HomeIdentity & Lifeआदिवासी और धर्म परिवर्तन की राजनीति

आदिवासी और धर्म परिवर्तन की राजनीति

भारत के आदिवासी समुदायों में धर्म परिवर्तन को मुद्दा बनाने की कोशिश लगातार होती रही हैं. कई राजनीतिक और ग़ैर राजनीतिक संगठन इस मुद्दे को बार-बार उछालते रहे हैं. आईए इस मुद्दे और इससे जुड़ी राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अब से करीब दो महीने के भीतर ही विधान सभा के चुनाव होंगे. इन तीनों ही राज्यों में आदिवासी मतदाता बड़ी संख्या में हैं. ज़ाहिर है कि इन राज्यों में राजनीतिक दल आदिवासियों के वोट पाने की रणनीति पर काम करेंगे.


इसके अलावा साल 2024 में लोक सभा के चुनाव भी होंगे. इस लिहाज से भी आदिवासी वोटर महत्वपूर्ण है. क्योंकि लोकसभा की 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.


देश के आदिवासी इलाकों में विस्थापन, पलायन, कुपोषण और बेरोज़गारी जैसे कई मसले हैं. लेकिन राजनीति में अक्सर ऐसे मुद्दों की तलाश रहती है जो व्यापक स्तर पर प्रभाव डाल सके.


आदिवासी समुदायों के संदर्भ में धर्म परिवर्तन और आरक्षण को एक ऐसे ही मुद्दे के तौर पर देखा जाता है.
हांलाकि देश की संसद और सर्वोच्च न्यायालय से इस मुद्दे का समाधान दिया जा चुका है. लेकिन उसके बावजूद बार-बार इस मुद्दे को ज़िंदा किया जाता है.


यह मुद्दा आरएसएस से संबंधित संगठन आदिवासी इलाकों में उठाते रहे हैं. पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और असम में इस मुद्दे को उछालने की भरपूर कोशिश की गई है.


दरअसल कुछ आदिवासी अपना धर्म परिवर्तन करके ईसाई या गैर- ईसाई धर्म का हिस्सा बनते रहे हैं.


देश के संविधान में यह कहा गया है कि अगर कोई आदिवासी धर्म परिवर्तन करता है और वह धर्म परिवर्तन के बाद भी अपनी परम्परा, भाषा, संस्कृति, रीती रीवाज का पालन करता है तो वह अनुसूचित जनजाति का हिस्सा रहेगा. यानि उसे संविधान में जनजातियों के लिए किये गए प्रावधानों का लाभ भी मिलता रहेगा.


धर्म परिवर्त्तन और आरक्षण का लाभ के मामले में कई बार मुकदमे अदालतों में पहुंचे हैं. हर बार अदालत से यही कहा गया है की अगर वह अपनी परम्परा, भाषा, संस्कृति, रीती रीवाज का पालन करते है तो वह अनुसूचित जनजाति ही रहेंगे.
इस तरह के कुछ चर्चित मामलों पर एक नज़र डालते हैं. ये मामले और इन मामलों में अदालत के फैसले इस बहस को समझने में शायद कुछ मदद करेंगे.

1. कपारा हांसदा


कपारा हांसदा नाम की एक महिला ने झारखंड उच्च न्यायलय में एक जनहित याचिका दर्ज की थी. याचिका में ईसाई धर्म में धर्मांतरित हुए आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के अंतगर्त दिए जाने वाले आरक्षण को हटाने की मांग की गई थी.


लेकिन जब इस मामले की सुनवाई झारखंड उच्च न्यायलय की थी. तब उन्होंने 2004 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा केरल एवं अन्य बनाम चन्द्रमोहनन के मामले में दिये गए फैसले का हवाले देते हुए मामले को खारिज़ कर दिया था.


इसके साथ ही अदालत ने कहा था की धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के अंतगर्त दिए जाने वाले आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे लोग धर्म करने बदलने के बाद भी पूरी तरह से अपनी परम्परा, भाषा, संस्कृति, रीति रिवाज से अछूते नहीं रहते हैं.


इसके अलावा अदालत ने कहा कि यहां के आदिवासी छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम एंव संताल परगना काश्तकारी अधिनियम के अंतगर्त भी आते है. न्यायालय ने यह भी कहा था कि आदिवासी एक ट्राइब व नस्ल है. जो धर्म परिवर्तन से नहीं बदलता है. इसलिए उन्हें आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है.

2. केरल का बनाम चन्द्रमोहनन


सुप्रीम कोर्ट में कपारा हांसदा मामले की तरह ही एक और मामला दर्ज हुआ था. जिसमें पदटमबि कांग्रेस मंडल के अध्यक्ष रामचन्दन ने चन्द्रमोहन के विरुद्ध मामला दर्ज कराया गया था.


जिसमें चन्द्रमोहन के विरुद्ध यह आरोप लगाया था कि चन्द्रमोहनन 24 अक्टूबर 1992 को एलीजाबेथ बी कोरा नाम की एक आठ वर्षीय बच्ची का अपहरण और बलात्कार करने की नीयत से पट्टमबि स्कूल के एक कमरे में ले गया था. इस मामले में दंड विधान की धारा-509 के अंतर्गत एक मुकदमा दर्ज किया गया था. इसके साथ ही पीड़िता के पिताजी केरल के माला आर्य आदिवासी समुदाय से थे.


इसके आधार पर आरोपी के खिलाफ अनुसूचित जाति / जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून 1989 (SC/ST prevention of atrocities act 1989) की धारा-3(1) (पग) के अंतर्गत भी मामला दर्ज हुआ था.


आरोपी ने पुलिस के इस कदम को केरल उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी.


केरल हाईकोर्ट ने कहा कि क्योंकि पीड़िता के अभिभावक दो सौ साल पहले ही ईसाई धर्म अपना चुके थे. इसलिए वह अनुसूचित जनजाति के सदस्य नहीं रह गए थे.


केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कि थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लेते समय कहा कि मात्र धर्म बदलने से किसी व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति की सदस्यता से वंचित नहीं कर सकते है.


यदि ऐसा कोई मामला होता है. तो मामले में उस व्यक्ति को साबित करना पड़ेगा कि क्या यह उस समुदाय की परंपरा, भाषा, संस्कृति, रूढ़ि इत्यादि का पालन करता है.


इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-242 के अंतर्गत सिर्फ राष्ट्रपति ही किसी समुदाय को उस राज्य के राज्यपाल से परामार्श लेकर अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे सकते है.


इस मामले में फैसला देते हुए अदालत ने मानव विज्ञान शास्त्र (Anthropological Studies) से भी कई उदाहरण दिए थे.


कुल मिला कर अदालत ने यह कहा था कि किसी धर्म को अपना लेने से आदिवासी को जनजाति की सूचि से नहीं हटाया जा सकता है.

3. कार्तिक उरांव बनाम डेविड मुंजनी


धर्मपरिवर्त्तन और अनुसूचित जनजातियों का लाभ का पहला मामला दरअसल राजनीतिक था और चुनाव से भी जुड़ा था.
यह मुकदमा काग्रेंस पार्टी के नेता कार्तिक उरांव ने डेविड मुंजनी के खिलाफ़ दर्ज कराया था. जिसमें उन्होंने आरक्षित सीट से चुनाव में हारने के बाद सरना और ईसाई आदिवासी का मामला एलेक्शन ट्राईब्यूनल और पटना उच्च न्यायलय में उठाया था. लेकिन दोनों ही जगह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.


न्यायलय में यह तर्क दिया गया कि प्रतिवादी 1 और 2 भारतीय ईसाई है. इसलिए वह लोग आदिवासी जीवन शैली का पालन नहीं करते है और ना ही आदिवासी रीति- रिवाज़ के बारे में कुछ जानते हैं. इसलिए वह लोग आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ सकते.


लेकिन इस मामले में पटना न्यायलय ने मामले का फैसला सुनाते समय कहा था की जो उरांव रीति- रिवाज़ ईसाई धर्म अपना लेते हैं, तो भी वो उरांव आदिवासी ही माने जाएंगे. इस मामले में पटना हाईकोर्ट ने कई उदाहरण देते हुए यह फैसला दिया था.


मसलन कोर्ट ने कहा कि जो उरांव आदिवासी धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन गए हैं, उन्हें क्रिश्चन उरांव कहा जाता है. यानि वे धर्म परिवर्तन के बाद भी उरांव ही माने जाते हैं और अपनी जाति नहीं खोते हैं.


इसके साथ ही कोर्ट ने जेना उरांव बनाम जोहन मामले की भी चर्चा की थी. जिसमें बात उरांव शब्द तक पहुंच गई थी की उरांव शब्द का मतलब एक नस्ल या आदिवासी का एक वर्ग होता है ना कि कोई धर्म.


हालांकि जेना उरांव बनाम जोहन और कार्तिक उरांव बनाम डेविड मुंजनी मामले में यह देखा गया कि वे आदिवासियों के सभी पर्व त्योहार नहीं मनाते हैं. इसके अलावा यह भी देखा गया कि वे कई आदिवासी पर्व अलग अलग तरीके से मनाते थे, जिसका ईसाई धर्म से कोई लेना-देना ही नहीं था.


लेकिन कोर्ट ने पाया कि ऐसे कई आदिवासी परिवार हैं जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया है लेकिन फिर भी वो सभी आदिवासी पर्व नहीं मनाते हैं.


कुल मिला कर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद भी अगर कोई परिवार या व्यक्ति आदिवासी रीति रिवाजों और प्रथाओं का पालन करता है तो उसे आदिवासी ही माना जाएगा.


ऐसी स्थिति में उन्हें शिक्षा, रोज़गार या राजनीतिक आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है.


सुप्रीम कोर्ट और देश की अन्य अदालतों ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि धर्मांतरण करने से कोई आदिवासी अपनी मूल पहचान नहीं खोता है. लेकिन इसके बावजूद इस मुद्दे को बार-बार उछाला जाता है.


इस मुद्दे के सहारे आदिवासी समाज में बंटवारा और ध्रुविकरण करने का प्रयास किया जाता है.

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