HomeAdivasi Dailyशिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण का आदिवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा

शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण का आदिवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा

ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि एक दलित महिला, उच्च जाति की हिंदू महिला की तुलना में औसतन पंद्रह वर्ष कम जीवित रहती है. 47.6 प्रतिशत गैर-एसटी महिलाओं की तुलना में लगभग 65 प्रतिशत एसटी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. वे स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच से चूक जाते हैं.

हाल के वर्षों में भारत में प्राइवेट स्कूलों की वृद्धि महत्वपूर्ण रही है. प्रारंभिक शिक्षा में उनकी हिस्सेदारी साल 2007-08  के 19.49 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 28 प्रतिशत हो गई है. ऑक्सफैम इंडिया के मुताबिक, यह उछाल रूप हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बीच इन स्कूलों में दाखिले में नज़र नहीं आता है.

12.7 प्रतिशत की भागीदारी दर के साथ अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) के बच्चे, निजी स्कूली शिक्षा में सबसे कम भागीदारी दर्शाते हैं. इसके बाद अनुसूचित जाति (Scheduled Castes) और अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes) के बच्चे हैं.

ऑक्सफैम की स्टडी से संकेत मिलता है कि दलित और आदिवासी बच्चों का बीच प्राइवेट स्कूल में नामांकन समय के साथ कम हो रहा है. जिससे इन समूहों और उच्च जातियों के बीच शिक्षा के क्षेत्र में अंतर बढ़ रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में इस पैटर्न में तेजी आई है. जिससे दलित और आदिवासी समुदायों और ऊंची जातियों के बीच असमानता बढ़ने का ख़तरा पैदा हो गया है.

भारत में प्राइवेट स्कूलों का प्रसार लिंग, जाति और वर्ग के आधार पर समावेशी नज़र नहीं आता है.

खासकर के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों और नामांकन में वृद्धि भारत के हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए नए अवसर पैदा करने के बजाय मौजूदा सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय भेदभाव को कायम रखती है.

हालांकि शहरी क्षेत्रों में कुछ जातिगत असमानताओं में प्राथमिक स्तरों पर सुधार देखा गया है. लेकिन समय के साथ प्राइवेट स्कूलों में एनरोलमेंट को न्यायसंगत बनाने के लिए लगातार प्रयासों की कमी है.

बाजार आधारित शिक्षा प्रणाली का झुकाव स्वाभाविक रूप से सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले लोगों के खिलाफ है. जिससे इन समुदायों के लिए शिक्षा तक पहुंच और अवसरों में विषमता बनी रहती है.

ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 महामारी के दौरान अनुसूचित जाति के 37 प्रतिशत बच्चों को स्कूल स्टाफ या उनके साथियों द्वारा उत्पीड़न या दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा.

पैसे की कमी प्राइवेट स्कूलों में दलित और आदिवासी नामांकन के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पेश करती हैं. क्योंकि ऐसे संस्थानों में एक बच्चे को भेजने की लागत भी उनकी घरेलू आय का एक बड़ा हिस्सा है.

वंचित समुदायों के परिवार से एक भी बच्चे को प्राइवेट स्कूल में भेजने पर शिक्षा के माध्यमिक स्तर पर एसटी परिवारों की कुल आय का 27 प्रतिशत और एससी परिवारों की कुल आय का 23.3 प्रतिशत खर्च होगा.

रिपोर्ट कहती है कि अगर प्रति व्यक्ति परिवार के खर्च को आय के अनुमान के रूप में उपयोग करते हुए, जब प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जाती है तो सार्वजनिक स्कूल की तुलना में निजी स्कूल का चयन करने की संभावना लगभग 10 प्रतिशत अधिक होती है.

दलित और आदिवासी भारत में सबसे अधिक आर्थिक रूप से वंचित समूहों में से एक हैं. जिनमें 25 प्रतिशत दलित और 35 प्रतिशत आदिवासी गरीबी रेखा से नीचे हैं.

सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (2011) के आंकड़ों से पता चलता है कि अनुसूचित जाति (एससी) के 83.55 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के 86.53 प्रतिशत परिवारों में सबसे अधिक कमाई करने वाले सदस्य की आय 5 हज़ार रुपये से कम है.

इसकी तुलना में दलित और आदिवासी परिवार राष्ट्रीय औसत वार्षिक घरेलू आय से 21 प्रतिशत और 34 प्रतिशत कम कमाते हैं. जबकि उच्च जाति के परिवार इस औसत से लगभग 47 प्रतिशत अधिक कमाते हैं.

स्कूल की फीस, प्राइवेट ट्यूशन, स्टेशनरी, स्कूल यूनिफॉर्म, किताबें और ट्रांसपोर्ट जैसे सामान्य शैक्षिक खर्चों के कारण माता-पिता पर वित्तीय तनाव बढ़ जाता है. यह माता-पिता की आर्थिक स्थिति और बच्चे के स्कूल के प्रकार के बीच एक स्पष्ट संबंध को रेखांकित करता है.

केरल क्वालिटी में हाई और ड्रॉपआउट दर सबसे कम

हालांकि, सार्वजनिक शिक्षा का केरल मॉडल एक अलग तस्वीर पेश करता है. 2019 की नीति आयोग की रिपोर्ट में 20 बड़े राज्यों में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता का मूल्यांकन करते हुए केरल ने बेहतरीन प्रदर्शन दिखाते हुए पहला स्थान हासिल किया है.

वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश, सबसे अधिक आबादी वाला राज्य होने के बावजूद शैक्षणिक वर्ष 2016-17 के लिए रैंकिंग में सबसे नीचे आ गया है.

खैर बात करते हैं केरल की…. केरल सरकार की समय-समय पर होने वाली आर्थिक समीक्षाओं के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में छात्रों के सरकारी स्कूलों में वापस जाने का उलटा रुझान देखने को मिला है. पिछले वर्षों की तुलना में शैक्षणिक वर्ष 2021-22 में करीब 2 लाख 56 हज़ार 448 नए छात्रों ने केरल के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में प्रवेश मांगा.

साल 2022-23 में ये संख्या 82,448 है. (सरकार के मुताबिक संख्या में यह गिरावट जन्म दर में गिरावट के कारण है). पिछले पांच वर्षों में 8 लाख 16 हज़ार 929 नए छात्रों ने सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया है.

केरल में भी सरकारी स्कूलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों का प्रतिशत सहायता प्राप्त और गैर सहायता प्राप्त स्कूलों की तुलना में अधिक है.

इसके अलावा केरल ने सामान्य और एससी/एसटी दोनों श्रेणियों में भारतीय राज्यों के बीच स्कूली छात्रों की ड्रॉपआउट दर सबसे कम होने का गौरव हासिल किया है.

मानव संसाधन मंत्रालय के मुताबिक, साल 2020-21 में केरल में स्कूली छात्रों के बीच ड्रॉपआउट अनुपात 0.04 प्रतिशत था. पिछले कुछ वर्षों में एससी और एसटी छात्रों के ड्रॉपआउट अनुपात में काफी गिरावट आई है.

केरल में एससी छात्रों के बीच ड्रॉप-आउट अनुपात में 2021-22 में 0.04 प्रतिशत की गिरावट आई है और एसटी छात्रों के बीच भी 0.30 प्रतिशत की गिरावट आई है.

ऑक्सफैम इंडिया ने प्राइवेट स्कूलों में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ भेदभाव को दूर करने के लिए रेगुलेटरी उपायों की सिफारिश की है और शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत आवंटित करके सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने की आवश्यकता पर जोर दिया है.

निजी स्कूलों में वृद्धि के बावजूद सीखने के परिणामों पर उनका प्रभाव अस्पष्ट बना हुआ है और छात्रों के मूल्यांकन में शिक्षक पूर्वाग्रह बना हुआ है.

संक्षेप में अगर कहे तो शिक्षा के निजीकरण से भारतीय समाज में वर्ग, जाति और लिंग की मौजूदा बाधाओं को तोड़ने के बजाय सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने का ख़तरा है.

स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण और हाशिए पर रहने वाले समुदायों पर इसका प्रभाव

ऑक्सफैम ने भारत के दलितों और आदिवासियों पर स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला है. ये समुदाय काफी असमान स्वास्थ्य परिणामों का अनुभव करते हैं और निम्न गुणवत्ता का छोटा जीवन जीते हैं.

ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि एक दलित महिला, उच्च जाति की हिंदू महिला की तुलना में औसतन पंद्रह वर्ष कम जीवित रहती है. 47.6 प्रतिशत गैर-एसटी महिलाओं की तुलना में लगभग 65 प्रतिशत एसटी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. वे स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच से चूक जाते हैं.

गैर-एससी/एसटी महिलाओं में 81 प्रतिशत की तुलना में केवल 61 प्रतिशत एसटी माताओं को टेटनस टीकाकरण प्राप्त हुआ.

ऑक्सफैम इंडिया के मुताबिक, सिर्फ 4 प्रतिशत आदिवासी और 15 प्रतिशत दलित प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करवाना चाहते हैं.

विशेष रूप से एनएसएसओ के 75वें दौर से संकेत मिलता है कि निजी सुविधाओं में रोगी की देखभाल के लिए जेब से खर्च सार्वजनिक सुविधाओं की तुलना में 524 प्रतिशत अधिक है. यह विशेष रूप से एक महत्वपूर्ण बोझ है.

ऑक्सफैम इंडिया ने पाया है कि इस उम्मीद के बावजूद कि स्वास्थ्य बीमा उच्च स्वास्थ्य देखभाल लागत को कवर करेगा, पीएमजेएवाई के तहत निजी अस्पतालों में केवल 1.6 प्रतिशत और 4 प्रतिशत दाखिले दलित और आदिवासियों से थे. जो उनकी अनुमानित योग्य जनसंख्या हिस्सेदारी से काफी कम है.

इसके अलावा प्राइवेट हॉस्पिटल जो मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं, आदिवासी और दलित आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी को बढ़ाते हैं.

निजी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में भेदभाव जारी है, जिसमें असमान देखभाल, प्रवेश से इनकार और दलितों और आदिवासियों के लिए लंबे समय तक प्रतीक्षा करना शामिल है.

मेडिकल प्रोफेशनल के नेतृत्व में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व भी उल्लेखनीय रूप से कम है और निजी क्षेत्र में सामाजिक जवाबदेही सीमित है. कमजोर रेगुलेटरी मैकेनिज्म और प्रमुख प्रावधानों का अपर्याप्त कार्यान्वयन इन चुनौतियों को और बढ़ा देता है.

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