तमिलनाडु के तिरुपथुर जिले के पुंगमपट्टू और नेल्लीवासल नाडु के आदिवासी गांवों के लोगों ने आगामी लोकसभा चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया है.
ग्रामीणों का कहना है कि हमारे पास उचित सड़कें नहीं हैं, स्कूल हमारे गांव से 12 किलोमीटर दूर है और हमारे बच्चों को स्कूल पहुंचने के लिए घने जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है.
उनका कहना है कि हर चुनाव से पहले खोखले वादे किए जाते हैं जिन्हें कभी पूरी नहीं किया जाता. इसलिए इस बार हमने वोट न देकर चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला लिया है.
दूर-दराज की आदिवासी बस्तियों के निवासियों और तिरुपथुर शहर के पास जवाधु पहाड़ियों के निवासियों ने अपने गांवों में बैनर लगाए हैं. जिसमें राजनीतिक दलों से लोकसभा चुनाव के लिए वोट मांगने के लिए उनके पास न आने को कहा गया है.
पुंगमपट्टू नाडु गांव के निवासी करुप्पाम्मल ने कहा, “राजनीतिक दलों को हमारे गांव का दौरा नहीं करना चाहिए और हमने उन्हें आने से मना किया है.”
उन्होंने बताया कि उनकी बस्तियों के बच्चों को लगभग 12 किलोमीटर दूर पुदुर नाडु या नेल्लीवासल नाडु के सरकारी स्कूलों में जाना पड़ता है. इसके अलावा उन्होंने बताया कि निवासियों को अपने रोजमर्रा के काम के लिए कीचड़ भरे रास्तों से होकर जाना पड़ता है.
करुप्पम्मल ने कहा, “इलाके के कई पुरुष अपने परिवारों को पीछे छोड़ कर बेंगलुरु, सलेम और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में मजदूरी करने चले जाते हैं. इन बस्तियों में 40-45 परिवार हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं ही परिवार में मुखिया का दायित्व निभा रही हैं. “
ग्रामीणों ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में गर्भवती महिलाओं और बीमार लोगों को अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उनकी मौत हो जाती है. क्योंकि लोग उन्हें जवाधु पहाड़ियों की तलहटी में जोलारपेट या तिरुपथुर शहर में स्थानांतरित नहीं कर सकते हैं.
पुदुर नाडु के निवासी वीरमणि ने कहा कि क्योंकि कोई सड़क, बस सेवा और एम्बुलेंस नहीं हैं इसलिए हमें खुद ही बीमार लोगों और गर्भवती महिलाओं को पहाड़ी से नीचे स्वास्थ्य केंद्रों तक ले जाना पड़ता है.
करीब 17,000 मतदाताओं वाले 32 आदिवासी बस्तियों के निवासियों ने राजनीतिक दलों से उनके क्षेत्रों में वोट के लिए प्रचार न करने के लिए सांकेतिक बैनर लगाए हैं.
नेल्लीवासल नाडु के एक अन्य निवासी मनीसामी ने कहा कि चुनाव का बहिष्कार करने का निर्णय गांव की आदिवासी बैठकों में संयुक्त रूप से लिया गया था और वे निर्णय नहीं बदलेंगे.
इन दूरदराज के इलाकों में राशन को एक गंभीर मुद्दा बताते हुए एक ग्रामीण ने कहा कि हम ज्यादातर बाजरा, सब्जियां और हरी मिर्च की खेती करते हैं. शहद संग्रह भी एक प्रमुख व्यवसाय है. कृषि उपज को जोलारपेट और थिरुपाथुर कस्बों के स्थानीय बाजारों तक पैदल ही ले जाना पड़ता है.
उन्होंने कहा कि हालांकि मानसून के दौरान राशन की दुकानें उनके गांव में होती हैं लेकिन कीचड़ भरे इलाके के कारण राशन को यहां तक नहीं पहुंचाया जा सकता और इसलिए कार्डधारकों को राशन खरीदने के लिए पहाड़ियों से नीचे पुदुर गांव तक जाना पड़ता है.
बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण होने वाली इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण आगामी चुनाव का बहिष्कार करने पर आमादा हैं.
सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में राजनीतिक पार्टियों के बड़े-बड़े वादे खोखले ही नज़र आते हैं. इस बात को भी नहीं झूठलाया जा सकता कि सभी पार्टियों को इन इलाकों की याद केवल चुनाव के वक्त ही आती है.
लेकिन इस सब के बीच अहम सवाल है कि क्या चुनाव का बहिष्कार करने से उनकी माँगें पूरी हो जाएगी? एक अमेरिकन राजनीतिज्ञ का भी मानना है कि वोट न देने से विरोध साबित नहीं होता, यह एक तरह का आत्मसमर्पण है. तो क्या इन आदिवासियों ने हार मान ली है?
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