अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में रहने वाली खानाबदोश शिकारी-संग्रहकर्ता जनजातीय समुदायों में ग्रेट अंडमानी एक वक्त में सबसे बड़ा समुदाय होता था.
अफ़सोस की यही जनजातीय समुदाय विलुप्त होने के कागार पर पहुंच गया है. बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह समुदाय अब विलुप्त हो ही चुका है.
वैसे सरकार ग्रेट अंडमानीज़ (Great Andamanese) के बारे में कहती है कि अब इस समुदाय के केवल 57 सदस्य बचे हैं.
लेकिन अभी भी कुछ भाषाविद् इन आदिवासियों की भाषा को सहजने या बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
जानकारी के अनुसार ग्रेट अंडमानी समुदाय की एक स्थानीय भाषा यानी जेरो(Jero) को बोलने वाले केवल तीन ही लोग बचे है और इन तीनों को कुछ गंभीर बीमारियां हैं. तो अगर इन तीनों को कुछ हो जाता है फिर इस भाषा को बोलने वाला को भी जनजाति नहीं बचेगी.
भाषा विशेषज्ञ कहते हैं कि इन आदिवासियों की भाषा विलुप्त होने का मुख्य कारण इनका ग़ैर आदिवासी समुदायों से संपर्क और उसका प्रभाव रहा है. जिसके कारण उनकी अपनी भाषा, पारंपरिक जीवन शैली और संस्कृति पर भी असर पड़ा है.
अन्विता अब्बी का अनुसंधान
अन्विता अब्बी (Anvita Abbi) अल्पसंख्यक भाषाओं की एक प्रतिष्ठित विद्वान हैं. जिन्होंने भारत में सभी भाषा पर व्यापक क्षेत्रीय शोध किया है. जिसमें ग्रेट अंडमानीज़ की भाषा भी शामिल है.
ग्रेट अंडमानीज़ों के शोध के सिलसिले में वह साल 2001 में पहली बार द्वीप गई थी. जहां उन्होंने यह देखा की ग्रेट अंडमानीज़ समुदाय हिंदी बोल रहे थे.
जिसके बाद अन्विता अब्बी ने भी उनकी स्थानीय भाषा सीखी जो कि जेरो, सारे, बो और खोरा की मिश्रण है.
उनकी भाषा को सीखने के बाद वे रोमन, देवनागरी लिपियों में 6,000 शब्दों के ध्वन्यात्मक प्रतिलेखन का प्रयोग करके दुनिया की पहली सचित्र इंटरेक्टिव शब्दकोश को तैयार करने में सफल रही थी. जो कि अंग्रेजी, हिंदी और ग्रेट अंडमानीज़ भाषाओं में उपलब्ध है.
इसके बाद अन्विता अब्बी ने साल 2013 में भाषा की व्याकरण को भी डीकोड कर लिया और यह कहा है की ग्रेट अंडमानीज़ कि भाषा विलुप्त होती जा रही है.
उन्होंने यह भी बताया है की किसी भी अन्य भाषा का व्याकरण मानव शरीर पर आधारित नहीं है या ग्रेट अंडमानीज़ की भाषा से मेल नहीं खाती है और ऐसे शब्द जो अर्थ एंव उच्चारण में समान हैं वो वंशावली (genealogical) संबंध का संकेत देती हैं.
इस जनजाति कि व्याकरण से यह पता चलता है कि इनकी भाषा की उत्पत्ति उस समय से हुई है जब से मनुष्यों ने अपनी दुनिया की कल्पना करनी शुरू की है.
बो, खोरा एंव सारे को धाराप्रवाह से बोलने वाले अंतिम लोगों की पिछले 13 वर्षों में मृत्यु हो गई है.
जिसके बाद अब जेरो (Jero) भी बहुत जल्दी इसी श्रेणी में शामिल होने वाला है क्योंकि जेरो भाषा बोलने वाले सिर्फ 50 वर्ष से ऊपर के तीन ही लोग बचे है. जिनको बहुत गंभीर बीमारियां है.
अन्विता अब्बी ने बताया कि उन्होंने इस जनजाति के साथ कई महीने बिताए हैं. उनके अनुसार इस जनजाति का भारतीय मुख्यभूमि के साथ कई सालों से संबंध है.
इसके कारण उन्होंने अपनी भाषा को सीखना कम कर दिया है और उनको अपनी स्थानीय भाषा भी याद नहीं है.
इसके साथ ही अब्बी ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुआ कहा है की इस जनजाति की आगे आने वाली पीढ़ी अपनी परंपराएं, रीति-रिवाज और भाषा सीखें.
ताकि यह जनजाति ज़िंदा रहे सकें और इस जनजाति को अपनी पहचान बनाए रखने की जरूरत है. क्योंकि इनको नहीं पता है की यह लोग क्या खो रहे हैं.
इस बारे में यहां के बुजुर्गों ने कहा है की यहां कि युवा पीढ़ी स्थानीय भाषा को बचाने के लिए यहां कि स्थानीय भाषा सीखना चाहती है लेकिन यहां के मुख्य भूमि वासी की बोलचाल की भाषा हिंदी और अंग्रेजी है.
इन सब बातों के अलावा अन्विता अब्बी ने भारत सरकार से यह मदद मांगी है की वह आखिरी बचे जेरो भाषा बोलने वाले इन तीनों व्यक्तियों की सहायता से स्कूलों में जेरो भाषा सीखाएं ताकि युवा पीढ़ी भी इस भाषा को सिखने में रूची दिखाए. जिससे की इस जनजाति की भाषा और परंपराएं बचा के रखी जा सकें और इससे यहां के स्थानीय जनजाति की सोच को बदला जा सके.
अन्विता अब्बी की खोज
अन्विता अब्बी ने अंडमान व नोकोबार द्वीप समूह पर जा कर ना सिर्फ ग्रेट-अंडमानीज़ की भाषा का शब्दकोश बनाया है बल्कि पक्षियों के लिए 109 से अधिक नाम और मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के लिए 150 से अधिक ग्रेट अंडमानीज़ नाम भी खोजे है.
शिवप्पा ए अवराधी की राय
शिवप्पा ए अवारधी (Shivappa A Awaradi) अंडमान व नोकोबार द्वीप समूह में आदिवासी कल्याण के एक पूर्व निदेशक (former director) है. उन्होंने ने इस मामले में यह कहा है की उत्तरी और मध्य अंडमान के स्ट्रेट द्वीप के स्कूलों में पढ़ने वाले आदिवासी छात्रों को विभिन्न स्वदेशी भाषाओं से अवगत कराने के लिए आरंभिक (introductory) सामग्री दी गई है.
जो की जनजातीय भाषा को बचाए रखने की और एक प्राथमिक कदम था. लेकिन जातीय भाषा का संरक्षण अगला कदम है जिसमें बहु-विषयक (multidisciplinary) दृष्टिकोण शामिल है.
ग्रेट अंडमानीज़ की ब्रिटिशों से मुलाकात
शिवप्पा ए अवारधी को अनुसार 18वीं शताब्दी के बाद से अंडमान द्वीप पर रहने वाले जनजातीय लोगों से भारत के अन्य हिस्सों के लोगों मुख्य और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ बढ़ते संपर्क ने भी जनजाति को खसरा, निमोनिया और तपेदिक जैसी बीमारियां दी थीं.
इसके अलावा इस जनजाति का ब्रिटिश से पहली बार बातचीत सन् 1789 में हुई थी. तब ब्रिटिशों ने अंडमान में एक नौसैनिक अड्डा और दंड कॉलोनी स्थापित करने का प्रयास किया था. लेकिन मलेरिया के प्रकोप और आदिवासी प्रतिरोध के कारण वे विफल हो गए थे.
अब्बी के हिसाब से सन् 1858 से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में करीब 8,000 ग्रेट अंडमानीज़ रह रहे थे. वो भी बहार की दुनिया से बना मिले जुले.
दस्तावेज़ के हिसाब से ब्रिटिश विद्वान क्लेयर एंडरसन ने 2011 के एक लेख में लिखा था कि ब्रिटिशों ने अंडमान होम की स्थापना की थी. जिसमें वे पकड़े गए स्थानीय द्वीपवासियों को रखते थे और उन सब को हथकड़ी लगाकर पीटा जाता था. इसके साथ ही उन्हें तंबाकू एंव रम पर निर्भर रखने के साथ-साथ उनसे काम भी कराते थे.
इसके अलावा महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार भी किया जाता था. जिसके कारण वे मां बन जाती थी और अभिलेखागार इस बात पर चुप है कि वे दोषी कौन थे, नौसैनिक ब्रिगेडमैन थे या ब्रिटिश अधिकारी थे.
अब्बी ने यह भी बताया कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी विभिन्न प्रकार के रोग भी लाए और इन रोगों से लड़ने के लिए आदिवासियों के पास रोग प्रतिरोधक क्षमता भी नहीं थी.
इसके बाद सन् 1960 तक सिफलिस (syphilis) और अन्य बीमारियों ने ग्रेट अंडमानीज़ की संख्या को और भी घटा दिया था. जिसके बाद उनकी संख्या सिर्फ 19 रह गई थी.
अवारधी के अनुसार भारत के स्वतंत्रता होने के बाद भारत सरकार ने उत्तरी और मध्य अंडमान ज़िले में ब्लफ़ द्वीप पर ग्रेट-अंडमानीज़ जनजाति को फिर से बसाने की कोशिश कराई गई थी. इसके बाद सन् 1949 में किया गया पहला प्रयास विफल हो गया था.
लेकिन सन् 1949 के दो दशक के बाद जनजाति को द्वीपसमूह में स्ट्रेट द्वीप में स्थानांतरित कर दिया गया. जिसके बाद यहां के कई लोगों ने गैर-आदिवासी लोगों के साथ विवाह किया और सरकार ने उनके बच्चों को स्कूल में भर्ती कराया. जहां उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी सीखी.
ग्रेट अंडमानीज़ की समस्याएं एंव समाधान
अंडमान के आदिवासियों पर काम करने वाले विशेषज्ञ कहते हैं कि ग्रेट अंडमानीज़ धीरे धीरे सुस्त होते चले गए. उनके खान-पान में भी बड़े बदलाव आए थे.
इसके अलावा कुछ लोगों ने सरकारी नौकरियां भी ले लीं. अगर आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से देखे तो अधिकारियों द्वारा 25 ग्रेट अंडमानीज़ को नियुक्त किया है.
इसके साथ ही सभी ग्रेट अंडमानी लोगों को सरकार से सहायता मिलती है. जिसमें सरकार के द्वारा भोजन, राशन, कपड़े, आवास, बिजली एंव पानी देती है और प्रत्येक बच्चे के जन्म एंव जनजाति के किसी सदस्य की मृत्यु पर अंतिम संस्कार करने के लिए 5,000 भी देती है.
सरकार से चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने के बावजूद भी ग्रेट अंडमानीज़ में से कई लोग को लीवर की समस्या हो गई. क्योंकि इनमें से ज़्यादातर शराब के आदी हो चुके हैं. इसके अलावा ग्रेट अंडमानीज़ द्वारा सामना की जाने वाली समस्याएं एक अन्य स्थानीय जनजाति जो कि शोम्पेन (Shompen) है. उनसे मेल खाती है. जिनके 242 सदस्य ग्रेट निकोबार द्वीप समूह में रहते हैं.
कैलम रसेल (Callum Russell) जो कि स्वदेशी अधिकार समूह सर्वाइवल इंटरनेशनल के एशिया अनुसंधान अधिकारी (Asia research and advocacy officer of indigenous rights group Survival International) है. उन्होंने बताया है की अगर भारत सरकार शोम्पेन भूमि पर हवाई अड्डा, बिजली संयंत्र और पर्यटन केंद्र बनाने की योजना बनाती है. तो फिर शोम्पेन को भी हटा दिया जाऐगा.
इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है की ग्रेट अंडमानीज़ की तरह ही शोम्पेन भी नाशकारी हमले से नहीं बचेगा.
ग्रेट अंडमानी समुदाय की भाषा को बचाने का प्रस्ताव अच्छा है. लेकिन इतिहास ये बताता है कि ऐसे प्रयासों के बवाजूद इस समुदाय की भाषा तो छोड़िए खुद समुदाय को ही बचाया नहीं जा सका है.
इसकी सबसे बड़ी वजह ये रही है कि अंडमान की जनजातीयों के बारे में हुए शोध के आधार पर नीतियों का निर्माण नहीं हुआ. अगर नीतियां बनी भी तो सरकार की प्राथमिकता भारत की सुरक्षा और पर्यटन ज़्यादा रहा है.
इसलिए अंडमान द्वीप की कोई भी जनजाति ऐसी नहीं है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि वह फल-फूल रही है.