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Lok Sabha Elections 2024: आदिवासियों के अधिकारों की संवैधानिक गारंटी पर बात होनी चाहिए

आदिवासियों को चिंता है कि गैर-आदिवासी राजनीतिक क्षेत्र में गेम चेंजर बन गए हैं, जिससे आदिवासियों को सुनिश्चित किए गए अधिकारों का कार्यान्वयन कमजोर हो गया है. दूसरी ओर केंद्र में लगातार सत्तारूढ़ दल संविधान की पांचवीं अनुसूची के ढांचे को मजबूत करने में विफल रहे हैं.

लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. देश की बड़ी-छोटी राजनीतिक पार्टियां पूरे दमखम के साथ मैदान में उतर चुकी हैं. एक तरफ बीजेपी की अगुवाई वाला NDA है तो दूसरी ओर I.N.D.I.A गठबंधन है.

बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ताबड़तोड़ रैली कर रहे हैं. एक-एक दिन में तीन राज्यों का दौरा कर रहे हैं. नरेन्द्र मोदी हर उस सीट पर पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं जहां से एक साथ कई सीटों पर सियासी समीकरण साधा जा सके. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी लगातार राज्यों का दौरा कर हैं.

इस बार के चुनाव में आदिवासी वोटरों को लेकर भी बीजेपी और कांग्रेस के बीच में शह-मात का खेल चल रहा है. पीएम मोदी सोमवार को छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले पहुंचे हुए थे. देश में चुनाव की घोषणा होने के बाद पीएम मोदी का यह पहला छत्तीसगढ़ दौरा था.

छत्तीसगढ़ में रायपुर के अलावा बिलासपुर समेत कई बड़े शहर है., लेकिन पीएम मोदी ने दौरे की शुरुआत बस्तर से की है. इसके पीछे भी पीएम मोदी का सियासी दांव है, क्योंकि बस्तर आदिवासी बहुल जिला है.

बस्तर के आसपास में कोंडागांव, दंतेवाड़ा, सुकमा, बीजापुर जैसे जिले हैं. यहां भी अच्छी खासी संख्या में आदिवासी वोटर निवास करते हैं. बस्तर में रैली करने के बाद पीएम मोदी महाराष्ट्र के चंद्रपुर पहुंचे. ये इलाका भी आदिवासी बहुल है.

वहीं राहुल गांधी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल मंडला और शहडोल में चुनावी सभाएं कर कांग्रेस के खिसके जनाधार को वापस हासिल करने की कवायद करते नजर आए. राहुल ने मंडला में 30 मिनट और शहडोल में 32 मिनट भाषण दिया.

इस दौरान उनका पूरा फोकस आदिवासी वोटर्स पर रहा. इस दौरान उन्होंने कहा कि आदिवासी इस देश और जमीन के पहले मालिक हैं. युवाओं को रोजगार, गरीब परिवार में एक महिला को एक लाख रुपए देने का वादा किया. कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र के वादे दोहराते हुए मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा.

आदिवासी वोट बैंक

देश में सबसे कमजोर जनजातीय समूह संसाधन-संपन्न ‘अनुसूचित क्षेत्र’ में निवास करते हैं. यह देश की कुल भूमि क्षेत्र का 11.3 प्रतिशत है. अनुसूचित क्षेत्र भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत एक विशेष क्षेत्र है.

अनुसूचित क्षेत्र भारत में आदिवासी आबादी की बहुलता वाले क्षेत्र हैं . इसका मतलब ये है कि ये क्षेत्र एक विशेष शासन तंत्र के अधीन हैं. अनुसूचित क्षेत्र वाले घोषित 10 राज्य – आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश हैं.

देशभर में लोकसभा की 543 लोकसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. सत्ता में आने के लिए ये एसटी आरक्षित सीटें किसी भी राजनीतिक दल के लिए बेहद अहम हैं.

इसलिए चुनाव के दौरान आदिवासी मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए राजनीतिक दल कई वादों और योजनाओं की घोषणा करते हैं. लेकिन चुनाव बीत जाने और जीतने के बाद पार्टियां आदिवासियों की ओर मुड़कर भी नहीं देखती है.

देश के कई राज्यों में आदिवासी समाज बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जी रहा है. उनके पास न पीने का साफ पानी है, न पक्की सड़कें हैं, न ही स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं. कई आदिवासी गांवों में प्राइमरी स्कूल भी नहीं है और जहां स्कूल है वहां शिक्षकों की कमी है.

संविधान की पांचवी अनुसूची, गवर्नर की भूमिका और आदिवासी अधिकार

भारत में विस्थापन आदिवासियों के लिए बड़ा खतरा रहा है. आदिवासियों का विस्थापन विकास की परियोजनाओं के लिए हुआ है बल्कि भूमि हस्तांतरण, प्राकृतिक संसाधनों की कमी, उनके पूजा स्थलों के प्रबंधन पर वंशानुगत अधिकारों का हनन की वजह से भी हुआ है.

संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासियों की सुरक्षा के लिए बनाई गई संवैधानिक योजना कमजोर हो गई है. यह व्यवस्था आदिवासियों को बाहरी लोगों के आक्रमण और उनकी आजीविका के स्थान से वंचित करने से बचाने में विफल रही है.

कई आदिवासी कार्यकर्ता यह कहते हैं कि ब्रिटिश काल के दौरान आदिवासियों की सुरक्षा के लिए तैयार किया गया विधायी ढांचा मौजूदा संवैधानिक योजना से बेहतर था. संविधान के निर्माण से पहले बहिष्कृत क्षेत्रों को भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 91 और 92 द्वारा निपटाया गया था.

इन प्रावधानों के मुताबिक, संघीय विधानमंडल या प्रांतीय विधानमंडल का कोई भी कानून किसी ‘बहिष्कृत’ या ‘आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र’ पर तब तक लागू नहीं होता जब तक कि राज्यपाल सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा ऐसा निर्देश न दें.

1935 के अधिनियम ने राज्यपाल को किसी भी बहिष्कृत या आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र की शांति और अच्छी सरकार के लिए नियम बनाने की शक्तियाँ प्रदान कीं.

भारत सरकार ने अधिनियम 1935 को भारत के संविधान के अनुच्छेद 395 द्वारा निरस्त कर दिया. इसकी जगह पर देश के अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासन को कवर करने वाली पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों का विस्तार करने के लिए अनुच्छेद 244 प्रदान किया गया.

राज्यपाल के पास पांचवीं अनुसूची के पैरा 5(1) के तहत अनुसूचित क्षेत्र के लिए अधिसूचना द्वारा केंद्र या राज्य द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के संचालन को बाहर करने की शक्ति है.

संसद और विधानमंडल के कानून ऐसे क्षेत्रों तक लागू होते हैं. इसी तरह राज्यपाल किसी कानून को संशोधनों के साथ बढ़ा सकते हैं. राज्यपाल राज्य की जनजाति सलाहकार परिषद की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति की सहमति से अनुसूचित क्षेत्र में शांति और अच्छी सरकार के लिए पैरा 5(2) के तहत नियम भी बना सकते हैं.

वहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हुए संविधान की पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू करते हुए आदिवासियों के पक्ष में कई फैसले दिए हैं.

उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने लिंगप्पा पोचन्ना बनाम महाराष्ट्र राज्य (1985) मामले में माना कि पांचवीं अनुसूची आदिवासियों को सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाने के लिए बनाई गई है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सुरक्षा के अभाव में आर्थिक रूप से मजबूत ‘गैर-आदिवासी’ समय के साथ सभी उपलब्ध भूमि को निगल लेंगे और उन आदिवासियों की पहचान मिटा देंगे जो वर्तमान में आजीविका के एकमात्र स्रोत के अभाव में जीवित नहीं रह सकते हैं.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पांचवीं अनुसूची की संवैधानिक योजना आदिवासी स्वायत्तता, संस्कृति और आर्थिक सशक्तिकरण को संरक्षित करना, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना और अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन का संरक्षण करना है.

सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित क्षेत्रों में बार-बार 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को बरकरार रखा है. उदाहरण के लिए, कोर्ट ने 2010 में राकेश कुमार की रिपोर्ट के अनुसार भारत संघ में “अनुसूचित क्षेत्रों” में पंचायत राज प्रणाली के तहत ‘सरपंच’ आदि के निर्वाचित कार्यालयों के 100 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखा.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के हितों के विपरीत प्रतीत होते हैं.

अनुसूचित क्षेत्र में सार्वजनिक रोजगार क्षेत्र में आदिवासियों से संबंधित आरक्षण नीतियों और आदिवासियों की पहचान पर विशेष रूप से पांचवीं अनुसूची की मंशा के विपरीत सवाल उठाया गया है. जिससे गरीबी से जूझ रहे आदिवासी और अधिक हाशिये पर चले गए हैं.

अप्रैल 2022 में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने चेब्रोलुलीला प्रसाद राव और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य मामले में अनुसूचित क्षेत्र में स्थानीय एसटी उम्मीदवारों को 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने वाले सरकारी आदेश को रद्द कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पांचवीं अनुसूची के पैरा 5(1) के तहत राज्यपाल की शक्ति अधीनस्थ कानून तक विस्तारित नहीं है और संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को खत्म नहीं कर सकती है.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारों को भी चेतावनी दी कि वे अपने फैसले को रद्द करते हुए भविष्य में आदिवासियों के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए इसी तरह की कोशिश न करें.

यह फैसला छत्तीसगढ़ और झारखंड समेत अन्य राज्यों में आदिवासियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए आरक्षण नियम को पलटने की मिसाल बन गया है.

ये फैसले पांचवीं अनुसूची के पैरा 5(1) के तहत राज्यपाल की शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. गैर-आदिवासी हितों के प्रभाव में राज्य विधानमंडल से प्रभावित मामलों में संविधान द्वारा परिकल्पित राज्यपाल की भूमिका के माध्यम से न्याय की गुंजाइश को नकारते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने एक हालिया मामले में याचिकाकर्ता की इस दलील को खारिज कर दिया कि एक गैर-आदिवासी को अनुसूचित क्षेत्र में बसने का कोई अधिकार नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और परिसीमन अधिनियम 2002 पांचवीं अनुसूची के पैरा 5(1) के तहत अनुसूचित क्षेत्र के लिए उनके आवेदन को रोकने के लिए राज्यपाल द्वारा जारी किसी भी अधिसूचना के अभाव में अनुसूचित क्षेत्र पर लागू होते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि प्रत्येक नागरिक को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के उप-खंड (ई) के तहत अनुसूचित क्षेत्र सहित भारत के किसी भी हिस्से में निवास करने और बसने का अधिकार है.

आदिवासी समूहों की इस दृष्टिकोण पर आपत्ति इस तर्क में निहित है कि यह एक गैर-आदिवासी को अनुसूचित क्षेत्र का निवासी बनने और प्रतिनिधित्व के अधिकारों के संबंध में क्षेत्र के आदिवासियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति देता है जो अनुसूचित क्षेत्र के रूप में सीमांकित अपने क्षेत्र में आदिवासियों की पहचान के लिए एक गंभीर खतरा पैदा करता है.

गैर-आदिवासियों का अनुसूचित क्षेत्रों में प्रवेश पाना और आदिवासियों के बराबर का दर्जा प्राप्त करना बेतुका और तर्कहीन है. खासकर तब जब पड़ोसी राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी दर्जे की आदिवासियों की मांग को राज्य सरकारों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है.

मसलन छत्तीसगढ़ के आदिवासी, जो माओवादी हिंसा से परेशान हो कर भागे हैं और तेलंगाना में बस गए हैं, वे तेलंगाना में आदिवासी दर्जे के लिए लड़ रहे हैं. लेकिन राज्य सरकार उनकी बात नहीं मान रही है.

जनजातीय समूहों को हैरानी हो रही है कि एक गैर-आदिवासी एक ऐसे इलाके में कैसे बस सकता है जहां आदिवासी की ज़मीन ग़ैर आदिवासी को बेची ही नहीं जा सकती है.

आदिवासियों को चिंता है कि गैर-आदिवासी राजनीतिक क्षेत्र में गेम चेंजर बन गए हैं, जिससे आदिवासियों को सुनिश्चित किए गए अधिकारों का कार्यान्वयन कमजोर हो गया है.

दूसरी ओर केंद्र में लगातार सत्तारूढ़ दल संविधान की पांचवीं अनुसूची के ढांचे को मजबूत करने में विफल रहे हैं.

अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के संबंध में संवैधानिक जिम्मेदारियों की देखरेख के लिए राज्य में राज्यपाल के कार्यालय में एक ट्राइब्ल सेल स्थापित करने की जरूरत 2012 से राज्यपालों के सम्मेलनों में मानी गई थी.

भारत सरकार द्वारा गठित हाई-पावर कमिटि ने 2014 में अपनी रिपोर्ट में महसूस किया कि स्वतंत्र और कर्तव्यनिष्ठा से काम करने के लिए और एसटी के हितों की रक्षा के लिए सभी पांचवीं अनुसूची वाले राज्यों में एक सेल का गठन बेहद जरूरी है.

छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर, किसी अन्य राज्य ने राजभवन में एक सेल की स्थापना नहीं की है.

वहीं जिन राज्यों में सेल स्थापित है वो पांचवीं अनुसूची की अपेक्षाओं को पूरा करने में अपनी न्यूनतम भूमिका भी नहीं निभाते हैं. राज्यपाल आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा में कोई महत्वपूर्ण नहीं निभाते हैं, ऐसा कोई मामला दिखाई नहीं देता है.

समिति ने यह भी महसूस किया कि पांचवीं अनुसूची के तहत राज्यपाल की वार्षिक प्रशासनिक रिपोर्ट आदिवासी विकास के संबंध में सरकार के लंबे या निराधार दावों को बिना सोचे-समझे स्वीकार करने के अलावा राज्य सरकारों की नीतियों का स्वतंत्र मूल्यांकन नहीं करती है.

इस पृष्ठभूमि में लोकसभा चुनाव में जो राजनीतिक दल चुनावी मैदान में हैं उन्हें आदिवासियों के वोट मांगने से पहले संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आरक्षण नीतियों और संवैधानिक ढांचे के संबंध में अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के अधिकारों पर अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए.

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