बाल विवाह (Child marriage) आदिवासी समाज सहित ग्रामीण इलाकों का कड़वा सच है. इससे ओडिशा का आदिवासी समाज भी प्रभावित है. इस प्रभाव को कम करने के लिए सालों से कई प्रयास किए जा रहे हैं.
इसी प्रयास का एक छोटा-सा परिणाम ओडिशा (Tribes of Odisha) में देखने को मिला है. पिछले एक साल में ओडिशा के कोरापुट ज़िले में 65 बाल विवाह (child marriage in Koraput district) को रोका गया है. इनमें से ज्यादातर मामले आदिवासी समुदाय से थे. इन आदिवासी समुदायों में परजा, गदबा, भूमिया, भात्रा, सौर और कोंध का नाम जुड़ा हुआ है.
इन सभी आदिवासियों में यह पंरपरा है की लड़कियों का 18 साल से पहले और लड़कों का 21 साल से पहले विवाह हो जाना चाहिए.
प्रशासन का यह दावा है की बाल विवाह के प्रभाव को ज़मीनी स्तर तक कम करने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे कमेटियों का गठन किया है.
इस काम में गाँव के पंचायत, स्वास्थ्य, समाज कल्याण विभाग और पुलिस आधिकारियों ने भी उनकी मदद की है.
उन्होंने यह भी दावा किया है की बाल विवाह से संबंधित मामलों की रोकथाम करने के साथ ही उन्होंने पीड़ित और उसके परिवार से बातचीत की और इसके नुकसान और प्रावधानों के बारे में जानकारी दी है.
आईसीडीएस पर्यवेक्षक और बाल संरक्षण इकाई के सदस्य ने कहा कि हमने आदिवासी परिवारों को उस समय रोका जब वह अपने शादी से संबंधित रीति रिवाज़ निभा रहे थे और उन्हें बाल विवाह के खिलाफ प्रावधानों और कानूनी सज़ा से भी अवगत करवाया.
उन्होंने यह भी बताया की बाल विवाह को रोकने के लिए कई प्रयास किए गए और ज़मीनी स्तर तक इस पर काम किया जा रहा है. लेकिन फिर भी राज्य में यह समाप्त नहीं हो पा रहा है.
उन्होंने आदिवासियों पर आरोप लगाते हुए कहा कि आदिवासी अपने बच्चों की शादी छुपते-छुपाते करते हैं और इसके बारे में ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं होती.
बाल सरंक्षण समिति के अन्य सदस्य ने बताया कि बाल विवाह के बारे में जानकारी मिलने के बाद भी दूरदराज के गांवों में ऐसे मामलों को रोकने में हमें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है. क्योंकि आदिवासी लड़कियां अपनी जानकारी साझा किए बिना गांवों के युवाओं के साथ नाबालिग लड़कियों को भगाती हैं.
बाल संरक्षण समिति हर तीन महीने में बाल विवाह से संबंधित मामलों की रिपोर्ट लेती है.
बाल संरक्षण के बचाव में यह देखा जा सकता है की उन्होंने आदिवासियों को प्रावधानों और कानूनी सज़ा से डराने का प्रयास किया.
बाल विवाह जैसी क्रूर प्रथा आदिवासी समाज में पूरी तरह से तब तक समाप्त नहीं हो पाएगी, जबतक उन्हें ये खुद से गलत नहीं लगता और इससे होने वाले गलत प्रभावों के बारे में उन्हें पता नहीं चलता.