HomeAdivasi Dailyगुजरात चुनाव: आदिवासियों की साक्षरता और बेरोज़गारी साथ साथ बढ़ी है

गुजरात चुनाव: आदिवासियों की साक्षरता और बेरोज़गारी साथ साथ बढ़ी है

आदिवासी युवाओं ने कहा कि अब समय आ गया है कि हम "बदलाव" लाएं. उनका कहना है कि बीजेपी राज्य में इतने सालों से सत्ता में है इसलिए वो हमारे शैक्षिक और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के लिए विपक्ष को दोष नहीं दे सकता है. हम पढ़ाई करते हैं क्योंकि हमारे क्षेत्रों में रोजगार के कोई अन्य अवसर नहीं हैं. अगर हमें नौकरी नहीं मिल रही है तो हमने शिक्षा पर अपना समय, पैसा और ऊर्जा क्यों खर्च की है? इसलिए हम सत्ता में बदलाव चाहते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में अनुसूचित जनजाति की साक्षरता दर पिछले पांच दशकों से लगातार बढ़ रही है. लेकिन साथ ही जमीनी हकीकत और आंकड़े बताते हैं कि समुदाय में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है और सरकार के साथ-साथ संगठित क्षेत्रों में उनकी भागीदारी निराशाजनक है.

रोजगार के अवसरों के अभाव में पढ़े-लिखे आदिवासी युवा या तो असंगठित क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर होते हैं या बेहतर विकल्पों के लिए पलायन करते हैं. शायद यह वह मुद्दा होना चाहिए जिनके आधार पर समुदाय राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में वोट करेगा.

गुजरात में आदिवासी आबादी 14.67 प्रतिशत (लगभग 75 लाख) है. लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा के लाभार्थी 17.10 प्रतिशत और माध्यमिक शिक्षा के लाभार्थी 12.53 प्रतिशत हैं.

इसमें से आर्ट स्ट्रीम में उनका नामांकन 14.68 प्रतिशत है, कॉमर्स स्ट्रीम में 3.07 प्रतिशत और साइंस स्ट्रीम में 7.20 प्रतिशत है. उच्च शिक्षा में उनकी उपस्थिति बमुश्किल एक फीसदी है.

अधिकांश जनजातियां दक्षिण गुजरात के सात जिलों – सूरत, डांग, तापी, भरूच, वलसाड, नर्मदा और नवसारी के 15 तालुकों में निवास करती हैं.

गुजरात में अट्ठाईस अनुसूचित जनजातियों को सूचीबद्ध किया गया है. उनमें से आठ आदिम जनजातियां हैं जो मुख्य रूप से अलेक, बरदा और गिर के जंगलों (पश्चिमी गुजरात में जामनगर और जूनागढ़ जिले) और मध्य गुजरात में अहमदाबाद जिले से संबंधित हैं. गुजरात में लगभग 21 जनजातियां 12 जिलों (उत्तर-पूर्वी क्षेत्र) में फैली हुई हैं.

बिहेवियरल साइंस सेंटर, सेंट जेवियर्स कॉलेज, अहमदाबाद ने दक्षिण गुजरात के सात जिलों में एक स्टडी की है. इस स्टडी में जिन 1941 आदिवासी उत्तरदाताओं से बात की गई उन में से लगभग आधे (51 प्रतिशत) दसवीं कक्षा पास थे. उच्च अध्ययन के साथ अनुपात घटता है यानी लगभग एक चौथाई (24 प्रतिशत) ने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की है, वहीं 11 प्रतिशत स्नातक और 4 प्रतिशत स्नातकोत्तर थे.

जबकि उत्तर गुजरात (वड़ोदरा, दाहोद, पंचमहल, साबरकांठा और बनासकांठा) में आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं हैं – साक्षरता का निम्न स्तर, सिकल सेल एनीमिया की कई सारी घटनाएं, बेरोजगारी, हाई डिग्री ऑफ माइग्रेशन और वन या वन उपज तक पहुंच नहीं होना.

हालांकि, दक्षिण गुजरात के आदिवासियों ने साक्षरता के उच्च स्तर की सूचना दी है लेकिन उन्हें भी बेरोजगारी के अलावा समान समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

वे कथित तौर पर वन अधिकारियों द्वारा बहुत बार अत्याचार का सामना करते हैं और गुजरात के सिल्वर कॉरिडोर के हिस्से के रूप में तापी और नर्मदा पर बड़े पैमाने पर बांधों के साथ-साथ औद्योगिक संपदा जैसी विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित लोगों की सबसे बड़ी संख्या की रिपोर्ट करते हैं.

शिक्षित लेकिन बेरोजगार

डांग जिले के अहवा के निवासी 29 वर्षीय नरेशभाई देवरामभाई गामित ने सूरत के एक सरकारी कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर किया है. इसके बाद वे बी.एड. की पढ़ाई के लिए राजकोट गए थे.

देवरामभाई ने प्राथमिक विद्यालय शिक्षक भर्ती परीक्षा में शामिल होने के लिए दो बार आवेदन किया था लेकिन पेपर ही लीक हो गया.

उन्होंने एक बार फिर नौकरी के लिए आवेदन किया है लेकिन यह निश्चित नहीं है कि परीक्षा कब आयोजित की जाएगी और परिणाम कब निकलेगा और पेपर लीक के दौर में लिखित परीक्षा होगी या नहीं.

उन्होंने कहना था, “लगातार पेपर लीक होने के और उसके बाद परीक्षा रद्द होने से मेरी सरकारी नौकरियों में रुचि कम हो गई है क्योंकि इसे हासिल करना लगभग असंभव हो गया है. रिक्तियों की घोषणा की जाती है, आवेदन पत्र आमंत्रित किए जाते हैं और परीक्षा की तारीखों की घोषणा की जाती है. लेकिन जब हम अपने सेंटर पर पेपर लिखने पहुंचते हैं तो पता चलता है कि पेपर लीक होने की वजह से कैंसिल हो गया है. प्रक्रिया जारी है.”  उन्होंने कहा, “सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करना एक महंगा मामला है,”

उन्होंने कहा कि एक बार परीक्षा रद्द हो जाने के बाद इसका खामियाजा उम्मीदवारों को उठाना पड़ता है. हर बार हमें सरकार को भारी-भरकम आवेदन शुल्क देना पड़ता है.

गुज़ारा करने के लिए पांच लोगों के परिवार की देखभाल और अपनी छह साल की बेटी की पढ़ाई का खर्च उठाना जो कि एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ती है, वो सरकारी निर्माण कार्यों जैसे चेक डैम आदि के ठेके लेता है.

नरेशभाई ने कहा, “हमारे जैसे छोटे ठेकेदारों को बड़ा रिटर्न नहीं मिलता है क्योंकि पैसे का एक अच्छा हिस्सा उन अधिकारियों पर खर्च किया जाता है जो काम पास नहीं करते हैं और बिना रिश्वत के अंतिम भुगतान को मंजूरी देते हैं. मैं जो पैसा कमाता हूं वह बिना किसी कठिनाई के परिवार के लिए रोजी-रोटी कमाने के लिए पर्याप्त है.”

नरेशभाई के पिता एक सीमांत किसान हैं, जिनके पास पांच एकड़ जमीन है जो उन्हें राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने आवंटित की थी. उन्होंने कहा, “हमारे पास जमीन है क्योंकि हमारे पास पट्टा है. लेकिन वन विभाग के पास इसका कानूनी स्वामित्व है जो किसी भी विकास परियोजना के नाम पर हमें किसी भी दिन बेदखल कर सकता है.”

उन्होंने कहा कि डांग जिले का एकमात्र डिग्री कॉलेज आर्ट्स स्ट्रीम के तहत पढ़ाई करता है. उनका कहना है कि यहां के ज्यादातर छात्र गुजराती, हिंदी, संस्कृत और समाजशास्त्र में स्नातक हैं क्योंकि कॉलेज के आर्ट फैकल्टी में कोई अन्य विभाग नहीं है.”

ऐसे आदिवासी युवा कम ही है जिन्होंने अंग्रेजी या अर्थशास्त्र जैसे प्रमुख विषय से ग्रेजुएट हुए हैं. और इसके कई कारण हैं- आदिवासी क्षेत्रों के कॉलेजों में अलग-अलग विभाग नहीं होते हैं और न ही प्रोफेशनल कोर्स होते हैं.

युवाओं को ज्यादातर समय बाजार की जरूरतों के बारे में अच्छी तरह से पता नहीं होता है. अगर वे बाजार की जरूरतों से वाकिफ हैं तो ऐसे शैक्षिक पाठ्यक्रमों की फीस बहुत अधिक है. इसका मतलब यह है कि शिक्षित होना भी सार्थक रोजगार की गारंटी नहीं है.

डांग जिले के चिकर गांव की दो बच्चों की मां भारतीबेन के पास एमए (हिंदी) और स्नातक की डिग्री है लेकिन वह सरकारी नौकरी पाने में विफल रही.

क्योंकि वह राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती के लिए माध्यमिक शिक्षा बोर्ड गुजरात (BSEG) द्वारा आयोजित होने वाली गुजरात शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test) में उत्तीर्ण नहीं हो पाई.

उन्होंने कहा, “हमें डिग्री मिलती है लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती क्योंकि ज्यादातर फैकल्टी में हमेशा शिक्षण कर्मचारियों की कमी रहती है. शिक्षा की प्रणाली पारंपरिक है और वहां की प्रतिभाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए पर्याप्त प्रतिस्पर्धी नहीं है. हम महंगी कोचिंग और स्टडी मैटेरियल का खर्च नहीं उठा सकते. इसलिए आदिवासी छात्र मुख्यधारा में अपने समकक्षों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में विफल रहते हैं.”

डांग के ही निर्गुड़मल गांव के निवासी, प्रवीण पवार (29 वर्षीय) ने राजकोट के एक कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातक करने के बाद 2017 में B. Ed. की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने 2019 में अपनी मास्टर डिग्री भी पूरी की.

उन्होंने स्नातक और मास्टर पूरा करने के तुरंत बाद जूनियर और सीनियर क्लर्क के रूप में राज्य की राजस्व सेवाओं में प्रवेश के लिए आवेदन किया था लेकिन दोनों बार परीक्षा के पेपर लीक हो गए. इस साल जूनियर क्लर्क की लिखित परीक्षा हुई थी लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सके.

2017 से 2022 तक राज्य में पेपर लीक के 19 मामले सामने आ चुके हैं.

प्रवीण ने कहा, “परीक्षा में बैठने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं उच्च शिक्षित उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा हूं जो अच्छी तरह से तैयार हैं और फिर मुझे पता चला कि हमारी शिक्षा कितनी खोखली है. मैं बड़े शहरों में विशेष तैयारी कक्षाओं में तैयारी नहीं कर सकता क्योंकि मेरे पास संसाधन नहीं हैं.”

प्रवीण के पिता के पास उनके चार भाइयों के साथ एक एकड़ जमीन है. खेती-किसानी पूरी तरह से बारिश पर निर्भर करती है क्योंकि जंगली पहाड़ी क्षेत्रों में सिंचाई के लिए पानी नहीं है और उनके परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र स्रोत भी यही है. वो अपने परिवार की आय का समर्थन करने के लिए दिहाड़ी मजदूर के रूप में छोटे-मोटे काम करता है.

बोरखल गांव के सतीशभाई लक्ष्मीभाई भोये ने हेल्थ सेनेटरी इंस्पेक्टर बनने के लिए आईटीआई की. वह राजकोट सिविल अस्पताल में एक कॉन्ट्रेक्चुअल लेबर के रूप में काम कर रहे थे लेकिन राज्य में COVID-19 महामारी के कम होने के बाद उन्हें निकाल दिया गया था.

अब वो अहवा (डांग के जिला मुख्यालय) में एक स्थानीय अधिवक्ता के कार्यालय में एक कंप्यूटर ऑपरेटर के रूप में कार्यरत हैं. उनके छोटे भाई ने भी समाजशास्त्र में एमए किया है और वर्तमान में अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ से बीएड कर रहे हैं.

अपने परिवार का समर्थन करने और अपने खर्चों को पूरा करने के लिए सतीशभाई ग्राफिक डिजाइनर के रूप में भी काम कर रहे हैं.

वहीं गुजराती भाषा में ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद उनकी एक बहन जीएनएम (General Nursing and Midwifery) की पढ़ाई कर रही है. एक और बहन ग्रेजुएशन के बाद सूरत में एक टेक्सटाइल फर्म में काम कर रही है.

उन्होंने कहा, “मेरे परिवार में सभी शिक्षित हैं लेकिन हममें से किसी के पास भी सरकारी नौकरी नहीं है. हमारे पिता के पास दो एकड़ जमीन है और हम सभी को कुछ समय खेत में काम करने के लिए निकालना होता है क्योंकि इससे अनाज और सब्जियों की जरूरत पूरी हो जाती है. साथ ही कुछ कमाने के लिए इधर-उधर काम करते हैं और इसलिए हम प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिस्पर्धा करने में विफल रहते हैं. जो अच्छी और आधुनिक तैयारी और एकाग्रता की मांग करते हैं.”

तापी जिले के व्यारा के तुषार रमन कामदी ने फॉरेंसिक साइंस में तीन साल का डिप्लोमा किया है लेकिन वे भी बेरोजगारों में से एक हैं. उन्होंने कहा कि कोई सरकारी पद खाली नहीं है.

युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी ने बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर में योगदान दिया है, जो पिछले 27 वर्षों से राज्य पर शासन कर रही है.

आदिवासी युवाओं ने कहा कि अब समय आ गया है कि हम “बदलाव” लाएं. उनका कहना है, “बीजेपी राज्य में इतने सालों से सत्ता में है इसलिए वो हमारे शैक्षिक और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के लिए विपक्ष को दोष नहीं दे सकता है. हम पढ़ाई करते हैं क्योंकि हमारे क्षेत्रों में रोजगार के कोई अन्य अवसर नहीं हैं. अगर हमें नौकरी नहीं मिल रही है तो हमने शिक्षा पर अपना समय, पैसा और ऊर्जा क्यों खर्च की है? इसलिए हम सत्ता में बदलाव चाहते हैं.”

182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा के 89 निर्वाचन क्षेत्रों में 1 दिसंबर को मतदान होना है, दक्षिण गुजरात बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. अगर बीजेपी को राज्य में सत्ता बरकरार रखनी है तो उसे आदिवासी बहुल दक्षिण गुजरात की 35 में से 28 सीटों को बरकरार रखना होगा. इस क्षेत्र में कांग्रेस की छह सीटें हैं.

बेरोजगारी के कारण

शिक्षित होने के बावजूद आदिवासी युवाओं को इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का सामना क्यों करना पड़ रहा है? एक्टिविस्ट रोमेल सुतारिया, जो दक्षिण गुजरात में आदिवासियों के साथ काम कर रहे हैं, उन्होंने कहा कि यह एक बहु-आयामी मुद्दा है- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी, वित्तीय संकट.

उन्होंने कहा, “आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल और कॉलेज सिर्फ नाम के लिए हैं. इनमें अच्छे शिक्षकों की कमी है, जो उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें. अधिकांश डिग्री कॉलेज बहुत सीमित स्ट्रीम में स्नातक प्रदान करते हैं. अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, कॉर्मस और साइंस डिपार्टमेंट शायद ही किसी को मिलेंगे.”

उन्होंने कहा कि जहां भी ये फैकल्टी मौजूद हैं वहां शिक्षकों की कमी है. उनके अनुसार, आदिवासी इलाकों में शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह से बदलने की जरूरत है.

उन्होंने कहा, “आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित किए गए उद्योग स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं देते हैं, यह तर्क देते हुए कि वे संगठित होंगे और एक संघ बनाएंगे जो उत्पादकता में बाधा डालेगा. काकरापार परमाणु ऊर्जा स्टेशन और उकाई थर्मल पावर स्टेशन में स्थानीय कर्मचारी नहीं हैं. केवडिया में सरदार सरोवर परियोजना के लिए नर्मदा निगम में 1980 के दशक की शुरुआत से कई आदिवासी अस्थायी मजदूरों के रूप में कार्यरत हैं. हालांकि, उन्होंने काम करना जारी रखा है क्योंकि वे इस नौकरी को ‘सरकारी नौकरी’ यानी सुरक्षित नौकरी मानते हैं.”

राज्य के जनजातीय बहुल क्षेत्रों में त्रि-आयामी माइग्रेशन देखने को मिल रहा है- लोग सूरत, नवसारी और वलसाड जिलों में गन्ने की कटाई के लिए जाते हैं, वहीं बड़ी संख्या में प्याज, अंगूर और अनार के उत्पादन के लिए महाराष्ट्र जाते हैं और बाकी दिल्ली और दूसरे बड़े शहरों में निर्माण मजदूरों के रूप में काम करने के लिए जाते हैं.

आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के लिए कई अतिरिक्त और विशेष व्यवस्थाएँ की गई हैं – 458 आवासीय विद्यालय, जिन्हें आश्रमशालाएँ कहा जाता है, 89 पोस्ट-बेसिक स्कूल, आदिवासी लड़के और लड़कियों के लिए 935 छात्रावास, 53 मॉडल आवासीय विद्यालय, 19 एकलव्य आवासीय विद्यालय, एक सैन्य विद्यालय, 23 ड्राई हॉस्टल, 50 सरकारी छात्रावास, टैलेंट पूल के तहत 5,838 छात्रों का कवरेज और 12,835 आदिवासी छात्रों को पाठ्यपुस्तकों की आपूर्ति. लेकिन दुर्भाग्य से इन सभी योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन का अभाव है.

गुजरात विद्यापीठ के आदिवासी अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान के एक शोध अधिकारी अरुणभाई पटेल के अनुसार, “अनौपचारिक” शिक्षा शायद ही आदिवासियों की पारंपरिक जीवन शैली के लिए प्रासंगिक है, जो वन उत्पादों के संग्रह, खेती-किसानी, शिकार, मत्स्य पालन और जानवरों को चराने आदि पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

इसके अलावा उन्होंने कहा कि सरकारी और संगठित निजी क्षेत्रों में शिक्षित युवाओं को रोजगार देने के लिए विशेष उपाय किए जाने चाहिए.

उन्होंने कहा, “नई आश्रमशालाएँ खोली जानी चाहिए और नियमित रूप से देखरेख की जानी चाहिए. इसके स्टाफ सदस्यों को पंचायत द्वारा संचालित स्कूलों के समान लाभ प्रदान किया जाना चाहिए. इसी तरह, पोस्ट-बेसिक स्कूल के कर्मचारियों को माध्यमिक स्कूल परीक्षा बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त माध्यमिक स्कूल के कर्मचारियों के समान माना जाना चाहिए. आश्रमशालाओं में बोलियों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं तक की शिक्षा देने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह मुख्यधारा की शिक्षा के बराबर होना चाहिए.”

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