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Chhattisgarh Assembly Election: आदिवासी बहुल बस्तर और सरगुजा कांग्रेस और बीजेपी के लिए कितने अहम?

2003 में बीजेपी को इन दोनों क्षेत्रों से राजनीतिक सत्ता की चाबी मिली. बीजेपी ने बस्तर की 12 में से 9 सीटें और सरगुजा की 14 में से 10 सीटें जीती थीं. विशेष रूप से भाजपा द्वारा जीती गई सभी सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं. कुल मिलाकर आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से बीजेपी ने 25 सीटें जीती थीं.

छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद 2003 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ. बीजेपी ने 90 में से 50 सीटें जीतीं और पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई. वहीं कांग्रेस 63 में से सिर्फ 37 सीटें जीत सकी. लेकिन 15 साल बाद इतिहास ने करवट ली और 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 68 सीटों के साथ भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई. बीजेपी 49 में से सिर्फ 15 सीटें ही जीत सकी.

2003 और 2018 के चुनाव में दोनों पार्टियों को बस्तर और सरगुजा इलाके में बड़ी जीत मिली थी. उस समय बीजेपी को 26 में से 19 सीटें मिली थीं जबकि कांग्रेस को 26 में से 25 सीटें मिली थीं.

बस्तर और सरगुजा संभाग को राजनीतिक सत्ता की चाबी माना जाता है. आंकड़ों के मुताबिक, जिस पार्टी को क्षेत्र में सबसे ज्यादा सीटें मिलती हैं, वह बहुमत के साथ सरकार बनाती है. आगामी विधानसभा चुनाव में सफलता की कुंजी हासिल करने के लिए दोनों पार्टियां पूरी कोशिश कर रही हैं.

आंकड़ों के जरिए समझिए

छत्तीसगढ़ को पांच संभागों में बांटा गया है. छत्तीसगढ़ के दक्षिण में बस्तर है, जबकि उत्तर में सरगुजा है. ये दोनों आदिवासी बहुल क्षेत्र है. राज्य के मैदानी संभागों में रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग शामिल हैं.

राज्य की आबादी में 32 फीसदी आदिवासी हैं और उनके लिए 29 सीटें आरक्षित हैं. बस्तर और सरगुजा में 26 सीटें हैं, जिनमें से 20 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, यानी बस्तर में 11 और सरगुजा में 09 सीटें आरक्षित हैं.

2003 में बीजेपी को इन दोनों क्षेत्रों से राजनीतिक सत्ता की चाबी मिली. बीजेपी ने बस्तर की 12 में से 9 सीटें और सरगुजा की 14 में से 10 सीटें जीती थीं. विशेष रूप से भाजपा द्वारा जीती गई सभी सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं. कुल मिलाकर आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से बीजेपी ने 25 सीटें जीती थीं.

ऐसे में यह स्पष्ट था कि आदिवासी मतदाता भाजपा के करीब थे और कांग्रेस से दूर थे. बीजेपी ने लगातार तीन बार शासन किया और बस्तर और सरगुजा के इलाकों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रही.

2008 में भाजपा एक और सीट जीतने में सफल रही. बस्तर में 11 और सरगुजा में 09 सीटें जीती. 2013 में आदिवासी बेल्ट पर बीजेपी की पकड़ ढीली तो हुई लेकिन कमजोर नहीं हुई. चुनाव के दौरान पार्टी बस्तर में केवल चार और सरगुजा में सात सीटें ही जीत सकी.

2008 में आदिवासी आरक्षित सीटों में से भाजपा ने 19 और सीटें जीतीं और 2013 में 12 सीटें जीतीं. अगर हम पिछले वर्षों में वोट प्रतिशत को देखें तो हम पाएंगे कि 2003 में भाजपा 39.3 पर थी, जबकि कांग्रेस 36.7 पर थी. 2008 में भाजपा 40.3 पर थी जबकि कांग्रेस 38.6 पर थी. 2013 में बीजेपी 42.3 पर और कांग्रेस 41.6 पर थी और 2018 में जहां बीजेपी घटकर 33.6 फीसदी पर आ गई वहीं कांग्रेस का वोट शेयर बढ़कर 43.9 फीसदी हो गया.

क्या आदिवासी इलाके में कांग्रेस दोहराएगी अपना प्रदर्शन?

भाजपा ने 2003 में सरगुजा और बस्तर के आदिवासी इलाके में जो सीटें जीती थीं, उनमें से अधिकांश को 2013 तक बरकरार रखा.

परिणामस्वरूप भाजपा 2003 में 50, 2008 में 50 और 2013 में 49 सीटें जीतकर लगातार तीन बार सत्ता में आई. वहीं कांग्रेस ने 2018 में 26 में से 25 सीटें जीतकर क्षेत्र में अभूतपूर्व जीत हासिल की.

2018 में कांग्रेस ने 29 आदिवासी आरक्षित सीटें जीतीं. अब सवाल ये है कि क्या कांग्रेस 2023 में सरगुजा और बस्तर इलाके में अपना प्रदर्शन दोहरा पाएगी.

वरिष्ठ पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल कहते हैं कि देखिए, बस्तर और सरगुजा के आदिवासियों में फर्क है. इसलिए न तो कोई बस्तर को सरगुजा के आधार पर आंक सकता है और न ही सरगुजा को बस्तर के आधार पर.

हालांकि, एक बात स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में कांग्रेस के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं. बस्तर में भाजपा अंतागढ़, कोंडागांव, जगदलपुर और दंतेवाड़ा समेत छह सीटें हार रही है. इसी तरह सरगुजा में उसे 5 से 6 सीटों का नुकसान हो सकता है.

इसकी वजह मौजूदा कांग्रेस विधायकों से लेकर सत्ता विरोधी लहर, विधायकों का टिकट कटना और अब उनके बागी तेवर हैं. हालांकि, बस्तर में बीजेपी ने उन उम्मीदवारों को टिकट दिया है जो क्षेत्र में काफी सक्रिय हैं और कांग्रेस से ज्यादा मजबूत उम्मीदवार हैं.

बस्तर

आलोक प्रकाश का ये भी कहना है कि हाल के कुछ सालों में बीजेपी ने ‘धर्मांतरण’ को बड़ा मुद्दा बना लिया है. इस तरह आदिवासी वोट बंट जाएंगे. इन मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी को वोट देगा.

राज्य के आदिवासियों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया है – पहले वे हैं जो न तो खुद को हिंदू मानते हैं और न ही ईसाई; दूसरे वे हैं जो हिंदू धर्म में आस्था रखते हैं; और आखिर में तीसरे वे हैं जो ईसाई धर्म का पालन करते हैं.

छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के मुताबिक, कांग्रेस सरकार के पहले तीन वर्षों में ईसाइयों पर हमले और उत्पीड़न के 380 मामले हुए थे. जानकारों की मानें तो कांग्रेस को ईसाई आदिवासी आबादी का पूरा वोट नहीं मिलेगा. ऐसे में चुनाव में आदिवासी वोट दूसरी पार्टियों (गैर बीजेपी और कांग्रेस) के साथ जा सकते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य की 2.55 करोड़ आबादी में 4.90 लाख ईसाई हैं.

चुनाव कवर रहे विशेषज्ञों का मानना है कि विधानसभा सीटों पर कई ईसाई मतदाता हैं जो कांग्रेस को वोट करते रहे हैं. हालांकि, ऐसा लगता है कि वे इस बार कांग्रेस को वोट नहीं देंगे. वे कांग्रेस से बेहद नाराज हैं. यह गुस्सा सबसे ज्यादा नारायणपुर में महसूस किया जा सकता है.

ऐसे में वे या तो सीपीआई उम्मीदवार को वोट देंगे या आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को. इस क्षेत्र में कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी ज्यादा सक्रिय है. अपने विधायकों के टिकट काटे जाने से कांग्रेस को भी नुकसान हो सकता है. वहीं उम्मीद है कि बीजेपी इस क्षेत्र में छह सीटें जीत सकती है.

सरगुजा

कांग्रेस ने किसानों के लिए कई अहम फैसले किए हैं. कर्जमाफी और किसानों से 20 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से धान खरीदी जैसे फैसले शामिल हैं. पिछले दो हफ्तों में कांग्रेस ने राज्य में कुछ बड़े ऐलान किए हैं.

पार्टी का मानना है कि अगर वे सत्ता में आए तो किसानों का कर्ज माफ करेंगे, 17.5 लाख लोगों को घर देंगे. साथ ही वे चिकित्सा बीमा की राशि 5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख करेंगे.

मजदूरों को 7000 रुपये की जगह 10 हजार की वार्षिक राशि दी जाएगी. सरकारी स्कूल और कॉलेज मुफ्त शिक्षा देंगे. तेंदूपत्ता संग्राहकों को हर साल चार हजार रुपये दिए जाएंगे.

राजनीतिक टिप्पणीकार हर्ष दुबे कहते हैं कि यह सच है कि कांग्रेस ने कुछ अच्छे काम किए हैं लेकिन सरगुजा और बस्तर इलाके में उसके लिए 2018 जैसा प्रदर्शन करना मुश्किल होगा.

हर्ष दुबे कहते हैं कि बीजेपी इस बार सरगुजा और बस्तर दोनों जगह अच्छा प्रदर्शन कर रही है. यह भी देखना होगा कि पिछली बार सरगुजा में कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं. लेकिन इस बार यह संभव नहीं लग रहा है. पिछली बार लोगों ने टीएस सिंहदेव को सीएम बनाने के लिए वोट दिया था.

इस क्षेत्र की जनता उन्हें सीएम के रूप में देखना चाहती है. हालांकि, ऐसा नहीं हुआ. इससे लोगों को निराशा हुई. कांग्रेस पहले ही सीएम का चेहरा भूपेश बघेल के रूप में तय कर चुकी है. इससे कांग्रेस को वोटों का नुकसान हो सकता है.

हर्ष आगे कहते हैं कि लोग टिकट बंटवारे और मौजूदा विधायकों को टिकट न दिए जाने से नाराज हैं. वहीं बीजेपी ने इस क्षेत्र में मजबूत दावेदारों को टिकट दिया है.

यहां से दो प्रमुख आदिवासी चेहरों को टिकट दिया गया है. केंद्रीय मंत्री और सरगुजा लोकसभा सांसद रेणुका सिंह भरतपुर-सोनहत से चुनाव लड़ रही हैं, जबकि पूर्व मंत्री और पूर्व राज्यसभा सांसद रामविचार नेताम रामानुजगंज निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं.

इनका असर चुनाव पर पड़ सकता है और कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है. कांग्रेस के बागी नेता पार्टी के लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं.

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