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भारत की जनजातियां समाज के हाशिए पर जी रही हैं

शहरी विकास ने आदिवासी समुदायों को विस्थापित किया है. इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां आदिवासी लोगों को दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया गया है. साथ ही कई और विस्थापितों को आजीविका के साधन के बिना छोड़ दिया है.

भारत रूरल लाइवलीहुड्स फाउंडेशन (Bharat Rural Livelihoods Foundation) की “आदिवासी विकास रिपोर्ट” के अनुसार, भारत के आदिवासी समुदायों को शिक्षा, पोषण और स्वच्छ पेयजल तक पहुंच में कमी का सामना करना पड़ता है. 

नई रिपोर्ट का दावा है कि यह 1947 के बाद से देश भर में जनजातीय समुदायों द्वारा अनुभव की जाने वाली जीवन स्थितियों का पहला विस्तृत अध्ययन है.

अध्ययन में सरकारी स्रोतों, केस स्टडीज, अभिलेखीय अनुसंधान और जनजातीय समुदायों के साथ इंटरव्यू के आंकड़ों को जोड़ा गया. इसके लेखकों का कहना है कि रिपोर्ट का उद्देश्य जनजातीय लोगों द्वारा सामना किए जाने वाले मुद्दों को उजागर करना है ताकि नीति में बदलाव का नेतृत्व किया जा सके.

विकास के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक भारतीय एनजीओ, एसपीएस के संस्थापक सदस्य, प्रमथेश अम्बास्ता ने कहा, “यह विशाल रिपोर्ट जनजातियों द्वारा झेली गई ऐतिहासिक उपेक्षा का पता लगाती है.”

उन्होंने कहा, “अद्वितीय पहलू यह है कि यह एक ही स्थान पर स्वदेशी समुदायों से संबंधित कई विषयगत क्षेत्रों को एक साथ लाता है.”

आदिवासी विकास से वंचित

नवीनतम जनगणना के मुताबिक भारत की 8 प्रतिशत से अधिक आबादी जनजातियों की है. बावजूद इसके आदिवासी समुदायों को तेज़ी से समाज के हाशिये पर धकेला जा रहा है.

रिपोर्ट के अंश में कहा गया है कि दो दशक से अधिक प्रभावशाली जीडीपी विकास के बावजूद भारत की वृद्धि कुछ चुनिंदा केंद्रों तक ही सीमित रही है. “भारत के स्वदेशी समुदायों को जलोढ़ मैदानों और उपजाऊ नदी घाटियों से दूर पहाड़ियों, जंगलों और शुष्क भूमि जैसे देश के सबसे कठोर पारिस्थितिक क्षेत्रों में धकेल दिया गया है.”

इसके अलावा शहरी विकास ने आदिवासी समुदायों को विस्थापित किया है. इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां आदिवासी लोगों को दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया गया है. साथ ही कई और विस्थापितों को आजीविका के साधन के बिना छोड़ दिया है.

जनजातीय हित समूह कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी के प्रबंधक शंकर गोपालकृष्णन ने कहा, “आदिवासी समुदायों को उनकी भूमि, उनके जंगलों, बुनियादी सेवाओं तक उनकी पहुंच और समग्र भेदभाव के मामले में कई मोर्चों पर हाशिए और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.”

उन्होंने कहा, “सरकार की नीति ने इनमें से किसी को भी प्राथमिकता नहीं दी है. वन और भूमि अधिकारों के मामले में यह इन समुदायों के अधिकारों को सक्रिय रूप से कम कर रही है. अगर वास्तविक विकास या सशक्तिकरण होना है तो इसे रोकने की जरूरत है.”

उदाहरण के लिए, रिपोर्ट में कहा गया है कि जनजातीय महिलाएं आम भूमि और जंगलों के प्रगतिशील और निरंतर नुकसान से विशेष रूप से प्रभावित हुई हैं क्योंकि वे बस्तियां उजाड़ने के बाद अपने समुदायों की पारंपरिक अर्थव्यवस्थाओं में भूमिका निभाना जारी रखने में असमर्थ हैं.

अंबेडकर विश्वविद्यालय में स्वास्थ्य और सार्वजनिक सेवाओं पर शोध करने वाली सहायक प्रोफेसर दीपा सिन्हा ने कहा कि कुपोषण भारतीय जनजातियों, विशेषकर बच्चों को प्रभावित करने वाली एक बड़ी समस्या है.

सिन्हा ने कहा, “देशी आहार प्रथाएं जो काफी समय से खतरे में हैं, उन्हें संरक्षित करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि वन अधिकार अधिनियम के दुरुपयोग के माध्यम से गैर-लकड़ी वन उत्पादों तक पहुंच प्रतिबंधित नहीं है.”

अपने आख़िरी विश्लेषण में, रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि नीतियां बनाने से पहले विभिन्न जनजातीय समुदायों और संस्कृतियों की विशिष्ट विशेषताओं को समझना महत्वपूर्ण है.

रिपोर्ट में कहा गया है, “ऐसे कई आदिवासी समुदाय हैं जो अलगाव और चुप्पी पसंद करते हैं. वे शर्मीले हैं और अपने दम पर बाहरी दुनिया तक नहीं पहुंचेंगे. देश के नीति निर्माताओं और नेताओं को इस विशेषता को समझने की जरूरत है और फिर आदिवासियों के कल्याण की दिशा में काम करना चाहिए ताकि वे उनसे बेहतर तरीके से जुड़ सकें.”

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