HomeAdivasi Dailyछत्तीसगढ़: चुनाव में बार-बार बहिष्कार की चेतावनी भला क्यों होती है?

छत्तीसगढ़: चुनाव में बार-बार बहिष्कार की चेतावनी भला क्यों होती है?

देश में होने वाले लगभग हर चुनाव में देश के कई इलाकों से मतदान के बहिष्कार की ख़बरें आती है. दरअसल लोग चुनाव में मतदान के बहिष्कार की चेतावनी इसलिए देते हैं क्योंकि वे पूरी तरह से निराश और बेबस हो चुके होते हैं. उनके मुद्दे सुनने और समझने वाला उन्हें कोई नज़र ही नहीं आता है. चुनाव बहिष्कार की चेतावनी देने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र में इसे नज़रअंदाज़ तो नहीं किया जाना चाहिए.

छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के कई लोग कह रहे हैं कि वे इस लोकसभा चुनाव में अपना वोट डालने से इनकार कर देंगे. उन्होंने सरकार पर पिछले कुछ वर्षों से उनके मुद्दों और मांगों की अनदेखी करने का आरोप लगाया.

छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के नारायणपुर जिले में इंद्रावती नदी के सामने आदिवासी समुदाय के सदस्य विरोध में बैठे हैं. उन्होंने विरोध प्रदर्शन में कई मुद्दे उठाए हैं. जिनमें कई खनन परियोजनाएं भी शामिल हैं जिनके बारे में उनका कहना है कि इससे पर्यावरण नष्ट हो जाएगा.

साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि उन्हें कथित तौर पर स्थानीय पुलिस और सुरक्षा बलों के अत्याचारों का सामना करना पड़ता है.

छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव के लिए तीन चरणों में 19 अप्रैल, 27 अप्रैल और 7 मई को मतदान होंगे. ऐसे में राजनीतिक दल अब जोर-शोर से प्रचार में जुट गए हैं.

हालांकि, आदिवासियों का कहना है कि वे “अधूरे वादों और नक्सल विरोधी कार्रवाई में नागरिकों की हत्याओं” के कारण निराश हैं. आदिवासियों के मुताबिक, ये हत्याएं “जनवरी से बढ़ी हैं.”

इंद्रावती नदी के सामने विरोध प्रदर्शन में बैठे आस-पास के गांवों के लोग इकट्ठा हुए हैं और उन मुद्दों पर आंदोलन करने के लिए तंबू लगाए हैं, जिनके बारे में उनका कहना है कि राजनीतिक नेताओं ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया है.

यहां प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों में से एक का कहना है कि हम प्रस्तावित परियोजनाओं और वर्तमान में इंद्रावती नदी के आसपास चल रही परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं। हमारी मुख्य चिंताओं में से एक यह है कि किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले हमसे पूछा या परामर्श नहीं किया जाता है.

इन्होंने आगे कहा कि ग्राम पंचायतों से भी नहीं पूछा जाता. किसी भी कानून का पालन नहीं किया जाता. हम परियोजनाओं के खिलाफ नहीं हैं लेकिन उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है. हम देश का हिस्सा हैं लेकिन हमें बाहरी माना जाता है.

बस्तर को देश में “सबसे अधिक सैन्यीकृत आदिवासी क्षेत्र” के रूप में जाना जाता है. इससे नागरिक समाजों में चिंताएं बढ़ गई हैं.

प्रदर्शनकारियों का कहना है कि हमारी बहुत अधिक जांच पड़ताल की जाती है. हमें हर जगह अपनी आईडी दिखानी पड़ती है और हमें यह पसंद नहीं है.

लोगों का कहना है कि ज्यादातर नेता आदिवासी समुदाय से हैं बावजूद इसके उनमें से कोई भी समुदाय की चिंताओं को नहीं उठाता है या स्थिति को बेहतर बनाने पर काम नहीं करता है.

एक शख्स ने कहा कि हमारे मंत्री स्वयं आदिवासी हैं लेकिन वे हमारी चिंताओं को संसद में भी नहीं उठाते हैं इसलिए उन्हें वोट देने का क्या मतलब है.

छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों – जांजगीर, कोरबा, रायगढ़, सरगुजा, राजनांदगांव, महासमुंद, कांकेर, दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर और बस्तर के लिए चुनाव तीन चरणों में 19 अप्रैल, 26 अप्रैल और 7 मई को होंगे. राज्य में 2.05 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या पुरुषों से थोड़ी अधिक है.

इस बार मतदान न करने की भावना समुदाय के अन्य लोगों में भी देखी गई है. जिन्होंने महसूस किया कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधि उनकी चिंताओं को नहीं उठाते हैं और उन्होंने लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.

लोगों ने प्रस्तावित परियोजनाओं पर चिंता जताई और कहा कि पिछले तीन वर्षों से विरोध के बावजूद सरकारी अधिकारियों ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया है.

आदिवासी लोगों का कहना है कि हमें घूमने-फिरने से, अपने रीति-रिवाजों का पालन करने से रोका जाता है इसलिए हमने विरोध किया. कई कॉरपोरेट परियोजनाएं सामने आई हैं और हम उनका विरोध भी कर रहे हैं क्योंकि वे प्रकृति को नष्ट कर देंगे.

छत्तीसगढ़ को पांच संभागों में बांटा गया है. बस्तर छत्तीसगढ़ के दक्षिण में है, जबकि सरगुजा इसके उत्तर में है, जो आदिवासी बहुल क्षेत्र है.

राज्य के मैदानी संभागों में रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग शामिल हैं. राज्य की आबादी में 32 फीसदी आदिवासी हैं और उनके लिए 29 सीटें आरक्षित हैं. बस्तर और सरगुजा में 26 सीटें हैं, जिनमें से 20 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. बस्तर में 11 और सरगुजा में 09 सीटे हैं.

कस्बों और शहरों में बीजेपी की ओर झुकाव के बावजूद आदिवासी आबादी ने किसी के साथ नहीं जाने का फैसला किया है.

हालांकि, कई आदिवासियों के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है और इसलिए वे चुनाव में मतदान नहीं कर पाएंगे.

विरोध प्रदर्शन में शामिल एक ग्रामीण ने कहा कि सरकार यहां बूथ स्थापित कर सकते हैं लेकिन आधार या मतदाता पहचान पत्र के लिए वे हमसे बहुत दूर यात्रा करने की उम्मीद करते हैं. हममें से कई लोगों के पास कोई कार्ड नहीं है और इसलिए हम वोट नहीं देते हैं.

वहीं कई ग्रामीण हमेशा कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते हैं.

एक ग्रामीण ने कहा कि हम आदिवासी बहुत कष्ट झेल रहे हैं और जब से भारतीय जनता पार्टी (BJP) सत्ता में आई है, चीजें कठिन हो गई हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस का समर्थन करता हूं और जब वे इस बार नहीं जीते तो निराश हूं. मुझे उम्मीद है कि वे इस बार वापसी करने में सक्षम होंग.

कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें वोट देने का अधिकार है और वो अब भी संविधान में विश्वास करते हैं इसलिए इस बार वोट करेंगे.

2003 में बीजेपी को बस्तर और सरगुजा इलाके से राजनीतिक सत्ता की चाबी मिली. पार्टी ने बस्तर की 12 में से 9 सीटें और सरगुजा की 14 में से 10 सीटें जीती थीं.

भाजपा द्वारा जीती गई सभी सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं. बीजेपी ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से 25 पर जीत हासिल की थी.

भाजपा ने लगातार तीन बार शासन किया और बस्तर और सरगुजा के क्षेत्रों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल रही. 2008 में भाजपा एक और सीट जीतने में सफल रही, उसने बस्तर में 11 और सरगुजा में 9 सीटें अपने नाम की.

हालांकि, 2013 में पार्टी बस्तर में सीर्फ चार सीटें और सरगुजा में सात सीटें जीत सकी. आदिवासी आरक्षित सीटों में से 2008 में भाजपा ने 19 और 2013 में 12 सीटें जीतीं.

भाजपा ने 2003 में सरगुजा और बस्तर के आदिवासी क्षेत्र में अपनी अधिकांश सीटें 2013 तक बरकरार रखीं. परिणामस्वरूप, 2003 में 50, 2008 में 50 और 2013 में 49 सीटें जीतकर भाजपा लगातार तीन बार सत्ता में आई.

2018 में कांग्रेस ने 26 में से 25 सीटें जीतकर इस क्षेत्र में जीत हासिल की. कांग्रेस ने 25 आदिवासी आरक्षित सीटें जीतीं. ऐसी उम्मीदें थीं कि कांग्रेस 2023 में सरगुजा और बस्तर क्षेत्र में अपनी जीत दोहराएगी.

लेकिन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पहुंच के दावों के बावजूद बीजेपी ने जबरदस्त वापसी कर विशेषज्ञों को भी चौंका दिया. 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 54 सीटें जीतीं जबकि कांग्रेस 35 सीटें जीतने में सफल रही.

हालांकि, आदिवासी समुदाय के लिए स्थिति वैसी ही बनी हुई है.

लोगों का कहना है कि भाजपा के आने के साथ मुठभेड़ों की संख्या में वृद्धि हुई है. लेकिन कांग्रेस शासनकाल के दौरान भी चीजें बेहतर नहीं थीं. इस दौरान मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कई लोगों को जेल में डाल दिया गया. दावा किया गया कि उनके संबंध नक्सलियों से हैं. हमारे लिए राजनीतिक पार्टी बदलती है स्थिति नहीं.

एक तरफ जहां कई आदिवासी चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं. वहीं अभी भी एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है जिसे भाजपा मनाने में सफल रही है.

क्षेत्र के विशेषज्ञों के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी वोट विभाजित हो गए हैं, जिसका मुख्य कारण भाजपा द्वारा “धर्मांतरण” को एक बड़ा मुद्दा बनाना है.

जानकारों के मुताबिक इसके चलते वोट शेयर का बड़ा हिस्सा बीजेपी की झोली में गिर जाएगा.

राज्य के आदिवासियों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है. पहले वे हैं जो न तो खुद को हिंदू मानते हैं और न ही ईसाई; दूसरा हिंदू धर्म में विश्वास रखता है और तीसरे ईसाई धर्म का पालन करते हैं.

ये वही लोग हैं जो खुद को किसी धार्मिक श्रेणी में नहीं मानते, वो चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं. बाकी वोट शेयर बंट जाता है.

छत्तीसगढ़ में ईसाई समुदाय के प्रति बड़ी हिंसा देखी गई है. छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के मुताबिक, कांग्रेस सरकार के पहले तीन वर्षों में ईसाइयों पर हमले और उत्पीड़न के 380 मामले हुए थे.

इसके अलावा आदिवासी समुदाय के लिए कैंप भी चिंता का एक बड़ा कारण हैं जिसका वे विरोध भी कर रहे हैं. इस मुद्दे को कई आदिवासी कार्यकर्ताओं और नेताओं ने उठाया है. कई लोग चाहते हैं कि यह चुनावी मुद्दा भी बने.

माओवादियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने और दक्षिण बस्तर में उनकी गतिविधियों को सीमित करने के लिए, जिसे पुलिस घोर नक्सली क्षेत्र कहती है, वहां कई शिविर स्थापित किए गए हैं. छत्तीसगढ़ में दक्षिण और पश्चिम बस्तर क्षेत्र को नक्सलियों का आखिरी गढ़ माना जाता है.

इनमें से अधिकांश शिविरों में सीआरपीएफ और पुलिस बल रहते हैं, जिनके बारे में आदिवासियों का कहना है कि इससे नक्सलियों के बजाय उनके आंदोलन पर अंकुश लगेगा.

लोगों का कहना है कि अपने ही घरों में हम इन शिविरों के कारण घूम-फिर नहीं सकते. हमें परेशान किया जाता है, नक्सली कहा जाता है और बिना सबूत के जेलों में डाल दिया जाता है, यही कारण है कि हम इन शिविरों का विरोध कर रहे हैं.

19 शिविरों में से आठ बीजापुर में, छह सुकमा में, तीन नारायणपुर में और एक-एक कांकेर और दंतेवाड़ा में हैं. अकेले बस्तर क्षेत्र में 60 से अधिक शिविर हैं. हालांकि समुदाय के सदस्यों का कहना है कि संख्या अधिक हो सकती है.

जानकारों का मानना है कि चुनाव बहिष्कार का असर विधानसभा चुनाव पर पड़ा था और इसका असर लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिल सकता है.

आदिवासी समुदाय में गुस्सा और लाचारी है, जो उन पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं और उनकी गुहार सुनने वाला कोई नहीं है. ऐसी स्थिति में चुनाव का बहिष्कार करना ही एकमात्र समाधान प्रतीत होता है.

इस बीच चुनाव से ठीक पहले लोगों ने आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ पुलिस विरोध स्थलों को खाली करा रही है. अब तक चार विरोध स्थलों को हटा दिया गया है. जबकि शनिवार को नारायणपुर (बस्तर) में एक विरोध स्थल को कथित तौर पर ध्वस्त कर दिया गया था.

विडंबना यह है कि कांग्रेस ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कहा है कि वह राज्य में आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने में “विफल” रही है.

ये टिप्पणियाँ सोमवार को तब आईं जब कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने बस्तर में अपनी रैली से पहले प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछे.

रमेश ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने में “विफल” रहे हैं और पूछा कि क्या वह कभी आदिवासी कल्याण के लिए सार्थक रूप से प्रतिबद्ध होंगे.

उन्होंने कहा, यहां (बस्तर) भाजपा के व्यवहार से पता चला है कि कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के साथ उनकी दोस्ती लोगों के प्रति उनके कर्तव्य की भावना से कहीं अधिक गहरी है. हमें उम्मीद है कि पीएम इस बात पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं कि वह राज्य में आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने में क्यों विफल रहे हैं.”

उन्होंने दावा किया कि “राज्य के फेफड़े” माने जाने वाले घने, जैव विविधता से भरपूर हसदेव अरण्य वन को भाजपा और उनके “पसंदीदा साथी”, अडानी एंटरप्राइजेज से खतरा है.

जयराम रमेश ने आरोप लगाया, “जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी तो इस पवित्र जंगल की रक्षा के लिए केंद्रीय कोयला मंत्रालय द्वारा इस जंगल में हमारे 40 कोयला ब्लॉक रद्द कर दिए गए थे. जब से भाजपा वापस आई है, उन्होंने इस फैसले को पलट दिया है और अडानी के स्वामित्व वाले परसा कोयला में खनन फिर से शुरू कर दिया है. आदिवासी समूहों और कार्यकर्ताओं के उग्र विरोध के बावजूद ब्लॉक किया गया.”

उन्होंने आगे कहा कि विरोध के नेताओं का कहना है कि हसदेव अरण्य के विनाश से आदिवासी समुदायों की आजीविका को अपूरणीय क्षति होगी, साथ ही पर्यावरण और वन्य जीवन को गंभीर नुकसान होगा, जिससे मानव-हाथी संघर्ष की स्थिति और खराब हो सकती है.

रमेश ने पूछा, “प्रधानमंत्री और भाजपा इतनी बेरहमी से छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों की भलाई को कैसे खतरे में डाल सकते हैं.”

हसदेव-अरण्य जंगल में पेड़ों की कटाई का आदिवासी समुदाय विरोध कर रहा है.

कोयला खनन के खिलाफ छत्तीसगढ़ के हसदेव-अरण्य जंगल में आदिवासियों के नेतृत्व में लगभग 13 वर्षों से आंदोलन चल रहा है.

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