HomeIdentity & Lifeआदिवासी पहचान पर समान नागरिक संहिता थोपना कितना जायज़ होगा

आदिवासी पहचान पर समान नागरिक संहिता थोपना कितना जायज़ होगा

झारखंड के कोलहान क्षेत्र से एक रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में हमने हो आदिवासी समुदाय की मानकी मुंडा व्यवस्था को समझने की कोशिश की थी. मुझे उम्मीद है उस रिपोर्ट पर आपकी नज़र पड़ी होगी, अगर आपने यह रिपोर्ट अभी तक नहीं देखी है तो प्लीज़ देखें…यह रिपोर्ट आपको आदिवासी समाज की बनावट उसकी सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में कुछ अंदाज़ा दे सकती है. साथ ही यह रिपोर्ट देख कर आप आदिवासियों के हक़ में बने क़ानूनों का इतिहास भी समझ सकेंगे…और इन क़ानूनों के लिए आदिवासी समुदायों ने कितनी लड़ाई लड़ी है..इस बात का अहसास भी हो सकता है.

आज मैं आपसे इस रिपोर्ट को देखने का आग्रह इसलिए भी कर रहा हूँ क्योंकि कल यानि मंगलवार 27 जून 2023 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश में एक नई बहस छेड़ दी है. यह बहस देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर ज़ोर देने से पैदा हुई है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि संविधान में सभी नागरिकों को बराबर के अधिकार देने की बात कही गई है. इस लिहाज़ से देश में एक समान नागरिक संहिता लागू करना ज़रूरी है.

जो लोग राजनीति में ज़रा सी भी रुचि रखते हैं वे जानते हैं कि संघ परिवार यानि RSS और उसके संगठन जिनमें बीजेपी भी शामिल है लंबे समय से समान नागरिक संहिता की माँग करते रहे हैं. इस बहस को संघ परिवार ने लगातार ज़िंदा रखा है. अक्सर यह बहस देश में हिन्दू और मुसलमान के नज़रिये से होती रही है. लेकिन 2014 और फिर 2019 के बाद  केंद्र में बीजेपी की सरकार इतनी मज़बूत है कि वह इन मुद्दों को अब हक़ीक़त में बदल सकती है. 

कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के फ़ैसले से यह साबित भी हो चुका है. तो इसी क्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में मंगलवार को अपनी पार्टी यानि बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करने पर बल दिया. संदेश बिलकुल साफ़ है कि बीजेपी के कार्यकर्ता समान नागरिक संहिता के आस-पास बहस खड़ी करें और उसमें पार्टी का नज़रिया आगे बढ़ाएं. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस कोशिश की विपक्ष ने आलोचना की है. विपक्ष ने कहा है कि भारत सांस्कृतिक विविधता से भरा देश है, इसलिए सभी नागरिकों या समाजों पर एक नागरिक संहिता नहीं थोपी जानी चाहिए. 

लेकिन आप भी जानते हैं कि प्रधानमंत्री या सरकार विपक्ष की आलोचना या सुझाव को कितनी गंभीरता से लते हैं. इससे अपने को कोई गिला नहीं है…क्योंकि विपक्ष में भी इतना दम होना चाहिए कि उसकी आलोचना से सरकार हिल जाए…मैं इस विषय पर बात कर रहा हूँ क्योंकि प्रधानमंत्री के बयान से आदिवासी इलाक़ों में एक बेचैनी देखी जा रही है. छत्तीसगढ़ – झारखंड से लेकर मेघालय और नागालैंड तक आदिवासी संगठन केंद्र सरकार से समान नागरिक संहिता के विचार को छोड़ देने का आग्रह कर रहे हैं.

इस सिलसिले में झारखंड में अलग अलग आदिवासी समुदायों के संगठनों का एक बड़ा मोर्चा भी बना है. इस मोर्चे ने ऐलान किया है कि 5 जुलाई को राँची में गवर्नर हाउस को घेरा जाएगा. समान नागरिक संहिता लागू करने के मसले पर आदिवासी इलाक़ों में पैदा हुई बेचैनी को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यह मसला उनकी विशिष्ट जीवन शैली, संस्कृति, सामाजिक-धार्मिक विश्वासों और स्वशासन व्यवस्था से जुड़े क़ानूनों और संविधानिक प्रावधानों से भी जुड़ा है. 

चलिए इन बातों को कुछ उदाहरणों के साथ समझने की कोशिश करते हैं….मसलन कुछ साल पहले मुझे अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी समुदायों से मिलने का मौक़ा मिला. इनमें से निशी समुदाय के लोगों से भी मेरी मुलाक़ात हुई. यहाँ मुझे पता चला की इस समुदाय में polygamy यानि बहुविवाह बहुत सामान्य सी बात है. इसके अलावा यहाँ अभी भी न्याय व्यवस्था उनके परंपरागत नियमों के हिसाब से ही चलती है.

इसी तरह से नागालैंड में हम गए तो वहाँ के मोकोकचुंग ज़िले में हमें कस्टमरी लॉ कोर्ट दिखाई दिया. यह कोर्ट आओ आदिवासी समुदाय के कस्टमरी लॉ के मुताबिक़ मसले और मुक़दमों को समझता और सुलझाता है. और ऐसे ही शुरुआत में ही मैंने आपको बताया कि हाल ही में हम झारखंड के सिंहभूम ज़िले में गए थे जहां हमने विलकिनसन रूल के तहत बनाये गए मानकी मुंडा कोर्ट को देखा. 

इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ओडिशा और देश के अन्य राज्यों से हमने आपको कई रिपोर्ट्स में यह दिखाया है कि कैसे आदिवासी समुदायों में समाज को चलाने के लिए अलग अलग नियम हैं. शादी- ब्याह से लेकर तलाक़ तक के ना जाने कितने नियम और विधि मौजूद हैं. 

इसका एक और उदाहरण लेते हैं, जब हम अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में आदिवासियों से मिल रहे थे, तो हमने एक सवाल इन समुदाय के मुखियाओं, बुद्धिजीवियों और नेताओं से अनिवार्य तौर पर  पूछा था. यह सवाल था कि उनके समुदाय में महिलाओं को इतना उंचा दर्जा मिलता है…लेकिन फ़ैसले लेने वाली संस्थाओं में उनको क्यों प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता….क्या कारण है कि आदिवासी समुदायों में पिता की संपत्ति में आज भी बेटी का हक़ नहीं मिलता है….इन सवालों के जवाब में कई तर्क हमें दिये गए….लेकिन अंत में जो बात निकलती है वो यही कि आदिवासी प्रथाएँ इस बात की अनुमति नहीं देती हैं. 

अगर मुझे सही से याद है तो साल 2017 में नागालैंड के स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण देने का प्रस्ताव आया था तो इस कदर बवाल हुआ कि मुख्यमंत्री टीआर ज़िलियांग को इस्तिफा देना पड़ा था. 

जब हम आदिवासी भारत की विविधता की बात करते हैं….तो कई ऐसी बातें हैं जो मुख्यधारा के समाज से कहीं अच्छी हैं. लेकिन आदिवासी समुदायों में कुछ भी ऐसा नहीं जिसे बदले जाने की ज़रूरत है यह नहीं कहा जा सकता है…यह सवाल भी हम आदिवासी भारत में अपनी यात्राओं के दौरान आदिवासी बुद्धिजीवियों से लगातार पूछते रहे हैं. मसलन झारखंड की कई प्रबुद्ध आदिवासी महिलाएँ अपने समुदाय में महिलाओं की स्थिति और उनके अधिकारों पर लगातार बोल रही हैं…लिख रही हैं. 

हाल ही में कई कानूनविदों से हमारी इस सिलसिले में बात हुई तो उस बातचीत में जो नतीजा निकला कि आदिवासी परंपराओं और प्रथाओं पर आधारित सामाजिक और प्रशासनिक नियमों का दस्तावेज़ीकरण और कोडिफिकेशन होना चाहिए. उसके बाद ही उन क़ानूनों में सुधार पर एक सार्थक बहस हो सकती है. 

ऐसे कई उदाहरण और हैं जो आदिवासी समुदायों को मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से बिलकुल अलग करती है. मसलन नीलगिरी में बसने वाली कई जनजातीयों में एक महिला कई पुरूषों की पत्नी हो सकती है. हिमाचल प्रदेश में अनुसूचित जनजाति का दर्जा माँगने वाले हाटी लोगों में ऐसी ही प्रथा पर हमने आपको विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट दिखाई थी.

इस पृष्ठभूमि में अगर देखेंगे तो आप शायद इस बात से सहमत होंगे कि समान नागरिक संहिता का विचार सुनने में जितना भी अच्छा लगता हो, लेकिन यह एक विविधता भरे समाज की ख़ूबसूरती को नज़रअंदाज़ करने वाला विचार है. यह विचार एक रंगबिरंगे समाज पर एकरूपता थोपने का प्रयास है…..यह एक ऐसा विचार है जो देश के एक बड़े हिस्से को ग़ैर ज़रूरी बहस में उलझा रहा है…यह एक ऐसा विचार है जो ख़ूबसूरती को नष्ट करता है और अशांति को बढ़ावा देता है. 

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