HomeGround Reportमानकी-मुंडा: हो समाज की सामाजिक और न्याय व्यवस्था की बहस

मानकी-मुंडा: हो समाज की सामाजिक और न्याय व्यवस्था की बहस

अदालतों में वकील अक्सर अंग्रेजी या हिन्दी में बहस करते हैं. जिस व्यक्ति का मुकदमा चल रहा होता है…उसे शायद ही कभी वकील की बहस या जज के सवाल समझ में आते हैं. लेकिन मानकी मुंडा की अदालत इस मामले में बिलकुल अलग है. यहां पर वकील होता ही नहीं है. यह अदालत एक और नज़रिये से बेमिसाल है…यहां फरियादी अपनी मातृभाषा या स्थानीय बोली में बात करता है.

पश्चिमी सिंहभूम जिलें के हेडक्वार्टर चाईबासा के स्थानीय अदलात परिसर में मानकी मुंडा न्याय पंच स्थापित है. यहां पर ज़िले भर से फ़रियादी आती हैं. ये सभी फ़रियादी ज़िले के आदिवासी गांवों से हैं. इस ख़ास अदालत में सभी जज भी आदिवासी ही हैं. इस मानकी मुंडा न्याय पंच की कई और ख़ास बातें हैं.

इनमें से पहली और बड़ी ख़ास बात ये है कि यहां इंसाफ़ की लड़ाई पर बेइंतहा पैसा ख़र्च नहीं करना पड़ता है. यहां पर वादी या प्रतिवादी को भारी कोर्ट फीस या वकील का ख़र्चा नहीं देना पड़ता है.

अदालतों में वकील अक्सर अंग्रेजी या हिन्दी में बहस करते हैं. जिस व्यक्ति का मुकदमा चल रहा होता है…उसे शायद ही कभी वकील की बहस या जज के सवाल समझ में आते हैं.

लेकिन मानकी मुंडा की अदालत इस मामले में बिलकुल अलग है. यहां पर वकील होता ही नहीं है. यह अदालत एक और नज़रिये से बेमिसाल है…यहां फरियादी अपनी मातृभाषा या स्थानीय बोली में बात करता है.

अपनी भाषा में फरियादी सीधे जज को अपनी बात बता सकता है. यहां अदालतों का भारी प्रोटकॉल फॉलो करने की बजाए फरियादी को आसानी से अपना पक्ष रखने का मौका मिलता है.

ब्रिटिश ज़माने में आदिवासियत के दो आधार – रीति रिवाज पर आश्रित उनकी पहचान और उनकी परंपरागत मानकी मुंडा प्रशासनिक व्यवस्था को मान्यता दी गई थी.

1831-32 के कोल आदिवासी विद्रोह के बाद South West frontier Agency के गवर्नर जनरल के एजेंट थॉमस विल्किनसन ने 1834 में विल्किनसन सिविल रूल पारित किया.

1837 में इस रूल को कोल्हान क्षेत्र में लागू किया गया. इस रूल से यह तय हो गया कि हो आदिवासियों के दस्तूर से ही दीवानी मामलों में न्याय किया जाएगा.

झारखंड सरकार ने फरवरी 2021 में इस पारंपरिक न्यायिक प्रणाली को तीन मोर्चों पर काम करने की शक्ति देकर मान्यता दी –  पहली राजस्व संबंधी गतिविधियां, दूसरी कानून और व्यवस्था बनाए रखना और तीसरी शक्ति दी गई है भूमि विवादों का निपटान की. 

इस व्यवस्था के तहत इंसाफ़ जल्दी ही मिलता है. इसमें आदिवासी समुदाय के लोगों का पैसा और समय दोनों ही बचता है. सबसे बड़ी बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता रहती है. हो समुदाय की यह एक परंपरागत व्यवस्था जिसे ब्रिटिश हुक्मरानों ने भी मान्यता दी.

आज़ादी के बाद भी कोल्हान क्षेत्र में यह व्यवस्था कायम रही है. अब राज्य सरकार ने इसे और सुदृढ़ करने की शुरूआत की है. लेकिन आज के आधुनिक युग में परंपरागत या रूढ़ीगत कानूनों के प्रासंगिकता या तार्किता पर सवाल भी उठाए जा रहे हैं. मसलन इस परंपरागत व्यवस्था के तहत बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता है. 

मानकी मुंडा न्याय व्यवस्था के बारे में कई और आलोचना भी पेश की जाती हैं. मसलन कई बार पारिवारिक कलह के मामले में या फिर संपत्ति में महिलाओं के हिस्सेदारी के केस स्थानीय अदालतों में आते हैं. लेकिन उन मामलों में अदालत तर्कसंगत फैसले नहीं दे पाती हैं क्योंकि आदिवासी समुदायों के बारे में सुप्रीम कोर्ट और संविधान यह कहता है कि वे परंपरागत कानूनों से ही गाइडेड हैं. 

कई आदिवासी संगठन और नेता भी यह प्रचार कर रहे हैं कि प्रथागत कानूनों की अब ज़रूरत नहीं है. ये संगठन कहते हैं कि आदिवासी समुदायों को भी अब आधुनिक कानून व्यवस्था के हिसाब से चलना चाहिए. लेकिन कानून के कई जानकार प्रथागत या रूढ़ीगत कानूनों के बचाव में तर्क देते हैं

आदिवासी समुदायों की महिलाओं के नज़रिये से रुढ़ीगत न्याय व्यवस्था को भेदभाव पूर्ण बताया जाता है. ब्याह, शादी या तलाक से लेकर पिता या पति की संपत्ति में अधिकार के मसलों को महिलाओं के ख़िलाफ़ बताया जाता है. इसके अलावा आदिवासियों की परंपरागत न्याय पंचायतों के फ़ैसले कई मामलों में महिलाओं को प्रताड़ित करते हैं.

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट भी यह कह चुका है कि आदिवासी लड़कियों को उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा दिलाने के लिए सरकार को कानून बनाने पर या किसी वर्तमान कानून को लागू करने पर विचार करना चाहिए. 

मानकी मुंडा व्यवस्था से जुड़े हो समुदाय के रहनुमा कहते हैं कि यह व्यवस्था आज भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कभी पहले होती थी. बल्कि वे महसूस करते हैं कि आदिवासी इलाकों में लोगों को आसानी से बिना ख़र्च के आसानी से न्याय मिल सके, इसके लिए इस व्यवस्था को और मजबूत करना चाहिए.

वे कहते हैं कि प्रथागत नियमों और न्याय व्यवस्था को महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण मानने वाले दरअसल जानकारी के अभाव में ऐसा सोचते हैं.

आदिवासी प्रथागत न्याय व्यवस्था मानकी मुंडा की जड़ें काफी गहरी हैं. इस व्यवस्था में आदिवासी समुदायों की आस्था भी बनी हुई है.

यह पूरी व्यवस्था न्याय के समझौता सिद्धांत पर टिकी हुई है. इस व्यवस्था में गांव के स्तर पर ही समाज के मसलों को सुलझाया जाता है. अगर वहां भी बात नहा बने तो फिर उसके उपर भी एक व्यवस्था बनाई गई थी. इस व्यवस्था में कानून व्यवस्था बनाए रखने से लेकर दिवानी मामलों तक को समझौता सिद्धांत के आधार पर सुलझाया जाता है.

आदिवासी न्याय व्यवस्था कई मायनों में बेहद प्रगतिशील और आधुनिक मूल्यों पर खरी उतरने वाली व्यवस्था है…बल्कि उससे भी बेहतर है.

लेकिन इस तथ्य की तरफ से भी आंखें नहीं फेरनी चाहिएं कि इस व्यवस्था में किसी भी व्यवस्था की तरह ही कुछ सुधार या बदलाव की गुंजाइश होगी. इन बदलावों और सुधारों के बारे में समाज सचेत हो रहा है और एक बहस बढ़ रही है. उम्मीद है कि यह बहस एक तर्कसंगत मुकाम पर ज़रूरी पहुंचेगी. 

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