HomeAdivasi Dailyमध्य प्रदेश: बुरहानपुर में आदिवासी कैसे खो रहे अपनी जमीन

मध्य प्रदेश: बुरहानपुर में आदिवासी कैसे खो रहे अपनी जमीन

जंगलों पर कब्ज़ा करने वाले दो समूहों में बंटे हुए हैं - स्थानीय आदिवासी जो कई सालों से यहां रह रहे हैं और दूसरे जो कुछ साल पहले से यहां रह रहे हैं. दूसरे समूह ने कथित तौर पर एक ही रात में कई एकड़ जंगल काट दिए जिससे क्षेत्र में शत्रुतापूर्ण माहौल पैदा हो गया.

खंडवा, खरगोन, बड़वानी और बुरहानपुर जिलों को शामिल करने वाले खंडवा वन मंडल हमेशा अतिक्रमण का केंद्र रहा है. मई 2005 के वन मंडल के आंकड़ों के मुताबिक, इन चार जिलों में 58 हज़ार हेक्टेयर पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया गया था. अकेले बुरहानपुर में अतिक्रमण की मात्रा 2017 तक बढ़कर 55 हज़ार हेक्टेयर हो गई. मूल रूप से जिले में 1 लाख 90 हज़ार 100 हेक्टेयर का विशाल वन क्षेत्र है.

बुरहानपुर फॉरेस्ट डिवीजन में सात रेंज हैं, जिनमें सबसे ज्यादा तबाही नेपानगर, नवरा और असीरगढ़ में हुई है. नेपानगर और नवरा रेंज के अंतर्गत आने वाले घाघरला, सिवाल, बकड़ी, पंखेड़ा के जंगलों ने सबसे ज्यादा मार झेली है.

राज्य के वन विभाग के मुताबिक, 2018 के बाद से नवरा रेंज के तहत आने वाली 1,623 हेक्टेयर भूमि अतिक्रमणकारियों के पास चली गई. नेपानगर रेंज में कुल 21 हज़ार 716 हेक्टेयर में से 6,806 हेक्टेयर पर कब्जा कर लिया गया.

पिछले कुछ वर्षों में अतिक्रमण तेज़ हो गया है. जिसने पुराने बसने वालों और नए अतिक्रमणकारियों के बीच विवादों का संदर्भ निर्धारित किया है.

इस प्रक्रिया में आदिवासी कल्याण के लिए काम करने वाले जागृत आदिवासी दलित संगठन (JADS) ने पुराने बसने वालों का समर्थन किया और जिला प्रशासन और वन विभाग को नए अतिक्रमणकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा है.

हालांकि, अप्रैल में नेपानगर थाने पर हुए हमले के बाद ही प्रशासन सक्रिय हुआ. फिर उसने संबंधित सभी पक्षों के खिलाफ कार्रवाई की.

1 मई को जेएडीएस को भी आलोचना का सामना करना पड़ा जब इसकी नेता माधुरी बेन समेत आठ कार्यकर्ताओं के खिलाफ भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 66ए के तहत मामला दर्ज किया गया.

निमाड़ (अब खंडवा) सर्कल में आदिवासियों का इतिहास ब्रिटिश शासन के समय का है. 1878 में अंग्रेजों ने एक वन अधिनियम पारित किया, जिसे हरित आवरण का पोषण करने के लिए नहीं बल्कि इसे काटने के लिए बनाया गया था.

निमाड़ गजेटियर में इस बात का विवरण है कि कैसे बड़वानी जिले से भील आदिवासियों को जंगल काटने के लिए मांडवा (अब यह नेपानगर तहसील में पड़ता है) लाया गया था.

जब तक आदिवासियों ने इसे अपना घर नहीं बनाया तब तक यहां कोई मानवीय उपस्थिति नहीं थी. जिससे पता चलता है कि आदिवासी यहां के मूल निवासी नहीं थे. नेपानगर शहर भी वन भूमि पर बसाया गया था और 1956 में यहां एक न्यूजपेपर मिल भी थी.

जंगलों के लिए दो समूह में बंटे लोग

फिलहाल जंगलों पर कब्ज़ा करने वाले दो समूहों में बंटे हुए हैं – स्थानीय आदिवासी जो कई सालों से यहां रह रहे हैं और दूसरे जो कुछ साल पहले से यहां रह रहे हैं. दूसरे समूह ने कथित तौर पर एक ही रात में कई एकड़ जंगल काट दिए जिससे क्षेत्र में शत्रुतापूर्ण माहौल पैदा हो गया.

स्थानीय आदिवासी उमाकांत पाटिल ने कहा कि नए निवासी समूहों में जंगल में घुसे, पेड़ गिराए और उन्हें आग लगा दी. उन्होंने कहा, “कभी-कभी यह आग हमारे खेतों तक पहुंच जाती है. हम अपने जंगल को बचाना चाहते हैं लेकिन विभाग के कर्मचारी सहयोग नहीं करते हैं.”

वहीं एक अन्य स्थानीय आदिवासी छायाबाई ने कहा कि अतिक्रमणकारियों को अक्सर जंगल के किनारे देखा गया. उन्होंने दुख जताते हुए कहा, “उन्होंने हमारे खेतों के बगल में खड़े पेड़ों को काट दिया, जिससे हमें अपनी फसल की देखभाल करने से रोका गया. पांच एकड़ में लगी मेरी चने की फसल खराब हो गई और समय पर कटाई नहीं हो सकी.”

बकड़ी के राम जमरा ने बताया कि कैसे रात के अंधेरे में सैकड़ों लोग जंगल में घुस आए और फिर स्थानीय लोगों ने तुरंत विभाग को सूचना दी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. उन्होंने कहा, “वन विभाग के कर्मचारी इन हमलों से डरे हुए हैं. उनके पास हथियार इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है. अतिक्रमण विरोधी अभियानों के दौरान पुलिस और सेना के जवान उनके साथ देखे जाते हैं.”

गेंदालाल सिसौदिया (70) 1977 में बदनापुर पंचायत के अंतर्गत चैनपुरा गांव में बस गए थे. 1980 तक वन विभाग ने उनके खिलाफ आठ मामले दर्ज किए. हालांकि, अदालत ने उन्हें सभी मामलों में बरी कर दिया लेकिन बावजूद इसके विभाग ने पट्टा देने के उनके आवेदन पर विचार नहीं किया.

उन्होंने दावा किया कि उनका नाम पिछले साल की मंडवा घटना में घसीटा गया था जिसके कारण उन्हें लगातार सात महीने तक जेल में रहना पड़ा था. उन्होंने कहा, “यह सब इसलिए क्योंकि मैं न सिर्फ अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा हूं बल्कि जेएडीएस कार्यकर्ता के रूप में अपने साथी आदिवासियों के लिए भी लड़ रहा हूं. मैंने हिम्मत नहीं हारी है. जब तक इस शरीर में जान है, मैं इस जंगल को छोड़ने वाला नहीं हूँ.”

उन्होंने कहा कि पट्टे के लिए आवेदन करने वाले 130 लोगों में से केवल एक को ही मंजूरी मिली.

वहीं बदनापुर पंचायत की सरपंच रुक्माबाई वास्कले की अनुपस्थिति में उनके प्रतिनिधि बिशन वास्कले ने कहा कि त्रुटियां बताकर दावे खारिज कर दिए गए हैं. उन्होंने कहा, “राजस्व और वन अधिकारी दावों के प्रस्ताव और सत्यापन के लिए सहयोग नहीं करते हैं. पंचायत आदिवासियों का पूरा समर्थन करती रहेगी. हम इस लड़ाई में उनके साथ हैं.”

पंचायत की आबादी 1,200 से अधिक है, जिसमें 823 मतदाता हैं. लोग साल 2000 से पहले यहां बसे हैं और 2016 के नेपानगर उपचुनाव और 2018 के राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किए गए वादे के अनुसार पट्टे के पात्र हैं.

इस साल के अंत में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों को देखते हुए ग्रामीणों को जरूरी कार्रवाई के बिना फिर से खोखले आश्वासनों की उम्मीद है.

अतिक्रमण को लेकर उबाल तेज़

पिछले तीन वर्षों में वन विभाग और ग्रामीणों को कथित तौर पर अतिक्रमणकारियों द्वारा किए गए हमलों का सामना करना पड़ा है. 5 जुलाई, 2020 को घाघरला में पथराव की घटना सामने आई. इसके बाद 19 जुलाई और 7 अगस्त को अनियंत्रित घटनाएं हुईं.

इसके बाद 7 नवंबर को घाघरला में 350 प्रशासनिक कर्मचारियों को शामिल करते हुए एक अतिक्रमण विरोधी अभियान शुरू किया गया. उनमें से सत्रह लोग हिंसा में घायल हो गए, जिसमें हथियार छीनना भी शामिल था.

2 जुलाई 2021 को असीरगढ़ ज़ोन के अंतर्गत दाहीनाला उत्तर में फॉरेस्ट गार्ड को अतिक्रमणकारियों के गुस्से का सामना करना पड़ा. कुछ महीने बाद 21 नवंबर को नेपानगर के अतिक्रमण स्थल चिड़ियापानी में रात के अंधेरे में एक आरोपी को गिरफ्तार करने गई पुलिस टीम पर हमला किया गया.

सबसे हालिया घटना में 7 अप्रैल को 60 से अधिक आदिवासियों ने नेपानगर पुलिस स्टेशन पर हमला किया और तीन गिरफ्तार लोगों को हिरासत से छुड़ा लिया.

जेएडीएस नेता माधुरी बेन ने कहा, “यह (पुलिस स्टेशन पर हमला) एक सुनियोजित साजिश है. घटना के बाद भी प्रशासन ने तेजी से कार्रवाई नहीं की. पहले उन्होंने कहा कि आरोपी जंगल में काफी अंदर चले गए हैं इसलिए हम उन तक नहीं पहुंच सकते. फिर उन्होंने ग्रामीणों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की, यह तर्क देते हुए कि उन्होंने अतिक्रमणकारियों के साथ मिलीभगत की है.”

उन्होंने कहा कि जंगलों में रहने वाले सभी आदिवासी कई पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं. उन्होंने दावा किया कि हाल के वर्षों में अंधाधुंध कटाई तेज़ हो गई है. उन्होंने आरोप लगाया, “प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए हमने जो सर्वेक्षण किया था उसके मुताबिक अक्टूबर 2022 से अब तक लगभग 15 हज़ार हेक्टेयर जंगल नष्ट हो चुके हैं, जिसे बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है. इसमें वन विभाग की भूमिका है.”

वहीं आरोपों का खंडन करते हुए अनुपम शर्मा, जो पुलिस स्टेशन पर हमले के समय प्रभागीय वन अधिकारी थे, ने बताया कि उन्होंने जेएडीएस सदस्यों से उन लोगों के नाम बताने को कहा था जिनके बारे में उनका मानना ​​है कि वे साजिश का हिस्सा थे और इसके सबूत भी दे हालांकि, उन्होंने हमें न तो कोई नाम दिया और न ही सबूत. तो यह स्पष्ट है कि आरोप निराधार हैं.

15 हज़ार हेक्टेयर के कथित नुकसान पर अनुपम शर्मा ने कहा, ”जंगल उतना नहीं काटा गया है जितना वे बता रहे हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जंगल काटा गया है.”

इस मामले पर जेएडीएस के रुख के बारे में विस्तार से बताते हुए माधुरी बेन ने कहा, “हम नए अतिक्रमणकारियों का विरोध करते हैं जो न केवल जंगल को नष्ट करते हैं बल्कि स्थानीय आदिवासियों को भी परेशान करते हैं और वन कर्मचारियों पर हमले करते हैं. हमारा संगठन उन लोगों को साथ ले रहा है जो 2000 से पहले यहां बसे हैं. उनके पास दिखाने के लिए पुख्ता सबूत हैं क्योंकि विभाग द्वारा उनके खिलाफ पहले के दिनों में दायर किए गए मामले भी उनके यहां रहने की समयसीमा को साबित कर सकते हैं.”

जमीन पर अधिकार का दावा करने वालों में भील समाज के सदस्य मदन वास्कले भी शामिल हैं.

उन्होंने अपील की, “जंगल हमारा मंदिर है, हमारी आजीविका का साधन है. जंगल से निकलने वाले महुआ, चारोली और तेंदूपत्ता से हमारी जीविका चलती है. हमारे मवेशी वन संसाधनों पर निर्भर हैं. अगर विभाग ने हमारी शिकायतों पर कार्रवाई की होती तो हजारों एकड़ जंगल जीवन से समृद्ध होता. ऐसे लोग हैं जो हरियाली को साफ करते हैं और वन कर्मचारियों पर हमला करते हैं. लेकिन हम कानून के दायरे में रहकर इसकी रक्षा करते हैं. बदले में हम सरकार से अपनी वाजिब जमीन की मांग कर रहे हैं.”

यह एक बेहद अजीबोग़रीब स्थिति है जब जंगल की ज़मीन पर आदिवासी बनाम आदिवासी की लड़ाई चल रही है. इस पूरे मामले में प्रशासन संजीदगी से काम करने की बजाए, इस मौके को आदिवासी अधिकार के लिए काम करने वाले एक संगठन के खिलाफ़ इस्तेमाल करने की फ़िराक़ में है.

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