HomeAdivasi Dailyशिकार की आदिवासी परंपरा को रोकने के लिए 1000 सिपाही तैनात

शिकार की आदिवासी परंपरा को रोकने के लिए 1000 सिपाही तैनात

वन संरक्षक (RCCF), प्रकाश चंद गोगिनेनी ने कहा कि वे काफी हद तक शिकार रोकने में कामयाब रहे हैं. लेकिन अभी भी कुछ छोटे आदिवासी समुदाय जंगलों में शिकार करने का प्रयास करते हैं.

आदिवासी समाज में कई ऐसे त्योहार (Tribal Festival) हैं. जो जानवरों के शिकार (Hunting) और बली से जुड़े हुए हैं. ओडिशा में हर साल नव वर्ष से जुड़ा त्योहार ‘ पना संक्रांति ’ ( Pana Sankranti) मनाया जाता है.

इस त्योहार से कुछ दिन पहले ओडिशा के आदिवासी जंगलों में शिकार (Tribal Poachers) करने जाते हैं. शिकार करना इनकी पंरपरा से जुड़ा हुआ है.

आदिवासियों को शिकार पर जो कुछ मिलता है, वो उसे अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाते है.  

सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व में हर साल की तरह इस साल भी आदिवासियों के शिकार पर रोक लगाने की कोशिश की जा रही है.

यह टाइगर रिज़र्व ओडिशा में स्थित है. यहां वन विभाग द्वारा शिकार रोकने के लिए 1000 सुरक्षा कर्मी तैनात किए गए हैं.

इन सुरक्षा कर्मियों की पूरी कोशिश रहेगी कि जानवरों को आदिवासियों के शिकार से बचाया जा सके.

सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व(Similipal Tiger Reserve) में पिछले दो दशकों से वन विभाग आदिवासियों द्वारा किए गए शिकार को रोकने में कामयाब रहे हैं.

वन संरक्षक (आरसीसीएफ) और एसटीआर के क्षेत्र निदेशक प्रकाश चंद गोगिनेनी ने कहा कि वे काफी हद तक शिकार रोकने में कामयाब रहे हैं. लेकिन अभी भी कुछ छोटे आदिवासी समुदाय जंगलों में शिकार करने का प्रयास करते हैं.

उन्होंने यह भी बताया कि फरवरी, मार्च और अप्रैल में आदिवासी अक्सर जंगलों में शिकार करने की कोशिश करते हैं.

वन विभाग द्वारा तैनात इन 1,000 सुरक्षाकर्मियों में पुलिस कर्मी से लेकर वन रक्षक तक शामिल है.

इनमें विशेष बाघ सुरक्षा बल (एसटीपीएफ) के 120 कर्मी, 700 सुरक्षा सहायक, वनपाल और वन रक्षकों सहित 120 नियमित कर्मचारी, 32 पूर्व सेना कर्मी और पुलिस विभाग के 100 कर्मी है.

यह सभी जंगल के संवेदनशील क्षेत्रों में तैनात किए जाएंगे. संवेदनशील इलाकों का वन विभाग ने पहले ही पहचान कर ली है.  

सालों से जंगल में शिकार को लेकर वन विभाग और आदिवासियों के बीच संघंर्ष देखने को मिला है. इस मुद्दे को लेकर दो राय बन जाती है. पहली ये कि जंगलों में शिकार करना आदिवासियों की परंपरा से जुड़ा हुआ है.

उधर वन विभाग का मानना है कि शिकार करने से जंगल का संतुलन बिगड़ता है.

प्राचीन समय से अगर देखे तो शिकार मानव जीवन का एक प्रमुख अंग रहा है. इसका प्रमाण प्राचीनतम गुफा चित्रों में मिलता है.

10,000 ईसा पूर्व और 7,000 ईसा पूर्व के बीच बुबलस काल की कई सहारन रॉक कला भी शिकार के कई दृश्यों और मनुष्यों और जानवरों के बीच संबंधों को दर्शाती हैं.

जंगली मांस का अक्सर शहरी लोग “शौक़” और भोजन” के रूप में ग्रहण करते हैं जबकि यह ग्रामीण आबादी के पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है.

अंबिका अय्यादुरई ने देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदायों की भोजन की आदतों का अध्ययन किया है.

वह आदिवासियों का जंगली मांस का सेवन के समर्थन में कहती हैं कि यह उनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करता है.

उन्होंने बताया कि ज्यादातर आदिवासी समुदाय बेहद गरीब हैं और उनके पास प्रोटीन हासिल करने का कोई दूसरा स्रोत नहीं है.

इस पृष्ठभूमि से यह कहा जा सकता है कि आदिवासियों में शिकार सिर्फ पंरपरा से जुड़ा नहीं है बल्कि उनके पोषण का एकमात्र स्रोत है.

हालांकि यह भी देखा जा सकता है कि आदिवासी भी जंगलों में संतुलन बनाए रखने में इच्छुक होते है. मसलन नागालैंड की अंगामी जनजाति ने अपने शिकार के अधिकार को छोड़ दिया है.

इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश में निशि जनजाति ने भी शिकार त्याग दिया है. यह जनजाति अक्सर  हार्नबिल का शिकार करती थी. लेकिन अब यह हॉर्नबिल संरक्षण आंदोलन चला रही है.

इसलिए अगर आदिवासी इलाकों में शिकार रोकना है, तो बलपूर्वक नहीं बल्कि शांतिपूर्वक आदिवासियों को भरोसे में लेना होगा.

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