ.”

गणेश चतुर्थी से शुरू होने वाले 10 दिवसीय उत्सव का आयोजन करने वाली पंडाल समिति में आदिवासी भी शामिल हैं.

ऋचा वसावा का कहना है कि भले ही राजपीपला में पहली बार भगवान गणेश को आदिवासी पोशाक में दिखाया गया है लेकिन इससे पहले भी गुजरात के अन्य हिस्सों और मेट्रो शहरों में भी इसी तरह की मूर्तियां पंडालों में रखी गई हैं.

झारखंड के आदिवासी समुदाय, जो अपने प्रकृति-पूजा स्थलों पर मंदिरों के निर्माण के लिए कथित तौर पर ज़मीनों को हड़पने का मुद्दा उठा रहे हैं. उन्होंने भी इस मामले पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है. गुजरात की मूर्ति के सुर्खियों में आने के बाद राज्य में एक बार फिर ये बहस सामने आ गई है.

झारखंड स्थित लेखिका और पत्रकार जैकिंटा केरकेट्टा का मानना है कि मंदिरों के निर्माण के लिए आदिवासियों के पूजा स्थलों और मूल भूमि पर कब्जा करके उन्हें ‘हिंदूकरण’ करने का प्रयास किया जा रहा है.

हाल ही में राज्य सरकार में पूर्व मंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) नेता हेमलाल मुर्मू ने एक सार्वजनिक बैठक में आरोप लगाया कि आदिवासियों की जमीन पर दावा करने और उसे हड़पने के लिए राज्य भर में कई जगहों पर भगवान हनुमान की मूर्तियां बनाई जा रही हैं.

रांची से महज 40 किलोमीटर दूर बुंडू अनुमंडल के अदलहातु गांव में एक सूर्य मंदिर है. जो रांची-टाटानगर राजमार्ग पर स्थित है. मंदिर की नींव 1991 में रखी गई थी. उस समय, आदिवासी समुदाय ने पद्म श्री रामदयाल मुंडा के नेतृत्व में मंदिर निर्माण के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया था.

60 वर्षीय लेखिका और झारखंड महिला आयोग की पूर्व सदस्य वासवी किरो, जो प्रदर्शनकारियों में से एक थीं. वो कहती हैं, “जिस जगह पर आज सूर्य मंदिर है वह वास्तव में संयुक्त स्वामित्व वाली मुंडा भूमि है. इसे गैर-आदिवासियों की बात तो दूर है ओरांव जनजाति को भी नहीं सौंपा जा सकता. इस भूमि पर मंदिर का निर्माण छोटा नागपुर किरायेदारी अधिनियम के अनुच्छेद 240 का स्पष्ट उल्लंघन है.”

यह ज़मीन चंडी सिंह मुंडा की थी, जिस पर झारखंड के एक धनी और प्रभावशाली परिवार से आने वाले पवन मारू और आरएसएस ने कब्ज़ा कर लिया था.

वासवी किरो कहती हैं, “मुंडा से एक सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाए गए जिसके बाद जमीन पर से उनका अधिकार हटा दिया गया. हालाँकि आदिवासी देवता सिंगा बोंगा के लिए एक मंदिर बनाने का वादा किया गया था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ उसकी जगह एक मंदिर बना दिया गया. इससे मुंडा-बहुल क्षेत्र में हिंदू संस्कृति के प्रसार का मार्ग प्रशस्त हुआ.”

वहीं रांची के तमाड़ निर्वाचन क्षेत्र में देवरी मंदिर पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की लगातार यात्राओं के बाद लोकप्रिय हो गया. जबकि पूरा तमाड़ क्षेत्र आदिवासी बहुल है. आदिवासी बुद्धिजीवी रामदयाल मुंडा का पैतृक गांव भी इसी क्षेत्र में पड़ता है.

मंदिर के बारे में बात करते हुए मुंडा के बेटे और शोधकर्ता 32 वर्षीय गुंजल इकिर मुंडा कहते हैं, “देवरी एक आदिवासी देवी है. पहले उस जगह पर सिर्फ एक चट्टान थी. आदिवासी पीढ़ियों से इसकी पूजा करते आ रहे हैं. बाद में यहां एक मंदिर का निर्माण किया गया और इसके बाद यहां हिंदू बड़ी संख्या में आने लगे. आख़िरकार उन्होंने मंदिर पर स्वामित्व का दावा किया.”

1970 में मालिकाना हक के विवाद की सुनवाई कोर्ट में हुई.

गुंजल कहते हैं, “अदालत के फैसले में कहा गया है कि मुंडा पाहन (पुजारी) सप्ताह में छह दिन पूजा कर सकते हैं और एक दिन हिंदू पुजारियों को पूजा का हक दिया गया. यह एक जबरन समझौता जैसा लग रहा था. आदर्श रूप से इसे मुंडा समुदाय को सौंप दिया जाना चाहिए था.”

वो कहते हैं मंदिर के निर्माण का आदिवासियों की प्रकृति-पूजा प्रथाओं साथ ही उनकी संस्कृति और भाषा पर प्रभाव पड़ा. उन्होंने कहा कि रांची के आसपास पहाड़ी, हरमू और अरगोड़ा जैसे कई हिंदू मंदिर आदिवासी पूजा स्थलों से जुड़े हुए हैं.

वहीं देवरी मंदिर का इतिहास बताते हुए किरो कहती हैं, ”तमाड़ और बुंडू मुंडा क्षेत्र थे. देवरी एक मुंडा देवी है और ऐसा माना जाता है कि वह गांवों और लोगों की रक्षा करती है. क्योंकि आदिवासियों में महिलाओं की पूजा की जाती है इसलिए उन्हें देवी का प्रतीक माना जाता है.”

किरो कहती हैं कि लगभग 150 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में ब्राह्मणों का आगमन शुरू हुआ. एक ब्राह्मण शिक्षक, जगदीश त्रिगुणायत ने अपनी किताबों मुंडा लोक कथाएँ और बांसुरी बज रही में लिखा है कि शेखर नामक एक ब्राह्मण ने विभिन्न गांवों में रहने वाले मुंडाओं को राम और सीता की कहानियाँ सुनाना शुरू किया.

वो आगे कहती हैं, “इन देवताओं ने फिर मुंडा पंथ में प्रवेश किया और पुजारियों ने हिंदू अनुष्ठान करना शुरू कर दिया. बाद के वर्षों में देवरी मंदिर कई आदिवासी परंपराओं के लिए मौत की घंटी साबित हुआ.”

उनका दावा है कि झारखंड में एक दर्जन से अधिक मंदिर, जिनमें संथाल परगना में मलूटी मंदिर और रामगढ़ जिले में रजरप्पा मंदिर शामिल हैं. वो आदिवासी पूजा स्थलों को प्रतिस्थापित या नष्ट करके बनाए गए हैं.

किरो इस बात पर जोर देती हैं कि भगवान गणेश को बिरसा के रूप में चित्रित करना आदिवासियों के सरना धर्म को सनातन या हिंदू परंपरा में समाहित करने की राजनीति का हिस्सा है.

उन्होंने कहा, “अगर आज सोशल मीडिया के युग में वे बिरसा को भगवान गणेश के रूप में चित्रित करने का साहस कर सकते हैं तो 200 साल पहले आदिवासी गांवों और विश्वास प्रणालियों पर कब्ज़ा करना उनके लिए कितना आसान होगा. आज लगभग हर आदिवासी गांव में मंदिर बनाए जा रहे हैं, जागरण (हिंदू धार्मिक कार्यक्रम) आयोजित किए जा रहे हैं और प्रकृति की पूजा और संरक्षण की सरना परंपराओं, चाहे वे मुंडा, संथाल, हो या ओरांव समुदाय से हों उनको हाईजैक किया जा रहा है.”

आरएसएस पर बार-बार आदिवासियों के ‘हिंदूकरण’ का आरोप लगाया गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए आरएसएस से जुड़े संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम को जिम्मेदार ठहराया जाता है.

समूह की 14 इकाइयाँ पूरे भारत में आदिवासियों के बीच काम कर रही हैं. इनमें से एक समूह, जनजाति सुरक्षा मंच, झारखंड में सक्रिय है और इसके क्षेत्रीय संयोजक संदीप ओरांव स्वीकार करते हैं कि आदिवासी पूजा स्थलों पर अन्य धर्मों ने कब्जा कर लिया है और यह जारी है.

संदीप ओरांव कहते हैं, “यह सभी धर्मों द्वारा किया जा रहा है लेकिन सिर्फ हिंदुओं और उनके मंदिरों पर ही सवाल क्यों उठाए जाते हैं? आदिवासियों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले मुस्लिम और ईसाई समुदायों का विरोध क्यों नहीं किया जा रहा है? हालाँकि, मैं इस बात से सहमत हूँ कि आदिवासी प्रकृति-पूजा स्थलों को उनकी मूल स्थिति में ही छोड़ दिया जाना चाहिए. उनमें किसी भी तरह का बदलाव या हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए.”

काफी लंबे समय से भाजपा और आरएसएस से जुड़े संगठन आदिवासियों को हिंदू बताते हैं. लेकिन आदिवासियों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो खुद को हिंदू नहीं मानता है. इनमें झारखंड के आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा है. ये आदिवासी खुद को ‘सरना धर्म’ का बताते हैं.

सरना यानी वो लोग जो प्रकृति की पूजा करते हैं. झारखंड में सरना धर्म मानने वालों की बड़ी संख्या है. ये लोग खुद को प्रकृति का पुजारी बताते हैं. ये किसी मूर्ति की पूजा नहीं करते हैं. ऐसे में इनपर हिंदू धर्म और मूर्ति पूजा थोपना कहां तक सही है..

(प्रतिकात्मक तस्वीर)

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