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देश के पहले हैबिटेट राइट्स वाले बैगाचक के आदिवासी 7 साल बाद भी अधिकारों को लेकर जागरुक नहीं

देश में पहली बार 2015 में मध्य प्रदेश के बैगाचक के सात गांवों में वन अधिकार क़ानून के अंतर्गत पर्यावास अधिकार यानी हैबिटेट राइट्स दिए गए थे. लेकिन इस इलाके के लोगों को अब भी इसका ठीक-ठीक मतलब नहीं पता है.

सिलपिड़ी मध्य प्रदेश के डिंडौरी ज़िले में स्थित एक आदिवासी गांव है. 2015 में ये गांव चर्चाओं में था क्योंकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत पर्यावास अधिकार (Habitat Rights) प्राप्त करने वाला ये भारत का पहला गांव था.

ये अनुसूचित जनजातियों को दिए गए विशेष अधिकार हैं जिन्होंने परंपरागत रूप से अपनी भूमि का उपयोग आजीविका, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया है.  यह प्रावधान विशेष समुदायों को ऐसी भूमि पर अधिकार देता है.

चर्रा सिंह राठूरिया गांव के उन लोगों में से थे जिन्होंने इन अधिकारों के बारे में स्थानीय लोगों में जागरूकता पैदा करने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन इस साल उनके गांव का दौरा करने पर पता चला कि 2020 में उनकी मृत्यु हो गई.

उनकी पत्नी सोनी बाई ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “उन्होंने इस क्षेत्र के लिए आवास अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत की.  वे हैबिटेट राइट्स के लिए ख़ूब काम करते थे. गांव-गांव घूमते रहते थे. लेकिन उनके निधन के बाद सब कुछ ख़त्म हो गया.”

राठूरिया का बेटा मन्नू सिंह, जिसने कक्षा 5 तक की शिक्षा पूरी की है, वो अब खेती-मज़दूरी करते हैं. मन्नू सिंह को हैबिटेट राइट्स की अधिक जानकारी नहीं है. उन्हें इतना भर पता है कि 6 साल पहले एक बड़ा आयोजन किया गया था और कोई प्रमाण पत्र दिया गया था. किस बात का प्रमाण पत्र था, उन्हें इसकी जानकारी नहीं है.

(सौजन्य- आलोक प्रकाश पुतुल)

सिलपिड़ी गांव के ही अन्य निवासी, ज्ञान सिंह मरावी को भी नहीं पता कि हैबिटेट राइट्स क्या बला है? उसी गांव के रहने वाले 25 साल के शिक्षक कालेश्वर मांडले ने ज़िला मुख्यालय डिंडौरी के सीवी कॉलेज से अर्थशास्त्र में एमए किया है. लेकिन वे भी हैबिटेट राइट्स के बारे में नहीं जानते हैं.

दरअसल वर्ष 2012 में वनाधिकार कानून में एक संशोधन हुआ और हैबिटेट राइट्स को इसमें शामिल किया गया था. उसके तीन साल बाद, 9 दिसंबर, 2015 को डिंडोरी ज़िले के एक क्षेत्र बैगाचक को हैबिटेट राइट्स का प्रमाण पत्र दिया गया, जिसमें सिलपिड़ी सहित सात गांव शामिल हैं. इससे पहले देश में किसी भी समुदाय को वन अधिकार क़ानून के अंतर्गत हैबिटेट राइट्स नहीं दिए गए थे.

वन अधिकार क़ानून के नाम से चर्चित 2006 के अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) क़ानून की धारा 3 (1) के अंतर्गत सुनिश्चित किया गया कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के सभी वनभूमि पर वन अधिकार होंगे, जो व्यक्तिगत या सामुदायिक भूमि पर अधिकार की व्यवस्था दोनों को सुरक्षित करते हैं.

इस क़ानून की धारा 3 (1) (ई) में उन अधिकारों को शामिल किया गया, जिनके अंतर्गत आदिम जनजाति समूहों और कृषि पूर्व समुदायों के लिए गृह और आवास की सामुदायिक भूमि अधिकार की व्यवस्था भी हैं. आदिम जनजाति समूह यानी विशेष पिछड़ी जनजाति समूह उपवर्ग में भारत की 75 जनजातियां शामिल हैं.

इस क़ानून की धारा-2 (ज) में हैबिटेट यानी आवास को परिभाषित करते हुए कहा गया कि ‘आवास’ के अंतर्गत ऐसा क्षेत्र भी हैं, जिसमें आदिम जनजाति समूहों और कृषि पूर्व समुदायों और अन्य वन निवासी, अनुसूचित जनजातियों के आरक्षित वनों और संरक्षित वनों में परंपरागत आवास और ऐसे अन्य आवास शामिल हैं.

सीधे शब्दों में कहें तो किसी विशेष पिछड़ी जनजाति समूह द्वारा पारंपरिक रूप से आजीविका, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उद्देश्य के लिए जिस भू-भाग का उपयोग किया जाता रहा है, उस पर उस समुदाय को अधिकार देने का प्रावधान इस क़ानून में शामिल किया गया.

हैबिटेट राइट्स को वन अधिकार में शामिल किए जाने के बाद भी इसके हिंदी अनुवाद ‘आवास’ के कारण देश भर में उलझन हुई. कई इलाकों में मान लिया गया कि यह इंदिरा आवास या इसी तरह की मिलती-जुलती आवास योजना से जुड़ा मामला है. हालत ये हुई कि इस बारे में केंद्र सरकार को एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा. इन्हीं उलझनों के बीच डिंडौरी ज़िले के बैगाचक में हैबिटेट राइट्स देने की प्रक्रिया शुरु की गई.

बैगाचक के सात गांव- सिलपिड़ी, ढाबा, रजनी सराई, धुरकुटा, लिमौटी, जिलांग और अजगर को राज्य सरकार ने दिसंबर 2015 में हैबिटेट राइट्स का प्रमाणपत्र दिया. माना जा रहा था कि हैबिटेट राइट्स मिलने के बाद सात गांवों के विशेष पिछड़ी जनजाति समूह के बैगा आदिवासियों का परंपरागत अधिकार और सुरक्षित हो जाएगा. लेकिन सच तो ये है कि इन सात गांवों में ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि हैबिटेट राइट्स का मतलब क्या है?

(सिलपिड़ी गांव के निवासी, तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल)

बैगाचक के सात गांवों में हैबिटेट राइट्स की पहल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेश विश्वास मानते हैं कि देश में भले पहली बार बैगाचक में हैबिटेट राइट्स दिए जाने को उपलब्धि माना जा सकता है लेकिन जिन सात गांवों को यह अधिकार मिला है, उनके अधिकारों की स्थिति अब तक स्पष्ट नहीं है.

नरेश विश्वास बताते हैं कि छह साल के बाद भी अब तक इन गांवों और उनके दूसरे भूभाग का भौगोलिक नक़्शा तक नहीं बन पाया है. इसी तरह केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 2020 में हैबिटेट राइट्स को लेकर दिशा-निर्देश बनाए जाने के लिए एक विशेषज्ञ कमेटी बनाई थी.

नरेश विश्वास भी इस कमेटी में शामिल थे. लेकिन अब तक इस कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. ऐसे में हैबिटेट राइट्स को ठीक-ठीक समझना और उसे पालन करने में अभी भी कई अड़चने हैं.

नरेश विश्वास मोंगाबे-इंडिया से कहा, “जिन सात गांवों को हैबिटेट राइट्स मिले थे, उनमें से एक सिलपिड़ी को छोड़ कर किसी भी गांव में हैबिटेट राइट्स को लेकर कोई जागरुकता नहीं है. 2018 में वन विभाग, घोंघिछापर और केवारमाड़ा में जंगल साफ करने वाला था. बैगा आदिवासियों पर अपनी जमीन छोड़ने का दबाव डाला गया था. लेकिन हैबिटेट राइट्स के कागज दिखा कर सिलपिड़ी के बैगा आदिवासियों ने वन विभाग को वापस लौटने पर मजबूर किया. हालांकि दूसरे गांवों में लोग अपने अधिकार को लेकर जागरुक नहीं हैं.”

उन्होंने कहा कि हालांकि एक संकट ये भी है कि हैबिटेट राइट्स में विस्तार से क्षेत्रफल और अधिकार का उल्लेख होना था लेकिन यहां बांटा गया हैबिटेट राइट्स का प्रमाणपत्र महज कागज का एक औपचारिक पन्ना भर बन कर रह गया है.

विश्वास ने कहा कि डिंडौरी के बाद मंडला ज़िले के सात गांवों में भी हैबिटेट राइट्स दिए गए हैं. इनमें उन गलतियों से बचा गया है, जो गलतियां बैगाचक में की गई थीं. यहां दिए गए प्रमाण पत्र में विस्तार से हैबिटेट राइट्स की सीमा और अधिकारों का उल्लेख है. इसके अलावा पातालकोट में भी हैबिटेट राइट्स की प्रक्रिया चल रही है. छत्तीसगढ़ के कुछ ज़िलों में भी लोग इसकी कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि मैं इसे आदिवासी समुदायों की उपलब्धि की तरह देखता हूं.

वे कहते हैं कि यह किसी एक गांव के सामुदायिक वन अधिकार की तरह नहीं है, यह एक पूरी जनजाति के रहवास इलाके के अधिकार का मामला है, लेकिन इसे परिभाषित करना और समझाना, अभी भी बहुत मुश्किल है. जमीनी स्तर पर इसके कई पेंच हैं, जिसे सुलझाने में अभी भी वक्त लगेगा.

डिंडौरी के डीएफओ साहिल गर्ग भी मानते हैं कि हैबिटेट राइट्स का ठीक-ठीक मतलब क्या है, इसकी सीमाएं क्या हैं, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया है. ऐसे में शिक्षा से वंचित बैगा आदिवासियों से यह उम्मीद करना कि वे इसे समझ गए होंगे, सच्चाई से आंख बंद कर लेने की तरह है.

हालांकि यह समस्या केवल मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा विशेष पिछड़ी जनजाति समूह के लिए गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य वाई गिरी राव का कहना है कि हैबिटेट राइट्स का मामला उतना आसान नहीं है, जितना व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकार का होता है.

विशेष पिछड़ी जनजाति समूह की पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरागत व्यवस्थाओं को, उनकी प्राकृतिक और पारंपरिक सीमा को समझना सबसे जरुरी है.

वाई गिरी राव कहते हैं, “हैबिटेट एक गांव का नहीं, पूरे समुदाय का होता है. ओडिशा में जुआंग जनजाति के 165 गांवों को हैबिटेट राइट्स के लिए साथ लाया गया. अगर किसी जनजाति का विस्तार तीन ज़िले में है तो हैबिटेट राइट्स के लिए तीनों ज़िलों के जितने गांव हैं, उनकी सहमति के साथ, उन तीनों ज़िलों को मिला कर हैबिटेट राइट्स देना होगा. अन्यथा किसी भी आपत्ति के बाद यह मामला और उलझ कर रह जाएगा.”

(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है, Image Credit: Alok Prakash Putul)

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