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1 फरवरी से शुरू होगा अरूणाचल प्रदेश के इदु जनजाति का सबसे बड़ा ‘रेह’ त्योहार

यह त्योहार हर साल फरवरी की शुरूआत में छ: दिनों तक मनाया जाता है, हालांकि त्योहार के अंतर्गत होने वाली मुख्य परंपराए 1 फरवरी से 3 फरवरी तक संपन्न हो जाती है. ऐसा भी कहा जाता है की यह त्योहार बहुत खर्चीला होता है, इसलिए इसकी सभी व्यवस्थाएं और तैयारियां त्योहार के तय तारीख के चार या पांच साल पहले करनी पड़ती हैं.

यह त्योहार हर साल फरवरी की शुरूआत में 6 दिनों तक मनाया जाता है. इस त्योहार से जुड़ी मुख्य परंपराए 1 फरवरी से 3 फरवरी तक संपन्न हो जाती है.

इदु आदिवासियों (Idu tribal) का मानना है की जब तक कोई वयक्ति इस त्योहार में पूजा नही करता या रेह त्योहार (Reh festival) नहीं मनाता, तब तक उन्हें भग्वान का आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो सकता.

ऐसा भी कहा जाता है की इस त्योहार में बहुत खर्चे होते है, इसलिए किसी भी परिवार को त्योहार की सभी व्यवस्थाएं और तैयारियां त्योहार(तय तारीख) के चार या पांच साल पहले करनी पड़ती हैं.

इस त्योहार को मनाने वाले इच्छुक व्यक्ति को स्थानीय रूप से ‘अडा’ नामक प्रणाली का सहारा लेना पड़ता है.

इस प्रणाली के अंतर्गत इच्छुक वयक्ति मिथुन, सूअर, नकदी, धन आदि इकट्ठा करता है. फिर चाहे उसे प्रणाली के अंतर्गत आने वाली चीजों को खरीदने के लिए उसे ऋण का सहारा क्यों ना लेना पड़े.

इसे इकट्ठा करने के बाद उत्सव से लगभग एक साल पहले एक अस्थायी तारीख तय की जाती है( जिस दिन त्योहार मनाना हो). इसके अलावा उत्सव से तीन से चार महीने पहले ‘युनीफ्री’ नामक चावल बियर को बड़े पैमाने पर तैयारी किया जाता है.

इस त्यौहार में माँ ‘नान्यी इनयितया’ को प्रसन्न करने के लिए कई भैसों की बलि दी जाती है और रिश्तेदारों को नकदी और सूअर जैसे उपहार दिए जाते हैं.

इसके अलावा त्योहार की सारी तैयारियां होने के बाद कैलेंडर का एक रूप ‘ताई’ निमंत्रण के रूप में सभी रिश्तेदारों को भेजा जाता है.

‘ताई’ की गिनती एक डोरी की गांठों से की जाती है और जैसे-जैसे रात गुजरती है, प्रत्येक गांठ एक के बाद एक काट दिया जाता है. जब डोरी पर दो गांठें रह जाती हैं तो आमंत्रित परिवार उत्सव स्थल पर पहुंचते हैं.

त्योहार के 6 दिन कैसे मनाये जाते है?

पहला दिन:- रेह उत्सव के पहले दिन को ‘एंड्रोपु’ कहा जाता है. इस दिन सभी इदु आदिवासी मिलकर प्रार्थना करते है, ताकि पूरा त्योहार सुचारू रूप से सम्पन्न हो सके और कोई भी बांधा ना आए.

इसके अलावा पहले दिन में मिथुनों(जानवर) को घर के पास लाकर बांध दिया जाता है और रात को सभी आदिवासी मिलकर नाच- गाना करते है, इस नृत्य को ‘नया’ कहा जाता है.

दूसरा दिन:- दूसरे दिन को इयानली कहा जाता है और इस दिन मिथुन और भैंस जैसे जानवरों की बलि चढ़ाई जाती है. वहीं इस दिन मेहमानों को भोजन में चावल, मांस और चावल बियर परोसा जाता है.

तीसरा दिन:- तीसरे दिन को ‘इयिली’ कहा जाता है. इस दिन भारी दावत होती है और त्यौहार में जो भी पड़ोसी गाँव के वयक्ति नहीं आ पाते, उन्हें चावल उपहार में दिए जाते हैं.

तीन दिनों तक मनाने के बाद भी अगले तीन दिन भी इस त्योहार को मनाया जाता है, लेकिन इन तीन दिनो में( 4 से 6 तारीख तक) आधिक परंपराए शामिल नहीं होती है.

चौथा दिन:- इस दिन ज्यादा दावत नहीं होती और इस दिन पूजा के दौरान सुअर के कानों में ‘यू’ चावल की बियर डालकर, बांधकर और जमीन पर लिटाया जाता है.

ऐसा माना जाता है यदि सुअर बियर डालने के बाद हिला-डुला नहीं, तो यह एक बुरा सकेंत है और यह सकेंत है की खराब फसल, महामारी आदि जैसे बुराईयां प्रवेश कर सकती है.

पांचवा दिन:- पांचवें दिन को अरु-गो कहा जाता है. इस दिन दावत में बचे हुए साम्रगी से भोजन तैयार किया जाता है और इस भोजन को अपनी पड़ोसी गाँव के साथ ग्रहण करते है.

छठा दिन: छठा दिन त्योहार का समापन दिन है जिसे ‘एटोआनु’ के नाम से जाना जाता है. इस दिन खेतों में खून से सने बीज बोए जाते हैं और घर की देवी को चावल की बीयर परोसी जाती है और ऐसे ही इन छ: दिनों का समापन हो जाता है.

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