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झारखंड: 30 और 31 अक्टूबर को आयोजित होगा मुड़मा जतरा मेला, जाने क्या है ख़ास

इस साल मुड़मा जतरा मेला 30 और 31 अक्टूबर को अयोजित किया जाएगा.

हर साल झारखंड (Jharkhand) के मांडर में ऐतिहासिक मुड़मा जतरा मेला (Murma Jatra Mela) आयोजित किया जाता है. मुड़मा जतरा झारखंड राज्य में आयोजित होने वाला वार्षिक आदिवासी मेला है, जिसका आयोजन दशहरा के दसवें दिन किया जाता है.

सदियों से इस मेला का आयोजन होता आ रहा है. इस साल मुड़मा जतरा मेला 30 और 31 अक्टूबर को अयोजित किया जाएगा. इस मेले में दुनियाभर के आदिवासी समुदाय से लोग एकजुट होते हैं.

ये सभी आदिवासी पड़हा के अंतर्गत आते हैं. हर पड़हा में कई गाँव शामिल होते हैं. पड़हा मुडरा में रहने वाले आदिवासियों की सामाजिक वयवस्था को कहा जाता है. जतरा मेला में अलग अलग जगह से कई आदिवासी समुदाय मुडरा में इकट्ठे होते हैं.

दरअसल इस दिन सभी आदिवासी मिलकर मां शाक्ति की पूजा करते हैं और इस दिन को और खास बनाने के लिए मेला भी आयोजित किया जाता है. मेले की शुरूआत में 40 पड़हा के पाहन (पंडित) पहले पूजा करते है.

इसके बाद दीप जलाकर जतरा मेले की शुरूआत की जाती है. वहीं मेले में मौजूद सारे श्राद्धलु माथे पर जौ और गेंदे के फूल भरे कलश लेकर मां शाक्ति की परिक्रमा करते हैं.

इसके बाद हाथ में जल लेकर शक्ति खूंटा की पूजा अर्चना की जाती है. पूजा अर्चना के बाद सभी आदिवासी मिलकर इस मेले का लुत्फ उठाते हैं.


मेले के आकर्षित करने वाले दृश्य

मेले में आपको जितनी भी चीजें देखने को मिलेगी वे सभी प्रकृति के बेहद करीब होगी. मतलब ज्यादातर सामान वन उपज से बनाई जाती है. इसके अलावा पांरपरिक वेशभूषा में युवक-युवतियों और तलवार लिए घूम रहे आदिवासी इस मेले में आकर्षण का केंद्र होते हैं.

जतरा मेले में कई कलाकृतियां देखने को मिलती है. आदिवासियों द्वारा हर दिन उपयोग किए जाने वाले बांस के औजार, बांस के खिलौने, पत्थर के प्याले, साल पत्ता और बांस से बना बिना हैंडल वाला छाता आपकों यहां देखने को मिल जाएगा. बच्चें इस मेले में खिलौने, चरखा और झूले का आनंद लेते हैं.

वहीं खाने की बात की जाए तो बालूशाही, बर्फी और गाजा जैसे कई पकवान आपके मुंह में पानी ला सकते हैं

जाने माने कलाकार, मुकुंद नायक ने एमबीबी डेस्क से बातचीत के दौरान कहां “ झारखंड में मुड़मा जतरा के अलावा दो और मेलों का नाम लिया जाता है. इनका नाम लचरागढ इंद और रामरेखा जतरा है.”

मुकुंड ने बातचीत के दौरान बताया कि ये सभी मेले समावेशी संस्कृति के केन्द्र थे. इनमें लचरागढ सांस्कृतिक समावेश के मामले में सबसे अच्छा था. लेकिन समय के साथ इन मेलों का स्वरूप बदलता गया.

उन्होंने कहा कि लोग अभी भी इन मेलों में आते हैं लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रम वैसे नहीं होते. अब कुछ प्रयास हो रहे हैं कि ये मेले सांस्कृतिक केंद्र बन सकें.

ये है मान्यता

यह मेला करीब 1400 वर्ष पुराना है. ऐसी मान्यता है कि रोहतासगढ़ से जब उरांव जनजाति आई थी तब उनके साथ मुंडा जनजाति समुदाय का सांस्कृतिक समझौता इसी स्थल पर हुआ था. इनके बीच क्षेत्र का विभाजन भी यहीं हुआ था. तभी से इस सांस्कृतिक समझौते की याद में मुड़मा मेला का आयोजन किया जा रहा है.


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