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मणिपुर हिंसा: धार्मिक मतभेदों से ज़्यादा ‘भूमि अधिकार और पहचान’ की लड़ाई

मणिपुर में हिंसा का एक बड़ा कारण ज़मीन बताया जाता है. हाओकिप का कहना है कि मैतेई समुदाय चाहता है कि आदिवासियों से भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध को खत्म हो जाए. अगर मैतई भी आदिवासी मान लिये जाते हैं तो स्वभाविक तौर पर अभी वे कुकी लोगों से ज़मीन ख़रीद सकते हैं.

मणिपुर में मैतई और आदिवासी समुदाय कुकी के बीच प्रतिस्पर्धा “धार्मिक मतभेदों से ज़्यादा भूमि अधिकार और पहचान” पर केंद्रित है.गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोसाइटी एंड डेवलपमेंट के सहायक प्रोफेसर खैखोलेन हाओकिप (Khaikholen Haokip) ने एक सेमिनार में ये बात कही है.

हाओकिप वडोदरा में संस्कृति एवं विकास केंद्र द्वारा आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में ‘मणिपुर में भूमि कानून, जनजातीय भूमि अधिकार’ पर एक सत्र को संबोधित कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि राज्य (सरकार) मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 (Manipur Land Revenue and Land Reforms Act, 1960) में संशोधन करके मणिपुर में अल्पसंख्यक कुकी जनजाति (Kuki tribe) को उनके भूमि अधिकारों से वंचित करने के लिए संवैधानिक तंत्र का उपयोग कर रही है.

हाओकिप ने कहा, “मणिपुर में अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र हैं जहां कुकी तलहटी में रहते हैं, नागा जनजातियां पहाड़ियों में रहती हैं और गैर-आदिवासी (मैतेई) घाटी मे रहते हैं. आदिवासियों को संवैधानिक संरक्षण दिया गया है और पहाड़ी क्षेत्रों को राज्य में राजनीतिक रूप से कुछ स्वायत्तता प्राप्त है ताकि आदिवासियों को अपना जीवन बनाए रखने की अनुमति मिल सके. लेकिन राज्य पारंपरिक रीति-रिवाजों को नष्ट करने के लिए संवैधानिक तंत्र का उपयोग कर रहा है.”

उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में तलहटी क्षेत्रों को मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 के दायरे में शामिल किया गया है. इस तरह ज़मीन आदिवासियों से गैर-आदिवासियों में ट्रांसफर करने की अनुमति दी गई है. जब अधिनियम प्रमोट किया गया था तो इसे सिर्फ घाटी क्षेत्रों में लागू किया जाना था.

अधिनियम की धारा 158 आदिवासी भूमि को गैर आदिवासियों को ट्रांसफर करने पर रोक लगाती है. हालांकि, अधिनियम को कमजोर कर दिया गया है.

हाओकिप ने कहा कि जहां नागा सामुदायिक भूमि स्वामित्व की प्रणाली का पालन करते हैं. वहीं कुकी व्यक्तिगत भूमि प्रणाली का पालन करते हैं जिस पर मुखिया का नियंत्रण होता है.

उन्होंने कहा कि कई आदिवासी विलेज चीफ़ को यह पता ही नहीं है कि उनकी ज़मीन भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम के दायरे में आ गई है. इसलिए अब उन्हें अपनी इस ज़मीन का भूमि रिकॉर्ड रखने की आवश्यकता हो सकती है. ऐसा ना करने पर उन्हें अपनी ही ज़मीन पर अतिक्रमणकारियों के रूप देखा जाएगा और उन्हें बेदखल भी किया जा सकता है.

मणिपुर में हिंसा का एक बड़ा कारण ज़मीन बताया जाता है. हाओकिप का कहना है कि मैतेई समुदाय चाहता है कि आदिवासियों से भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध को खत्म हो जाए. अगर मैतई भी आदिवासी मान लिये जाते हैं तो स्वभाविक तौर पर अभी वे कुकी लोगों से ज़मीन ख़रीद सकते हैं.

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हाओकिप ने कहा, “मणिपुर एकमात्र राज्य है जहां आदिवासी अल्पसंख्यक हैं जबकि पड़ोसी राज्यों में आदिवासियों का वर्चस्व है. मणिपुर में घाटी (बहुसंख्यक समुदाय) के पास 60 में से 40 सीटें हैं जबकि आदिवासियों के पास 20 सीटें हैं.”

हाओकिप का मानना है कि मैतेई समुदाय द्वारा आदिवासी दर्जे की मांग करने का एक कारण संपत्ति के अधिकारों के हस्तांतरण के माध्यम से कुकियों की भूमि प्राप्त करने में सक्षम होना था.

उन्होंने कहा, “राज्य ने जानबूझकर तोड़फोड़ की और कई आदिवासी गांवों को मुआवजा देने से इनकार कर दिया. जिन्हें हाईवे आदि बनाने के लिए अधिग्रहित किया गया था.”

वहीं इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट, नई दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर, वर्जिनियस खाखा ने कहा कि मणिपुर की जनजातियों में साक्षरता अधिक है. उन्हें अपने भूमि अधिकारों के बारे में अधिक जागरूक होना चाहिए और उनके पास अपने भूमि रिकॉर्ड होने चाहिए ताकि वे अपने निजी भूमि क्षेत्र पर किसी भी सरकारी कार्रवाई को रोकने में सक्षम हो सकें.

मणिपुर की स्थिति

मणिपुर और त्रिपुरा पूर्व रियासतें हैं जिन्हें अक्टूबर 1949 में भारत में शामिल किया गया था. मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा को एक ही दिन में राज्य का दर्जा दे दिया गया था. मणिपुर को शुरू में छठी अनुसूची में शामिल नहीं किया गया था.

मणिपुर में मैतेई लोग लगभग 53 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि विभिन्न नागा जातीय समूहों में 24 प्रतिशत शामिल हैं और कुकी/ज़ोमी जनजातियाँ (जिन्हें चिन-कुकी-मिज़ो लोगों के रूप में भी जाना जाता है) जनसंख्या का 16 प्रतिशत हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, नागा और कुकी/ज़ोमी जातीय समूह का मणिपुर के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा है, जो इसके भूभाग का 90 प्रतिशत है. लंबे समय से मणिपुर में विशेष रूप से पहाड़ी इलाकों में प्रशासन की खराब गुणवत्ता का ज्वलंत प्रश्न रहा है.

इसलिए इस संदर्भ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371सी का उचित मूल्यांकन करना जरूरी बन जाता है. यह प्रावधान न सिर्फ सभी निर्वाचित जनजातीय विधायकों के प्रतिनिधित्व वाली पहाड़ी इलाका समितियों (एचएसी) की स्थापना के लिए अनिवार्य है, बल्कि उनके उचित कामकाज को सुरक्षित करने के लिए सरकार के कामकाज के नियमों में संशोधन का भी प्रावधान करता है.

26 दिसंबर, 1971 को भारत सरकार ने पहाड़ी इलाकों और आदिवासी समूहों की सुरक्षा के लिए मणिपुर (पहाड़ी इलाका) जिला परिषद अधिनियम बनाया था. इस अधिनियम के कारण मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में छह स्वायत्त जिला परिषद या एडीसी बनाने का रास्ता साफ हुआ था.

ये तब तक काम करेंगी जब तक कि उस इलाके को पूर्ण जिला न बना दिया जाए. 1972 में राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद एडीसी के कामकाज़ को चलाने के लिए मणिपुर विधानसभा द्वारा नियम बनाए गए थे.

एचएसी और एडीसी स्थापित करने के मामले में जरूर संवैधानिक विशेषाधिकार की सराहना करनी चाहिए: इन्हे आदिवासी भावनाओं और लोकाचार को तरजीह देते हुए तथा स्थानीय स्तर पर सुशासन सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था और इसकी तुलना संविधान के भाग IX के तहत ग्राम पंचायतों से की जा सकती है जो कानूनन बाध्य हैं.

जो भी हो मणिपुर में पिछले 6 महीने से भी अधिक समय से जारी हिंसा के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिर ये संस्थान कितने प्रभावी रहे हैं.

कल्पना के विपरीत एडीसी को अप्रभावी बना दिया गया. 18 जुलाई, 1990 तक पहाड़ी इलाकों में छठी अनुसूची के विस्तार की मांग को लेकर प्रस्ताव पास करने पर एचएसी को मजबूर किया गया. पहाड़ी लोगों ने उस समय यह भी कहा था कि जब तक यह विस्तार नहीं हो जाता, तब तक एडीसी का कोई चुनाव नहीं होगा. यह मांग आज तक पूरी नहीं हुई है.

संक्षेप में एडीसी निरर्थक हो गई हैं. स्थापना के 21 वर्षों के बाद 2010 में चुनाव होने पर इन्हें संक्षिप्त रूप से पुनर्जीवित किया गया था. लेकिन फिर 31 मई, 2020 से चुनाव नहीं हुए हैं. इसके बजाय सरकार ने चेयरपर्सन्स को “कार्यवाहक” का दर्जा देकर भंग एडीसी को प्रतीकात्मक रूप से बहाल कर दिया था.

इसलिए दूसरा सवाल यह उठता है कि, इन चुनावों में देरी करने का राज्य सरकार का क्या औचित्य था?

2021 में एचएसी ने मणिपुर (पहाड़ी इलाक) एडीसी विधेयक 2021 को सदन के पटल पर रखने के लिए विशेष विधानसभा सत्र की मांग की थी, जिसमें 1971 के जिला परिषद अधिनियम में संशोधन करने की मांग की गई थी.

राज्य सरकार ने इस अनुरोध को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिसने ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर (एटीएसयूएम) द्वारा लगाए गए आर्थिक नाकेबंदी की जमीन तैयार कर दी. वही इसने छात्र संगठानों जिन्होने 3 मई को एक शांतिपूर्ण विरोध रैली का आयोजन किया था, को भी हवा दी.

हिंसा की जड़

ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर (ATSUM) ने 3 मई, 2023 को मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में शामिल करने की मांग के खिलाफ आदिवासी एकजुटता मार्च (Tribal solidarity march) का आयोजन किया था, जिसके तुरंत बाद चुराचांदपुर जिले और आसपास के इलाकों में हिंसा भड़क उठी, जो अब तक जारी है.

लेकिन ATSUM के एकजुटता मार्च से कुछ दिन पहले चुराचांदपुर के लमका कस्बे में भी हिंसा भड़की थी. यहां मुख्यमंत्री एन बीरेन एक ओपन जिम का उद्घाटन करने वाले थे.

हालांकि, बातचीत के मुख्य विषय हिंसा और राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति के इर्द-गिर्द हैं. लेकिन यह समझना जरूरी है कि इस मुद्दे की जड़ में वास्तव में कुछ और ही है.

दरअसल, चुराचांदपुर के डिप्टी कमिश्नर ने इस साल फरवरी के मध्य में चुराचांदपुर और नोनी जिलों की सीमा पर स्थित कई गांवों (लगभग 38) में ‘अवैध प्रवासियों’ को पकड़ने के लिए एक पहचान अभियान चलाने का आदेश दिया था.

इस आदेश के बाद जल्द ही मणिपुर के वन विभाग ने यह आरोप लगाते हुए कि गांव की बस्ती ने चुराचांदपुर-खोपुम संरक्षित क्षेत्र का अतिक्रमण किया था, उन्होंने सुरक्षा बलों के साथ चुराचंदपुर में कुकी आदिवासी गांव के सोंगजांग के निवासियों को बेदखल करना शुरू कर दिया.

जैसे ही नोटिस की खबर और सामग्री आस-पास के गांवों तक पहुंची. आदिवासियों ने एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें प्रदर्शनकारियों के साथ-साथ सुरक्षा बल के कई लोगों को चोटें पहुंची.

संरक्षित वन भूमि को लेकर जारी किया गया सरकारी आदेश सरकार और आदिवासियों के बीच विवाद की मुख्य जड़ है. सरकार जिसके लिए ‘अतिक्रमण’ शब्द का उपयोग करती है, उसे आदिवासी ‘बस्ती’ कहते हैं.

सरकार मणिपुर वन नियम, 2021 के नियम 73 का हवाला देती है, जो वन अधिकारियों को वन भूमि पर किसी भी अतिक्रमण को बेदखल करने का अधिकार देता है. इसके अलावा यह विशेष रूप से यह भी निर्देशित करता है कि अतिक्रमणकारियों को बिना सूचना के बेदखल किया जा सकता है.

वहीं दूसरी ओर इसके विपरीत, आदिवासी सदस्य भारतीय वन अधिनियम, 1927, धारा 29 का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है कि भूमि पर निवास करने वाले निजी लोगों के अधिकारों की जांच किए बिना आरक्षित वन घोषित करने की कोई अधिसूचना (नोटिफिकेशन) नहीं बनाई जाएगी. इस तरह का नोटिफिकेशन जारी करने से पहले राज्य सरकार को एक सर्वे करने की जरूरत होती है.

मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 भी यह निर्देशित करता है कि संबंधित अथॉरिटी को स्थानांतरण और पुनर्वास के लिए पात्र ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए जो इसके लिए पात्र हैं और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि पुनर्वास के स्थल पर इनके लिए बुनियादी स्वतंत्रता की गारंटी है.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, धारा (3) (1) (g) भी स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित करती है कि किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति को उसकी भूमि से गलत तरीके से बेदखल करना या किसी भी भूमि पर उनके अधिकारों के उपभोग में हस्तक्षेप करना गैरकानूनी है, इस एक्ट के तहत इस तरह के कृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं और दंडनीय हैं.

एक घटना में सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे केवल 2021 में स्थापित या बसाई गई नई बस्ती को बेदखल कर रहे हैं, जोकि मणिपुर के वन संरक्षण कानूनों का भी उल्लंघन है.

आदिवासियों का तर्क है कि वे पिछले कई वर्षों से इन गांवों में रह रहे हैं और सरकार ने यहां से हमें हटाने का जो नोटिस जारी किया है वह कुछ और नहीं बल्कि हमारी जमीन हड़पने और हमें हमारी पुश्तैनी जमीन को हड़पने का प्रयास है. इसलिए यह सरकार की ओर से यह गैरकानूनी कृत्य है.

सरकार द्वारा जिन जगहों को खाली कराने का नोटिस जारी किया गया था उसमें आदिवासी भूमि (विशेष रूप से कुकी और नागा के स्वामित्व वाली भूमि) का एक बड़ा हिस्सा है. ये आदिवासी बहुल पहाड़ी क्षेत्र हैं, जहां अधिकांश समुदाय जंगल में रहते हैं.

इन आदिवासियों के बहुत ही बुनियादी प्रश्न हैं जैसे कि अगर इस तरह का कोई फैसला किया जाना था तो उनसे (आदिवासियों से) सलाह क्यों नहीं ली गई? पहले सूचना देना, सामुदायिक भागीदारी और पारस्परिक रूप से सहमत पुनर्वास योजना की उचित प्रक्रियाएं कहां हैं? लेकिन इनका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है…

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