HomeAdivasi Dailyओडिशा: तिल-तिल कर, एक आदिवासी समुदाय मिट रहा है

ओडिशा: तिल-तिल कर, एक आदिवासी समुदाय मिट रहा है

ओडिशा (Odisha) की मांकड़िया (Mankadia) जनजाति धीरे धीरे विलुप्त हो रही है. इसके कई कारण हैं लेकिन विस्थापन इन सभी कारणों की जड़ है.

आदिवासियों की सबसे ज़्यादा जनसंख्या मध्य प्रदेश में है लेकिन  सबसे ज़्यादा अलग अलग तरह के आदिवासी समुदाय ओड़िशा (odisha) में रहते हैं. इन्हीं में से एक आदिवासी समुदाय है ‘मांकड़िया (Mankadia or mankidia ). “

मांकड़िया आदिवासी ओडिशा के मयूरभंज ज़िले (Mayurbhanj)के आस पास के जंगलो में रहते हैं. ये आदिवासी जंगलों में भी अपने स्थान बदलते रहते थे. स्थान बदलने का कारण ये है की इन जंगलों में मौसम के अनुसार अलग अलग स्थानों में अलग अलग तरह खाने पीने की चीज़े उपलब्ध होती थीं.

यह आदिवासी अक्सर जंगलो में कांदा, फल- फूल खाते थे और छोटे मोटे जानवरों का शिकार करते थे. लेकिन 90 के दशक में यह जंगल सिमलीपाल नेशनल पार्क के अंतर्गत आ गए जिसके बाद सरकार  ने इन आदिवासियों को जंगल से निकालकर दूसरे स्थानों में विस्थापन कर दिया.

 विस्थापन के बाद इनके समाज में कई समस्या देखने को मिली

रोज़गार

मांकड़िया आदिवासी जंगलों में रहते थे और इन्हें रस्सी बनाने में माहिर माना जाता था. ये रस्सी जंगल में मिलने वाली लताओं और बेलों की छाल से बनाई जाती थीं. इन रस्सियों को ये आदिवासी जंगल के पास रहने वाले किसान परिवारों को बेचते थे.

अब क्या बदलाव आया

सरकार ने विस्थापन के बाद इन्हें मकान के साथ साथ खेती के लिए कुछ ज़मीन भी दी थी. लेकिन ये आदिवासी खेती की तकनीक नहीं जानते हैं. क्योंकि ये खाने पीने के लिए पूरी तरह से जंगल पर ही निर्भर थे. इसलिए खेती करना इनके लिए रोज़गार या जिंदा रहने का कोई स्थाई विकल्प नहीं था.  

वहीं सरकार द्वारा स्थापित संस्था मांकडिया विकास ने इनके लिए कार्यक्रम आयोजित किए. जिसमें इन्हें  बैग बनाना सिखाया गया था. लेकिन इन्हें बेचने के लिए कोई स्थाई मार्केट उपलब्ध नहीं कराई गई जिसकी वज़ह से आज इनमें से कोई भी आदिवासी इस योग्यता को सीखने में दिलचस्पी नहीं दिखाता है.

जाहिर है कि ऐसी योग्यता जिससे कोई काम काज़ ना मिले उसे शायद ही कोई सीखने में दिलचस्पी रखे. इसके अलावा राशन पानी भी इन्हें सरकार की तरफ से दिया जाता है. लेकिन ये भी मदद की जगह समस्या बन कर रह गई. क्योंकि आस पास कोई रोजगार का विकल्प नहीं है और राशान इन्हें सरकार की तरफ से मिल ही जाता है.

कोई काम काज़ ना होने के कारण इनके मन में कई तरह की नाकारकत्मा पैदा होने लगी है. जिससे इस समुदाय के कई आदिवासी डिप्रेशन का शिकार बन गए.

इस आदिवासी समुदाय की जनसंख्या में एक ठहराव देखा जा रहा है. कई जानकारों का कहना है कि डिप्रेशन इसकी एक बड़ी वजह हो सकती है.

जनसंख्या में गिरावट

2011 के आकड़ो के अनुसार इनकी जनसंखया 2000 के आस पास बताई जाती है लेकिन इसमें इस समुदाय के उन लोगों को नहीं गिना गया जो रोज़गार के लिए इन इलाकों से बाहर चले गए.

इसके साथ ही डिप्रेशन के कारण इनकी जनसंख्या में गिरावट देखने को मिली है.

जनसंख्या में गिरावट का दूसरा कारण ये है की यहां के बच्चे कुपोषण का शिकार हुए है. क्योंकि जो राशन इन्हें दिया जाता है उनमें सिर्फ कुछ ही चावल होता है. ये लोग हमेशा से जंगलो से सब्जियां और शिकार करके खाते थे इसलिए इनके खाने में अब काफी पोषक तत्व की कमी हो गई है.

जिसकी वज़ह से ही इन आदिवासी समुदाय के ज्यादातर बच्चे कुपोषण का शिकार हुए है. इसके  अलावा इनके बच्चों में शिक्षा की कमी भी एक बड़ी समस्या है.

शिक्षा की कमी

शिक्षा सभी का मूलभूत अधिकार है. इनके इलाकों में स्कूल भी बनाए गए है और वहा सब सुविधाएं भी उपलब्ध है. लेकिन यहां काफी कम बच्चे ही पढ़ाने आते है. इसका मुख्य कारण यही है की रोज़गार का कोई भी विकल्प ना होने की वज़ह से लोग दूसरे स्थानों में विस्थापन कर चुके हैं. जो लोग बचे हैं, उनमें रोज़गार एक बड़ी दिक्कत है. इसलिए यह लोग बच्चों को तभी शिक्षा के लिए प्रेरित कर पाएंगे. जब यह खुद रोज़गार की कमी के चलते सभी नाकारकत्माओं से दूर होंगे.

नाकारकत्मा उत्पन्न है एक बड़ी समस्या

नाकारकत्मा का कारण सिर्फ रोज़गार ही नहीं है. दरअसल यह आदिवासी समुदाय सादियों से जंगलों में रहते थे और अब इन्हें ये कहकर स्थानीय इलाकों में इनका विस्थापन किया की जंगली जानवरों से इनसे ख़तरा है.

लेकिन जो सादियों से जंगली जानवरों के साथ रहते आए हैं, भला उन से जंगल के जानवरों को कैसा ख़तरा हो सकता है ?

अगर यह तर्क मान भी लिया जाए तो फिर इन विस्थापित आदिवासियों का पुनर्वास करते समय उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और जीवनशैली को ध्यान में रखा जाना चाहिए था.

मसलन ये हमेशा से जंगलों में इधर उधर घूमते रहते थे. इसलिए एक छोटे से मकान में रहना इनके लिए मुश्किल है. वहीं गर्मियों में तो इन मकानों में रहना बेहद मुश्किल है. इसलिए यह आदिवासी अपने मकानों के बाहर ही बैठे रहते हैं.

वन अधिकार अधिनियम 2006 का लाभ भी नहीं उठा पाए हैं. क्योंकि इन आदिवासियों को इस कानून में आदिवासी समुदायों को दिए गए अधिकारों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है.

वैसे भी उनके पास शायद ही कोई दस्तावेज़ होगा जो यह साबित कर सके कि वे ही जंगल के असली मालिक हैं…और कानूनव और प्रशासन तो सेर भर राशन के लिए भी आधारकार्ड से लिंक किया हुआ राशन कार्ड मांगता है.

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