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बुलेट ट्रेन का सपना आदिवासियों के भविष्य की क़ीमत पर पूरा होगा ?

जिन पंचायतों ने ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास किया है उसमें धामण गाँव भी शामिल है. यहाँ के वामपंथी नेता रमेश भीवाघुटे कहते हैं कि जब तक पंचायत की शर्तें नहीं मानी जाती हैं, आदिवासी ज़मीन से नहीं हटेंगे. वो कहते हैं कि तलासरी (शहरी इलाक़ा) में एक गुंठा का ढाई लाख रूपया मुआवज़ा दिया जा रहा है. यहाँ की ज़मीन का एक गुंठे की क़ीमत 35 हज़ार लगाई जा रही है. क्या हमारी ज़मीन और उनकी ज़मीन में कोई फ़र्क़ है?

हाल ही में The National High Speed Railway Corporation ने बुलेट ट्रेन के काम से जुड़ा वीडियो जारी किया है. इस वीडियो में देखा जा सकता है कि बुलेट ट्रेन पर तेज़ी से काम चल रहा है. लेकिन इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में ज़रूरत से ज़्यादा समय लग रहा है.

अब  NHRCL ने दावा किया है कि बुलेट ट्रेन का काम जल्दी ही पूरा कर लिया जाएगा. उम्मीद है कि 2027 तक बुलेट ट्रेन पटरी पर दौड़ रही होगी. उम्मीद पर दुनिय कायम है और यह उम्मीद करना कोई बुरी बात नहीं है कि बुलेट ट्रेन देर सबेर पटरी पर दौड़ेगी.

लेकिन एक ऐसा मसला है जिसने गोली की गति से चलने वाली इस ट्रेन का रास्ता रोक रखा है. इस मसले पर संसद के बजट सत्र में रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने कुछ रोशनी डाली थी.  उन्होने संसद को बताया किया कि मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना यानि बुलेट ट्रेन के लिए 89 प्रतिशत ज़मीन का अधिग्रहण हो चुका है.

इसके साथ ही उन्होंने लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया कि बुलेट ट्रेन परियोजना में देरी की वजह महाराष्ट्र में ज़मीन अधिग्रहण में आ रही दिक़्क़त  है. उन्होंने कहा कि कोविड महामारी भी इस प्रोजेक्ट में देरी की एक वजह बनी है.

उनके जवाब से जानकारी मिलती है कि बुलेट ट्रेन के लिए क़रीब 1396 हेक्टेयर भूमि की ज़रूरत है. इसमें से क़रीब 1248 हेक्टयर भूमि का अधिग्रहण हो चुका है. इस परियोजना के रास्ते में खड़े सबसे बड़े मसले के बारे में रेल मंत्री ने बताया कि महाराष्ट्र के पालघर ज़िले की पाँच ग्राम पंचायतों ने बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन देने से मना कर दिया है.

इन ग्राम पंचायतों ने अधिग्रहण के ख़िलाफ़ ग्राम सभा में प्रस्ताव पास किया है. रेल मंत्री ने बताया कि इन ग्राम सभाओं के विरोध की वजह से महाराष्ट्र में अभी तक बुलेट ट्रेन के लिए ज़रूरी भूमि का सिर्फ़ 68 प्रतिशत  यानि क़रीब 297.81 हेक्टेयर भूमि का ही अधिग्रहण हो सका है.

रेल मंत्री ने बताया कि NHRCL यानि The National High Speed Railway Corporation लगातार गांव को लोगों को भूमि देने के लिए समझा रहा है. कॉरपोरेशन यहां के ग्रामीणों को बुलेट ट्रेन के फ़ायदे बता रहे हैं और इसके साथ ही उन्हें अच्छा मुआवज़ा और पुनर्वास का प्रस्ताव दिया गया है.

बुलेट ट्रेन परियोजना में हो रही देरी पर यह सरकार का पक्ष है. इसे सुन कर ऐसा लगता है कि ग्रामीणों की नासमझी की वजह से बुलेट ट्रेन और फिर उसी क्रम में देश का विकास अटका हुआ है.

लेकिन जिन गांवों ने अपनी ज़मीन नहीं देने का प्रस्ताव पास किया है, उनका का क्या कहना है? इन गांवों में कौन लोग रहते हैं? आख़िर इन गांवों के लोग भारी मुआवजे और पुनर्वास पैकेज के बावजूद ज़मीन क्यों नहीं देना चाहते हैं ?

29 मार्च को हम लोग पालघर ज़िले के विक्रमगढ़ शहर में थे. यहाँ पर मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में आदिवासी प्रदर्शन कर रहे थे. बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन अधिग्रहण के विरोध में प्रस्ताव पास करने वाली ग्राम पंचायतें पालघर ज़िले की  ही हैं.

यह ज़िला आदिवासी बहुल ज़िला है और जिन गाँवों की ज़मीन अधिग्रहण हो रहा है वो आदिवासियों के गाँव हैं. इस प्रदर्शन में मौजूद नेताओं ने पालघर में बुलेट ट्रेन ही नहीं बल्कि ज़मीन और पानी को लेकर भी आदिवासी संगठित हो कर लड़ते रहे हैं.

यहाँ के आदिवासी बताते हैं कि पिछले 60 साल से आदिवासियों के जंगल, ज़मीन और पानी की लड़ाई निरंतर जारी है. इस संघर्ष में कुछ जीत हासिल हुई है और बाक़ी के लिए संघर्ष चला रहा है.

इस सिलसिले में नया संघर्ष बुलेट ट्रेन के लिए आदिवासियों की ज़मीन अधिग्रहण का भी जुड़ गया है. ये तो बात रही एक राजनीतिक दल की जो इस लड़ाई का नेतृत्व कर रहा है. 

इस मसले को और थोड़ा क़रीब से समझने के लिए हम पालघर ज़िले की डहाणू तहसील की धामण ग्राम पंचायत पहुँचे. इस ग्राम पंचायत ने बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास किया है.

इस पंचायत में तीन रेवन्यू गाँव आते हैं. इस गाँव में ज़्यादातर वारली आदिवासी गाँव आते हैं. ग्रामसभा के प्रस्ताव के बावजूद इन गाँव के लोगों को व्यक्तिगत तौर पर प्रशासन नोटिस भेज रहा है.

इस नोटिस में उनसे ज़मीन अधिग्रहण की सहमति माँगी जा रही है. जब लोगों को पता चला कि हम इस गाँव में घूम रहे हैं तो कई परिवारों के लोग जमा हो गए. इन लोगों से हमने पूछा की मसला क्या है, बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन के बदले सरकार पैसा दे रही है, तो फिर विरोध क्यों ?

धामण ग्राम पंचायत के निवासी अंकुश भीवाहाड़ी ने अपने परिवार को मिला नोटिस हमें दिखाया. वो काफ़ी नाराज़गी भरे लहजे में बात कर रहे थे. हमें उन्हें समझना पड़ा कि हम सरकार की वकालत करने यहाँ नहीं आए हैं.

उनकी दो शिकायतें थीं, पहली शिकायत वो बताते हैं कि बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन लेने के प्रस्ताव के समय बोला गया था कि एक गुंठा ज़मीन का कम से कम 1.75 लाख मुआवज़ा दिया जाएगा. लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ 35 हज़ार रूपया ऑफ़र किया जा रहा है.

इसके अलावा ज़मीन के अधिग्रहण से संबंधित जो नोटिस भेजे गए हैं उसमें मालिक कोई और है और ज़मीन पर क़ब्ज़ा किसी और का है. इस सिलसिले में ज़िला प्रशासन से भी कोई स्पष्टीकरण नहीं मिल रहा है.

इस इलाक़े की जिन पंचायतों ने ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास किया है उसमें धामण गाँव भी शामिल है. यहाँ के वामपंथी नेता रमेश भीवाघुटे कहते हैं कि जब तक पंचायत की शर्तें नहीं मानी जाती हैं, आदिवासी ज़मीन से नहीं हटेंगे.

वो कहते हैं कि तलासरी (शहरी इलाक़ा) में एक गुंठा का ढाई लाख रूपया मुआवज़ा दिया जा रहा है. यहाँ की ज़मीन का एक गुंठे की क़ीमत 35 हज़ार लगाई जा रही है. क्या हमारी ज़मीन और उनकी ज़मीन में कोई फ़र्क़ है?

बुलेट ट्रेन के लिए जितनी ज़रूरी वो ज़मीन है उतनी ही ज़रूरी हमारी ज़मीन भी तो है.

इसके अलावा वो कहते हैं कि पंचायत ने फ़ैसला किया है कि जिन परिवारों की ज़मीन अधिग्रहित की जा रही है, उस परिवार के कम से कम एक आदमी को सरकार नौकरी का वादा दे.

रमेश भीवाघुटे कहते हैं कि आदिवासी इलाक़ों में अगर लोगों को ज़मीन के बदले में पैसा मिल भी जाता है तो ज़िंदगी में कोई ख़ास बदलाव नहीं आएगा. बल्कि परिवारों के बर्बाद होने की आशंका ज़्यादा होगी.

वो कहते हैं कि हम आदिवासियों को पैसा मिलेगा तो घर बना लेंगे या फिर ब्याह शादी में लगा देंगे. हमें तो दुकान चलाना या व्यापार करना नहीं आता है. इसलिए आदिवासी को जीने के लिए ज़मीन की ज़रूरत होती है.

इस गाँव की कई औरतों से भी हमारी बातचीत हुई. इन औरतों का कहना था कि पहले भी प्रशासन के लोग यहाँ पर आए थे. हमें बुलेट ट्रेन के फ़ायदे गिनवाने के लिए बैठक की गई थी. लेकिन आप ही हमें समझाओ की आदिवासी बुलेट ट्रेन में कभी बैठ सकता है क्या ?

औरतों की एक टोली ने हमें घेर लिया और कई सवालों की झड़ी लगा दी. मसलन वो पूछ रही थीं कि अगर उनकी ज़मीन चली जाएगी तो वो लोग करेंगे क्या ? बुलेट ट्रेन में बैठ कर आदिवासी कहां जाएगा?

केन्द्र सरकार, महाराष्ट्र और गुजरात की राज्य सरकारें और एक बड़ी कंपनी जो बुलेट ट्रेन बना रही है, आदिवासियों के सवालों के जवाब नहीं दे पा रहे हैं. आदिवासी पूछता है कि बुलेट ट्रेन से उसे क्या फ़ायदा है?

आदिवासी सीधा जवाब चाहता है. वह यह भी पूछ रहा है कि उचित मुआवज़ा क्या होता है ? शहर की ज़मीन के और गाँव की ज़मीन के दाम में दिन और रात का फ़र्क़ क्यों है ?

यहाँ के आदिवासी कहते हैं कि सरकार उचित मुआवज़ा और भविष्य में रोज़गार की गारंटी दे तो उन्हें बुलेट ट्रेन के लिए ज़मीन देने में कोई आपत्ति नहीं होगी.

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