HomeAdivasi Dailyलोकसभा चुनाव 2024: गुजरात के आदिवासी सीटों का गणित और मुद्दे क्या...

लोकसभा चुनाव 2024: गुजरात के आदिवासी सीटों का गणित और मुद्दे क्या हैं

2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात में आदिवासी आबादी 14.67 फीसदी (लगभग 75 लाख) है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा के लाभार्थी 17.10 फीसदी और माध्यमिक शिक्षा के लाभार्थी 12.53 फीसदी हैं. उच्च शिक्षा में इनकी उपस्थिति बमुश्किल एक फीसदी है.

लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारी देशभर में चल रही है. इस बार लोकसभा चुनाव 7 चरण में चुनाव आयोजित किए गए हैं और परिणाम 4 जून 2024 को घोषित किए जाएंगे.

यह भारत में सबसे लंबे समय तक चलने वाला आम चुनाव होगा, जो कुल 44 दिनों तक चलेगा.

बात करें गुजरात राज्य की तो यहां की 26 सीटों के लिए एक ही चरण में वोटिंग होगी, जो तीसरे चरण में यानि 7 मई में होगी.

गुजरात की 26 लोकसभा सीटों में से चार सीटें – दाहोद, छोटा उदयपुर, बारडोली और वलसाड अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. आज हम इन्हीं चार सीटों के सियासी समीकरण की बात करेंगे…

दाहोद लोकसभा सीट

दाहोद जिले की स्थापना 2 अक्टूबर 1997 को पंचमहल जिले को विभाजित करके की गई थी. इसका प्रशासनिक मुख्यालय भी यहीं है. इसका क्षेत्रफल 3,642 वर्ग किलोमीटर है. इस जिले में 1 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र और 6 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र शामिल हैं.

2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक दाहोद जिले की जनसंख्या 21 लाख से ज्यादा थी. इस जिले का लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुष 990 महिला है. यहां की 91 फीसदी जनसंख्या ग्रामीण इलाकों में रहती है. यहां की 75 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय की है.

दाहोद जिले की 58.82 फीसदी जनसंख्या साक्षर है, जिसमें पुरुष साक्षरता दर 70.01 फीसदी और महिलाओं की साक्षरता दर 47.65 फीसदी है.        

इस जिले की सीमा उत्तर में राजस्थान के वानसवाड़ा जिले से मिलती है, पश्चिम में गोधरा जिले और पूर्व और दक्षिण में मध्य प्रदेश का झाबुआ जिले की सीमाएं दाहोद से जुड़ती है.

राजनीत‍िक इत‍िहास की बात करें तो यहां सबसे पहली बार 1951 में चुनाव हुए थे. पहले ही चुनाव से यह सीट कांग्रेस के खाते में गई और लंबे समय तक कांग्रेस ने ही इस पर कब्‍जा जमाए रखा. 1977 से 1998 तक इस सीट पर कांग्रेस उम्‍मीदवार सोम जी भाई ने लगातार सात बार जीत हास‍िल की थी. उनसे यह सीट भाजपा के बाबू भाई खीमा ने 1999 में छीन ली थी.

वर्तमान में यहां से जसवंत स‍िंह सुमन भाई भाभोर सांसद हैं, ज‍िन्‍होंने 2019 के चुनाव में कांग्रेस के कटारा बाबू भाई खीमा को हराया था.

वह अब तक दो बार इस सीट से चुने जा चुके हैं, इससे पहले उन्‍होंने 2014 के चुनाव में कांग्रेस के ही डॉ. प्रभा क‍िशोर को मात दी थी.

खास बात ये है क‍ि 1999 में इस सीट से पहली बार जीती भाजपा ने अब तक स‍िर्फ 2009 में ही इस सीट पर कांग्रेस को जीतने का मौका द‍िया था.

छोटा उदयपुर लोकसभा सीट

आदिवासी बहुल छोटा उदयपुर जिला पंचमहल के पास है, ज‍िसकी स्‍थापना 1743 में की गई थी. यह मध्‍य प्रदेश के अलीराजपुर से सटा है. आद‍िवास‍ियों के अलावा यहा मुस्‍ल‍िम राजपूत और दल‍ित समाज की आबादी भी है.

छोटा उदयपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत सात विधानसभा सीट हैं. इनमें हलोल, सानखेड़ा, नांदोड, छोटा उदयपुर, दभोई, जेतपुर, पादरा सीट हैं. सानखेड़ा, नांदोड, छोटा उदयपुर और जेतपुर सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. जबकि बाकी सीटें सामान्य हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, यहां की कुल आबादी 22,90,199 है. इसमें से 87 फीसदी आबादी ग्रामीण और 13 फीसदी शहरी है. अनुसूचित जाति (SC) की जनसंख्या 3.23 प्रतिशत जबकि अनुसूचित जनजाति की आबादी 56.27 प्रतिशत है.

राजनीत‍िक इत‍िहास की बात करें तो इस सीट पर भाजपा का दबदबा माना जाता है, पहले यह सीट कांग्रेस का गढ़ हुआ करती थी.

छोटा उदयपुर सीट पर पहला चुनाव इमरजेंसी के बाद 1977 में हुआ था. इस पहले चुनाव में ही कांग्रेस ने यहां से बाजी मारी थी और अमरसिंह राठवा पहले सांसद बने थे. इसके बाद 1980 और 1984 के चुनाव में भी अमरसिंह राठवा ने परचम लहराया और संसद पहुंचे.

1989 के चुनाव में यहां परिवर्तन हुआ और जनता दल के टिकट पर नारणभाई राठवा ने अमरसिंह राठवा को शिकस्त दी थी. जनता दल का विघटन होने पर उन्होंने अगला चुनाव यानी 1991 का आम चुनाव जनता दल (गुजरात) के टिकट पर लड़ा और एक बार फिर जीत दर्ज की थी.

नारणभाई राठवा ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया और 1996 के चुनाव में फिर जीते थे. 1998 का चुनाव भी नारणभाई राठवा ने कांग्रेस के टिकट पर अपने नाम कर लिया. लेकिन 1999 में उनकी जीत पर बीजेपी के रामसिंह राठवा ने ब्रेक लगा दिया. हालांकि, रामसिंह बहुत ही मामूली अंतर से उन्हें हरा पाए, लेकिन इस चुनाव में नारणभाई का विजयरथ रुक गया.

2004 में जब देशभर में बीजेपी का शाइनिंग इंडिया नारा फेल हुआ तो नारणभाई ने रामसिंह राठवा को हराकर वापसी की.

फिर आम चुनाव 2009 और 2014 में रामसिंह ने नारणभाई का स्वाद बिगाड़ दिया. 2009 में हालांकि, नारणभाई कम अंतर से हारे, लेकिन 2014 में मोदी लहर के साथ रामसिंह राठवा काफी आगे निकल गए थे.

इसके बाद 2019 के चुनाव में जब भाजपा ने गीता बेन को उम्‍मीदवार बनाया था तब ये माना जा रहा था क‍ि यहां कांग्रेस को वाक ओवर म‍िल सकता है. क्‍योंक‍ि राठवा गीता बेन ने इससे पहले कभी भी व‍िधायक या सांसद का चुनाव नहीं लड़ा था, वह स‍िर्फ ज‍िला पंचायत सदस्‍य थीं.

लेक‍िन भाजपा ने उन्‍हें ट‍िकट देकर एक दांव चला और गीता बेन ने तीन लाख मतों से जीत हास‍िल की. वर्तमान में वही छोटा उदयपुर की सांसद हैं.

बारडोली लोकसभा सीट

बारडोली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र 2008 में संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया. यहां पर प्रमुख तौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुकाबला होता है.

इस लोकसभा क्षेत्र में सात व‍िधानसभा सीटें आती हैं. इनमें मंगरोल, मांडवी, कामरेज, बारडोली, महुवा, व्‍यारा, न‍िजार हैं.

गुजरात की बारडोली लोकसभा सीट अपने राजनीत‍िक इत‍िहास के साथ-साथ सांस्कृतिक व‍िव‍िधता के ल‍िए भी प्रस‍िद्ध हैं. भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम में भी इस शहर का महत्‍वपूर्ण स्‍थान रहा है.

यह वही शहर है जहां 1928 में सरदार वल्‍लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारडोली सत्याग्रह का आगाज हुआ था. यह आंदोलन ब्र‍िट‍िश सरकार की दमनकारी नीत‍ियों के ख‍िलाफ एक अह‍िंसक व‍िरोध था.

यहां पहली बार 2009 में चुनाव हुआ और इसके पहले संसद सदस्य कांग्रेस के तुषार अमरसिंह चौधरी थे.

लेकिन 2014 के चुनाव में भाजपा ने यह सीट कांग्रेस से छीन ली थी. बीजेपी के परशुभाई वसावा ने यह सीट अपने नाम की थी.

वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में इस सीट से बीजेपी के परभुभाई वसावा ने एक बार फिर जीत दर्ज की, उन्हें 7,42,273 वोट मिले थे. जबकि कांग्रेस के तुषार अमरसिंह चौधरी 5,26,826 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे.

वलसाड लोकसभा सीट

वलसाड लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र उत्तर में नवसारी जिले, पूर्व में महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले से घिरा है. यह 3008 वर्ग किलोमीटर में फैला है और छह तालुकाओं में विभाजित है- वलसाड, वापी, पारदी, उमरगाम, कपराडा और धरमपुर.

2011 की जनगणना के मुताबिक, वलसाड लोकसभा क्षेत्र की आबादी 23,00,449 है. इसमें 70.69 फीसदी आबादी ग्रामीण और 29.31 फीसदी आबादी शहरी है. यहां पर अनुसूचित जाति की आबादी 1.84 प्रतिशत और 62.69 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति की है.

इस लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत डांग, वलसाड, उमरगांव, वांसडा, पर्डी, धरमपुर, कपराडा विधानसभा सीट आती हैं.

देश की राजनीति के लिए इस सीट को काफी लकी माना जाता है. इस सीट को लेकर चर्चा है कि यहां से सत्ता का रास्ता तय होता है. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस सीट पर जिस पार्टी को जीत मिलती है, वही केंद्र में सरकार बनाती है. पिछले कई चुनावों में ऐसा देखने को मिला है.

पहले यह सीट बुलसर के नाम से जानी जाती थी.

वलसाड लोकसभा सीट पर सबसे पहले 1957 में चुनाव हुए थे, उस चुनाव में यहां नानू भाई पटेल ने चुनाव जीता था. 1977 तक यहां कांग्रेस कब्जा रहा और तब तक देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार रही.

1977 में भी नानू भाई ही इस सीट से चुनाव जीते थे लेकिन इस बार उन्होंने जनता पार्टी से चुनाव लड़ा और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी. 1980 में यहां फिर कांग्रेस ने वापसी की और 1989 तक इस सीट पर उत्तम भाई पटेल का कब्जा रहा, केंद्र में भी इस दौरान कांग्रेस की ही सरकार रही.

1991 में उत्तम भाई यहां फिर जीते. 1996 में पहली बार यहां से भाजपा उम्मीदवार ने जीत हासिल की थी. 1999 तक यहां मणिभाई चौधरी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते. संयोग देखिए कि इस बीच लगातार केंद्र में भी एनडीए की सरकार रही.

2004 में कांग्रेस के किशन भाई वेस्ताभाई पटेल ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की, 2009 में भी वही चुनाव जीते और केंद्र में भी कांग्रेस ने सरकार बनाई. 2014 से केंद्र में भाजपा काबिज है और यहां भी भाजपा उम्मीदवार केसी पटेल ही चुनाव में जीत हासिल कर रहे हैं.

गुजरात के आदिवासियों के मुद्दे

राज्य सरकार के तमाम दावों के बावजूद गुजरात के आदिवासियों के बीच साक्षरता का निम्न स्तर, सिकल सेल एनीमिया की उच्च घटनाएं, बेरोजगारी, पलायन और वन या वन उपज तक पहुंच न होना बड़े मुद्दे हैं.  

आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में आदिवासियों की साक्षरता दर पिछले पांच दशकों से लगातार बढ़ रही है. लेकिन साथ ही जमीनी हकीकत और आंकड़ों से पता चलता है कि समुदाय में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है और सरकार के साथ-साथ संगठित क्षेत्रों में भी इसकी भागीदारी निराशाजनक है.

रोजगार के अवसरों के अभाव में शिक्षित आदिवासी युवा या तो असंगठित क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं या बेहतर विकल्पों के लिए पलायन करते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात में आदिवासी आबादी 14.67 फीसदी (लगभग 75 लाख) है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा के लाभार्थी 17.10 फीसदी और माध्यमिक शिक्षा के लाभार्थी 12.53 फीसदी हैं. उच्च शिक्षा में इनकी उपस्थिति बमुश्किल एक फीसदी है.

अधिकांश जनजातियां दक्षिण गुजरात के सात जिलों – सूरत, डांग, तापी, भरूच, वलसाड, नर्मदा और नवसारी के 15 तालुकाओं (उपखंडों) में निवास करती हैं.

गुजरात में 28 अनुसूचित जनजातियां सूचीबद्ध हैं. उनमें से आठ आदिम जनजातियां हैं.

दक्षिण गुजरात में आदिवासियों के बीच उच्च स्तर की साक्षरता रिपोर्ट की गई है लेकिन उन्हें भी बेरोजगारी के अलावा राज्य के अन्य हिस्सों में आदिवासियों के बीच व्याप्त समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

उन्हें वन अधिकारियों द्वारा अक्सर अत्याचारों का सामना करना पड़ता है. तापी और नर्मदा पर बड़े पैमाने पर बांधों के साथ-साथ गुजरात के सिल्वर कॉरिडोर के हिस्से के रूप में औद्योगिक एस्टेट जैसी विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित लोगों की संख्या सबसे अधिक है.

इसके अलावा राज्य के जनजातीय केंद्रित क्षेत्रों में त्रि-आयामी प्रवास देखने को मिलता है: लोग सूरत, नवसारी और वलसाड जिलों में गन्ने की कटाई के लिए जाते हैं; उनमें से बड़ी संख्या में प्याज, अंगूर और अनार के उत्पादन और कटाई के लिए महाराष्ट्र की यात्रा करते हैं; बाकी लोग निर्माण मजदूर के रूप में काम करने के लिए दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में जाते हैं.

गुजरात के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आदिवासियों के बीच भूमि हस्तांतरण बहुत बड़े पैमाने पर है. आधिकारिक तौर पर लगभग 7-8 फीसदी आदिवासी अपनी ज़मीन से बेदखल हो गए हैं. वहीं अनौपचारिक सर्वेक्षणों से यह सीमा 15 फीसदी तक पता चलती है.

राज्य सरकार ने संयुक्त वन प्रबंधन, वनबंधु योजना और अन्य विकास कार्यक्रम शुरू करने जैसे कदम उठाए हैं लेकिन इसका प्रभाव रोजगार और जीवन की बेहतर गुणवत्ता प्रदान करने में सीमित है.

पंचायती राज एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया एक्ट, 1998 (PESA) से आदिवासियों को स्थानीय स्वशासन के अवसर प्रदान करने की उम्मीद थी. लेकिन सरकार द्वारा इसे अच्छी तरह से लागू नहीं किया गया है.

इस स्थिति में आदिवासी विकास केंद्रीकृत और काफी हद तक सरकार पर निर्भर बना हुआ है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments