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निकोबार: मेगा प्रोजेक्ट के लिए आदिवासी परिषद (Tribal Council) से चर्चा तक नहीं की गई

ग्रेट निकोबार परियोजना 910 वर्ग किलोमीटर वाले इलाके वाले द्वीप के 166 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली होगी, जिसके लिए कम से कम 130.75 वर्ग किलोमीटर घने जंगल क्षेत्र को डायवर्ट करना होगा. भूमि का करीब 84.1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र यानी एक बड़ा हिस्सा आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित है जिसे डिनोटिफाई करना होगा.

केंद्र सरकार अगले महीने ग्रेट निकोबार द्वीप (Great Nicobar island) पर नीति आयोग की 72,000 करोड़ रुपये की मेगा प्रोजेक्ट के पहले चरण के लिए बोलियां आमंत्रित करने के लिए तैयार है. इस परियोजना का लक्ष्य एक ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, एक इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पर्यटन सुविधाएं और एक पावर प्लांट बनाना है लेकिन इसमें स्थानीय पारिस्थितिकी का बड़े पैमाने पर विनाश शामिल है.

ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल को गैलाथिया खाड़ी (Galathea Bay) में स्थापित करने की योजना है, जो विशाल लेदरबैक कछुए का एक प्रमुख घोंसला स्थल है.

गैलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य और मेगापोड वन्यजीव अभयारण्य को जनवरी, 2021 में डी-नोटिफाई कर दिया गया था, जिससे मेगा प्रोजेक्ट के लिए रास्ता बनने की पूरी संभावना थी.

मेगापोड मुर्गी जैसे स्थलीय पक्षी हैं. निकोबार मेगापोड एक प्रकार का स्क्रबफॉवल है जो सिर्फ निकोबार द्वीप समूह पर पाया जाता है. निकोबार मेगापोड और विशाल लेदरबैक कछुए दोनों ही कमजोर प्रजातियाँ हैं. ग्रेट निकोबार द्वीप पर अन्य स्थानीय प्रजातियाँ भी हैं जैसे ग्रेट निकोबार क्रेक, निकोबार ट्री फ्रॉग आदि.

मोटे तौर पर इस परियोजना में द्वीप पर लगभग 130 वर्ग किलोमीटर वर्षावनों का डायवर्जन शामिल है. समृद्ध जैव विविधता के ऐसे नुकसान की ‘क्षतिपूर्ति’ करने के लिए सरकार ने परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया के हिस्से के रूप में तीन नए वन्यजीव अभयारण्यों के निर्माण का प्रस्ताव दिया है.

मई 2022 में अंडमान और निकोबार प्रशासन ने तीन सार्वजनिक नोटिस जारी किए. जिसमें तीन वन्यजीव अभयारण्य बनाने का इरादा बताया गया. जिसमें लिटिल निकोबार द्वीप पर लेदरबैक कछुआ अभयारण्य, मेरो द्वीप पर कोरल अभयारण्य और मेनचल द्वीप पर मेगापोड अभयारण्य शामिल है.

दो महीने बाद जुलाई में अंडमान एंड निकोबार प्रशासन ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि उसे तीन अभयारण्यों के निर्माण पर कोई आपत्ति नहीं मिली है. आदेश का निष्कर्ष है कि क्योंकि कोई आपत्ति प्राप्त नहीं हुई है इसलिए “तीन अभयारण्यों की सीमा के भीतर किसी भी व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं है” और द्वीपों में प्रवेश पर भी “प्रतिबंध” होंगे.

आखिरकार 3 अक्टूबर को अंडमान एंड निकोबार प्रशासन के तहत पर्यावरण और वन विभाग ने तीन अभयारण्यों की घोषणा करते हुए आधिकारिक अधिसूचना जारी की: लिटिल निकोबार पर 13.75 वर्ग किलोमीटर और पूरे मेरो द्वीप पर 2.73 वर्ग किलोमीटर और मेन्चल द्वीप पर 1.29 वर्ग किलोमीटर शामिल हैं. इस क्षेत्र में आसपास के जल क्षेत्र शामिल हैं.

लेकिन स्थानीय आदिवासी परिषद ने अभयारण्यों के निर्माण पर यह कहते हुए आपत्ति जताई है कि उनसे पहले कभी परामर्श नहीं किया गया था.

ग्रेट निकोबार और लिटिल निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी परिषद के अध्यक्ष बरनबास मंजू ने MBB से बातचीत में बताया, “जब मैं ग्रेट निकोबार में कैंपबेल खाड़ी के सहायक आयुक्त के कार्यालय में गया तो मैंने नोटिस बोर्ड पर [अभयारण्य बनाने का इरादा बताते हुए] आदेश देखा. हमें आदेश की प्रति नहीं दी गई.”

अगस्त में आदिवासी परिषद ने निकोबार जिले के उपायुक्त को पत्र लिखकर कहा कि वे “इतनी जल्दी और अचानक” अभयारण्य घोषित करने के फैसले से “परेशान” हैं. उन्होंने हैरानी भी व्यक्त की क्योंकि “यह निर्णय हमारे मूल निवासियों और इन द्वीपों के पारंपरिक मालिकों और देखभालकर्ताओं के साथ किसी भी परामर्श के बिना किया गया था.”

पत्र की एक प्रति अंडमान और निकोबार प्रशासन के मुख्य सचिव, द्वीपों के उपराज्यपाल और अंडमान और निकोबार वन विभाग के प्रभागीय वन अधिकारी सहित कई अन्य अधिकारियों को भी भेजी गई थी.

उनमें से किसी ने भी जवाब नहीं दिया. इसके बजाय दो महीने बाद अक्टूबर में उन्होंने तीन वन्यजीव अभयारण्य बनाने के लिए आधिकारिक अधिसूचना जारी की.

मंजू ने अफसोस जताते हुए कहा, “कोई हमारी बात नहीं सुनता. कोई ध्यान नहीं देता. उनका [सरकारी अधिकारियों का] विकास के प्रति अपना दृष्टिकोण है और वे आगे बढ़ेंगे.”

जनजातीय परिषद के पत्र में कहा गया है, “हमसे कभी नहीं पूछा गया कि ये वन्यजीव प्रजातियाँ हमारे समुद्र तटों पर कैसे बनी रहती हैं. कोरल रीफ, मेगापोड, खारे पानी के मगरमच्छ या लेदरबैक समुद्री कछुए जैसे कई अन्य वन्यजीव जो हमारे द्वीपों पर मौजूद हैं. हम उनकी उपस्थिति से अवगत हैं और उनके साथ सह-अस्तित्व में रहे हैं. हमारे समुदाय के भीतर कोई वन्यजीव विभाग नहीं है लेकिन हमारे पास पारंपरिक अधिकार हैं, हमारे बुजुर्गों द्वारा बनाए और लागू किए गए कानून हैं और पारंपरिक प्रथाएं भी हैं जिनके कारण ये प्रजातियां हमारे द्वीपों पर बनी रहती हैं और समृद्ध होती रहती हैं.”

पर्यावरण वकील और वन और पर्यावरण के लिए कानूनी पहल के सह-संस्थापक ऋत्विक दत्ता ने कहा, “यह जरूरी है कि वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों का अक्षरश: पालन किया जाए. अभयारण्यों की घोषणा इस तरह से की जानी चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रभावित समुदाय को किसी क्षेत्र को अभयारण्य बनाने के इरादे के बारे में सूचित किया जा सके.”

दत्ता ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने के संदर्भ में कानून स्पष्ट है लेकिन द्वीपों पर तीन अभयारण्यों के निर्माण के संबंध में जो हुआ है वो “तेजी से, बेतुका और एक खाली औपचारिकता के अलावा कुछ नहीं है.”

भूमि और संसाधन अधिकार ख़तरे में

लिटिल निकोबार में लगभग 800 लोग रहते हैं, जबकि मेरो और मेन्चल निर्जन हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि तीनों द्वीपों पर वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित करने का इरादा बताने वाला आदेश ग्रेट निकोबार द्वीप पर सार्वजनिक प्राधिकरणों के कार्यालयों में प्रदर्शित किया गया था, न कि लिटिल निकोबार में जहां कुछ प्रभावित समुदाय रहते हैं.

मेन्चल और मेरो द्वीपों पर एक अभयारण्य घोषित करने के निहितार्थों के बारे में विस्तार से बताते हुए आदिवासी परिषद के अध्यक्ष मंजू ने कहा कि स्थानीय समुदाय पीढ़ियों से उन्हें संसाधन द्वीपों के रूप में उपयोग कर रहे हैं.

मंजू ने कहा, “हमारे पास [द्वीपों पर] नारियल के बागान हैं. ये ज़मीनें हमारे लिए भी पवित्र हैं.”

उन्होंने कहा कि काटे गए नारियल का उपयोग निकोबारियों द्वारा पाले गए सूअरों को खिलाने और खोपरा बनाने के लिए भी किया जाता है. मेरो और मेन्चल पर शिकार करना वर्जित है क्योंकि समुदाय का मानना है कि आत्माएँ उनकी रक्षा करती हैं. इन द्वीपों में संसाधनों के सतत उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक देखभालकर्ता भी हैं.

लेकिन वन्यजीव अभयारण्यों के निर्माण के साथ इन द्वीपों में प्रवेश और पहुंच के अधिकार अब कानूनी रूप से प्रतिबंधित हो गए हैं.

अंडमान और निकोबार में दो दशकों तक काम करने वाले एक सामाजिक पारिस्थितिकीविद् और संरक्षणवादी मनीष चंडी ने कहा, “गैलाथिया खाड़ी मेगापोड्स से भरी हुई है. इस क्षेत्र को नष्ट करने और क्षतिपूर्ति के लिए लिटिल निकोबार पर अभयारण्य बनाने का कोई मतलब नहीं है. यह संरक्षण के प्रति अन्याय है.”

चंडी ने यह भी कहा कि मेन्चल पर मेगापोड्स के केवल दो जोड़े हैं और ऐसा देखते हुए उन्होंने कहा, “इतनी छोटी आबादी के लिए अभयारण्य बनाने का उद्देश्य क्या है? बेवजह स्थानीय समुदायों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है. यह लोगों को वन्य जीवन से अलग करने की एक परियोजना है. यहां कोई सामाजिक पारिस्थितिकी नहीं है.”

इसी तरह की चिंताओं को व्यक्त करते हुए दत्ता ने कहा, “किसी क्षेत्र को अभयारण्य घोषित करने के कारणों को स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए. अगर स्थानीय समुदायों से कोई ख़तरा या संभावित ख़तरा नहीं है तो पहुंच को प्रतिबंधित करने का कोई उद्देश्य नहीं है.”

दिलचस्प बात यह है कि गैलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य की अधिसूचना रद्द करने का ऑन-पेपर कारण अधिकारों का निपटान न होना बताया गया है.

दत्ता ने समझाया कि विडंबना यह है कि जहां पूरे अभयारण्य को इस आधार पर अधिसूचित किया गया था कि अधिकारों का निपटारा नहीं किया जा सकता है और इसलिए वन्यजीवों के हित पर लोगों के अधिकार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. नए अभयारण्यों के मामले में एक पूर्ण मोड़ लिया गया है जिसमें इस बात पर कोई चिंता नहीं दिखाई गई है कि क्या प्रभावित समुदाय से परामर्श किया गया है और उनकी सहमति ली गई है.

अधिकारों के निपटान में कई चरणों की एक सीरीज शामिल होती है, जो एक साथ उठाए जाने पर, स्वतंत्र और पूर्व सूचित सहमति की कानूनी आवश्यकता को पूरा करती है. दत्ता ने बताया कि नए अभयारण्यों की घोषणा के मामले में स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं किया गया है.

प्रोजेक्ट का विजन

यह प्रोजेक्ट नीति आयोग के उस विजन का हिस्सा है जिसके तहत 72,000 करोड़ रुपये के अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, एयरपोर्ट, थर्मल पावर प्लांट और द्वीप पर करीब 6.5 लोगों की आबादी बसाने के उद्देश्य के साथ टाउनशिप का निर्माण किया जाना है.

अभी इस द्वीप की आबादी करीब 8,000 है. इनमें शोम्पेन जनजाति के 237 आदिवासी और निकोबारी जनजाति के 1,094 लोग शामिल हैं.

2021 की शुरुआत में नीति आयोग ने ‘लिटिल अंडमान द्वीप के सतत विकास’ शीर्षक से एक विजन डॉक्युमेंट सर्कुलेट किया था, जिसमें ग्रेट निकोबार द्वीप और साथ लिटिल अंडमान दोनों को विकसित करने का प्रस्ताव था.

इसमें कहा गया था कि ‘देश के आर्थिक और रणनीतिक लाभ के लिए इन द्वीपों के विकास के साथ इनकी समृद्ध जैव-विविधता बनाए रखने और मूल जनजातीय समूहों का संरक्षण सुनिश्चित करना जरूरी है.’

विजन डॉक्युमेंट के मुताबिक, योजना के चार उद्देश्य थे – भारत के लिए दो नए ग्रीनफील्ड तटीय शहरों का निर्माण, शहरों को मुक्त व्यापार क्षेत्र के रूप में विकसित करना, दो शहरों को हांगकांग, सिंगापुर और दुबई जैसे वैश्विक शहरों के साथ प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना, और रणनीतिक रूप से अहम जगह और द्वीपों की नैसर्गिक विशेषताओं को आगंतुकों के सामने अनूठे ढंग से पेश करना.

हरियाणा स्थित इंफ्रास्ट्रक्चर फर्म, एईसीओएम को नीति आयोग की तरफ से काम पर रखा गया और उसने मार्च 2021 में एक ‘प्री-फीजीबिलिटी रिपोर्ट’ तैयार की. इसने प्रोजेक्ट के लिए जगहों का पता लगाया और दक्षिणी तट के किनारों पर द्वीप के विकास की योजना बनाई, साथ ही कहा कि ‘इस प्रोजेक्ट के जरिये अपेक्षाकृत कम सामाजिक और पर्यावरणीय लागत पर ज्यादा सामाजिक-आर्थिक मूल्यों को बढ़ाया जा सकेगा.’

इसके बाद केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) ने 25 मई 2021 को रेखांकित किया कि प्रस्तावित स्थानों को परियोजना की ‘मुख्य रूप से तकनीकी और वित्तीय व्यवहार्यता’ को ध्यान में रखकर चुना गया, जबकि ‘पर्यावरणीय पहलू को ज्यादा वेटेज नहीं दिया गया है.’

ग्रेट निकोबार द्वीप को जानवरों की 1,700 से अधिक प्रजातियों के लिए जाना जाता है, और यह देश में जैव विविधता वाले सबसे बड़े इलाकों में से एक है, जिसका बड़ा हिस्सा प्राकृतिक, घने जंगलों वाला है.

ईएसी ने ‘पर्यावरणीय संवेदनशीलता के संदर्भ में’ इसका आकलन करने की आवश्यकता पर बल देते हुए परियोजना की संदर्भ शर्तों को मंजूरी दी है. संदर्भ शर्तें उन मानदंडों को रेखांकित करती हैं जिनका पालन पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) के लिए जरूरी है. ‘

1,200 पेज की ईआईए रिपोर्ट को तैयार करने के बाद गत 27 दिसंबर को अंडमान और निकोबार राज्य सरकार की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया था.

क्या कहती है ईआईए रिपोर्ट

ईआईए रिपोर्ट के मुताबिक, यह परियोजना 910 वर्ग किलोमीटर वाले इलाके वाले द्वीप के 166 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली होगी, जिसके लिए कम से कम 130.75 वर्ग किलोमीटर घने जंगल क्षेत्र को डायवर्ट करना होगा. भूमि का करीब 84.1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र यानी एक बड़ा हिस्सा आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित है जिसे डिनोटिफाई करना होगा.

परियोजना के सबसे विवादास्पद पहलुओं में ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल की स्थापना है, जो गैलाथिया खाड़ी में प्रस्तावित, जहां विशाल लेदरबैक कछुए की लुप्तप्राय प्रजाति पाई जाती है.

ईआईए रिपोर्ट के मुताबिक, टर्मिनल को खाड़ी के पश्चिमी किनारे की बजाय ‘पूर्वी क्षेत्र जहां लेदरबैक कछुओं के ठिकाने के बारे कोई जानकारी नहीं है’ में प्रस्तावित किया गया है और ‘ब्रेकवाटर को भी इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि कछुए प्रजनन के लिए बिना किसी बाधा इस जगह पर आ सकें.’

कछुओं को कोई नुकसान न पहुंचे इसके लिए एक डिफ्लेक्टर लगाने के प्रस्ताव के साथ ही इस पर एक पायलट स्टडी की सिफारिश भी की गई है कि यह डिफ्लेक्टर कितना प्रभावी होगा.

ईआईए रिपोर्ट के मुताबिक, टर्मिनल निर्माण के बाद कछुओं के लिए प्रवेश मार्ग ‘काफी हद तक’ छोटा हो जाएगा, क्योंकि खाड़ी का मुहाना केवल 3.8 किलोमीटर चौड़ा है.

इसने सुझाव दिया कि निर्माण कार्य नवंबर से फरवरी (कछुओं के प्रजनन काल) तक रोक दिया जाए और रोशनी और ध्वनि को मद्धिम रखा जाए ताकि कछुओं की गतिविधियों में किसी तरह का ‘दखल’ न हो. इसने कछुए को ठिकानों के आसपास अन्य विकास कार्यों का हवाला देते हुए बंदरगाह निर्माण को उचित ठहराया. हालांकि, इस तरह की किसी साइट का कोई उल्लेख नहीं किया गया है और विशाल लेदरबैक कछुए भारत में और कहीं नहीं बल्कि एकमात्र इसी जगह पर पाए जाते हैं.

विशाल लेदरबैक कछुआ विश्व स्तर पर लुप्तप्राय प्रजाति है, और ग्रेट निकोबार द्वीप दुनिया में उसके कुछ ठिकानों में से एक है. भारत सरकार ने 1 फरवरी 2021 को राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना जारी करने के दौरान इसे तटीय विनियमन क्षेत्र की पहली अनुसूची में शामिल किया था.

ईआईए रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बंदरगाह निर्माण के दौरान खाड़ी के तट पर खुदाई आदि के दौरान प्रवाल भित्तियों को नुकसान पहुंच सकता है. इसके समाधान के लिए सुझाव दिया गया कि मूंगों को एक वैकल्पिक स्थान पर प्रत्यारोपित किया जा सकता है, जिसके बारे में कहा गया है कि यह काम ‘आसानी से’ हो सकता है.

हालांकि, रिपोर्ट में वैकल्पिक साइट या प्रस्तावित प्रत्यारोपण प्रक्रिया के बारे में कोई ब्यौरा नहीं दिया गया है.

ईआईए ने यह भी कहा कि टाउनशिप, एयरपोर्ट और थर्मल पावर प्लांट सभी घने जंगल वाले क्षेत्रों में प्रस्तावित हैं, जिसके निर्माण से निश्चित तौर पर जैव विविधता ‘काफी’ प्रभावित होगी. इसमें कहा गया है कि प्रभावित जानवर और पक्षी या तो नई जगह पर बसाए जाएंगे या फिर वे खुद ही सघन वनस्पतियों वाले क्षेत्र की ओर पलायन कर जाएंगे.

थर्मल पावर प्लांट द्वीप पर शोम्पेन बस्ती के सबसे नजदीक प्रस्तावित है. ईआईए रिपोर्ट में कहा गया है कि शोम्पेन आबादी और बाहरी लोगों के बीच कोई भी बातचीत ‘पूरी तरह अवांछित’ है, क्योंकि एक तो इससे उनके बीमारी के चपेट में आने का जोखिम है और दूसरे वे बाहरी दुनिया के साथ जुड़ने का कोई इरादा नहीं रखते हैं.

इस समस्या से निपटने के उपाय के तौर पर ईआईए रिपोर्ट में सुझाया गया है कि निर्माण मजदूरों के लिए आवास संरक्षित क्षेत्र से दूर बनाया जाना चाहिए, और अगर जरूरत पड़े तो इस क्षेत्र को ‘कंटीली बाड़ से घेरा जा सकता है.’

शोम्पेन को एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTGs) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. यह एक शिकारी खानाबदोश समुदाय है जो जिंदा बने रहने के लिए द्वीप के जंगलों पर काफी ज्यादा निर्भर है.

इन समुदायों के प्रति उदासीनता और इनके अधिकारों को लेकर बेपरवाही जनजातीय कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं में साफतौर पर देखी जा सकती है. इसका एक उदाहरण अंडमान और निकोबार प्रशासन के जनजातीय कल्याण निदेशालय का अगस्त 2021 का लिखा एक पत्र है.

पत्र की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है, “द्वीप प्रशासन आदिवासी लोगों के अधिकारों की रक्षा करेगा और फिर इसमें तुरंत जोड़ा जाता है कि “परियोजना के निष्पादन के लिए” किसी भी छूट की जरूरत होने पर सक्षम प्राधिकारी से आवश्यक छूट की मांग की जाएगी.”

राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थिति ठीक ऐसी ही है. जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) और नीति आयोग को इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए देखा जा सकता है.

अंडमान निकोबार द्वीप समूह में विकास बनाम आदिवासी अधिकार भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में बहस का विषय रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यहां पर निकोबारी समुदाय को छोड़ दें तो बाकी सभी समुदाय विलुप्त होने के करीब हैं.

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